आत्मकथा : मेरे घर आना ज़िन्दगी (50)
आत्मविश्वास के पद चिन्ह
संतोष श्रीवास्तव की रचनाधर्मिता के कई आयाम है।वे एक समर्थ कथाकार, संवेदनशील कवयित्री, जागते मन और अपलक निहारती नजरों वाली संस्मरण लेखिका,न भूलनेवाले लेखे-जोखे के संग देर औऱ दिनों तक याद रखनेवाले यात्रा वृत्तांत लिखनेवाली ऐसी रचनाकार है जो हर विधा में माहिर है।उनका लेखन स्तब्ध भी करता है और आंदोलित भी।
उनके कविता संग्रह ‘तुमसे मिलकर’ की कविताओं से गुजरते हुए यह अहसास होता है कि उनकी दृष्टि दूर तक जा कर न तो ओझल होती है,न भोथरी।वह पाठक को चेतना के उस महाद्वार पर खड़ा कर देती है जहां जीवन के सरोकार भी है,उसका स्पंदन भी।उसकी विविधता भी है,विराटता भी।वहाँ प्रेम भी है,वियोग भी।कविता की,शब्द की सम्भावना ओर सीमा को स्पष्टता औऱ निर्भीकता से वे उभारती हैं।यही इन कविताओं की ताकत भी है,खूबसूरती भी।
वे लिखती हैं
‘ठाट बाट चाहिए
तो काठ होना पड़ेगा,
और उन्हें,काठ होने से इनकार है।’
‘भुगतान’कविता में वे लिखती है
‘वह दरकी हुई जमीन में
बोता है बीज,
सम्भवनाओं के,अरमानों के।’
उनकी कविताओं में बसा अदम्य जीवनोल्लास और उतना ही उनके अंतर में बसा अवसाद पाठकों को झकझोरता भी है ओर रिझाता भी है।
इस संग्रह की ‘घायल अतीत’,’जिल्द’,’आषाढ़ की बूंदे’औऱ’चिलकते सहरा में’ जैसी कविताएं अपनी लगभग अकेली ओर अद्वितीय राह नहीँ छोड़ती।यहाँ लेखिका का आत्मविश्वास से चलना और अप्रत्याशित दृश्य उकेरना मन को भिगो जाता है।
इन कविताओं में हमारे समय में अन्तःकरण की विफलता भी है औऱ हताश प्रार्थनाएं भी ।उम्मीदों के फिसलन भरे गलियारे में ये कविताएं लकदक विश्वास का बीज मंत्र है।
कुल जमा यह संग्रह एक मुकम्मल लेखिका का भरोसेमन्द मुकाम है।
सुंदर कवर और खूबसूरत छपाई वाली इस पुस्तक का लोकार्पण विश्व पुस्तक मेले में होना था।किताबवाले प्रकाशक प्रशांत जैन और उनके सहयोगी सुकून भाटिया किताबों के प्रकाशन से लेकर लोकार्पण तक बहुत उत्साह में रहते हैं। उन्होंने दोनों किताबों के लोकार्पण की तारीख 10 जनवरी रखी।
8 जनवरी की सुबह जमा देने वाली ठंड और कोहरे की घनी चादर में दिल्ली के हजरत निजामुद्दीन रेलवे स्टेशन पर उतरी तो देखा मेरे प्रकाशक मित्र नितिन गर्ग मुझे लेने आए हैं। 8 से 11 जनवरी तक मुझे फिरोज शाह कोटला स्टेडियम स्थित विक्रम नगर में उनके घर रुकना था। उनकी पत्नी मीनू ने जिस अपनत्व से भरकर चार दिनों में मेरा स्वागत किया वह मेरे दिल में बस गया।इतना स्नेहिल परिवार, नितिन जी की दोनों बेटियां, बेटा लगा ही नहीं कि पहली बार इस घर में आई हूं।
नाश्ते के बाद नितिन जी मुझे अपने ऑफिस ले गए। मुझे हंस के ऑफिस भी जाना था जो हर बार दिल्ली आने पर मेरा आवश्यक शगल रहता है ।बीना उनियाल पूर्व परिचित …..हंस का ऑफिस सूना सन्नाटे से घिरा….. राजेंद्र यादव जिस कमरे में बैठते थे, जिस कुर्सी पर ,पल भर तो मेरे कदम दरवाजे पर ही थम गए ।कुर्सी पर राजेंद्र यादव की कमर से सिर तक की प्रतिमा ।जैसे बैठे हों कुर्सी पर। हमेशा की तरह काला चश्मा आंखों पर ।किसी लेखक को इस तरह जीवंत रखना राजेंद्र यादव की लोकप्रियता ही है। हंस ने उनकी प्रतिमा स्थापित कर मानो उन्हें अपनी कर्तव्यनिष्ठ श्रद्धांजलि दी। यह कमरा गुलजार रहता था जब वे जीवित थे। भारी मन से मैं नमन प्रकाशन नितिन जी के पास लौटी तब तक मीनू भी लंच लेकर आ गई थी। हमने साथ में खाना खाया। शाम 4:00 बजे मैं मीनू के साथ साहित्य अमृत के ऑफिस गई ।बाबूजी श्यामसुंदर बेहद अशक्त ,दुर्बल लगे। मुझे क्या मालूम था कि उनसे मेरी यह आखरी मुलाकात होगी। इस मुलाकात के लगभग साल भर बाद उनकी मृत्यु हो गई। उनके विषय में जब भी सोचती हूं तो उनका
आशीर्वाद भरा स्नेहिल वाक्य याद आ जाता है कि बेटी घर आई है तो खाली हाथ थोड़ी विदा करेंगे और उन्होंने मुझे साहित्य अमृत का जिंदगी भर का मानद सदस्य बना दिया । मेरे इतनी बार घर बदलने ,शहर बदलने के बावजूद भी साहित्य अमृत मुझे आज भी मिल रही है और उनके बेटों पवन, प्रभात व पीयूष से भी वैसे ही सम्बन्ध बने हुए है। श्याम सुंदर बाबूजी ने पंडित विद्यानिवास मिश्र, डा लक्ष्मीमल सिंघवी, डा त्रिलोकीनाथ को जोड़कर साहित्य अमृत शुरू की थी ।मगर उन्होंने उसमें कभी अपनी किसी पुस्तक की समीक्षा प्रकाशित नहीं की। वे एक साहित्यिक प्रकाशक नहीं थे बल्कि उन्होंने साहित्य को जिया भी था।
साहित्य अमृत के ऑफिस से मीनू मुझे चांदनी चौक बाजार ले आई ।गर्म कपड़ों की दुकानें ही दुकानें। दिल्ली का पारा पहाड़ों में बर्फबारी के कारण लुढ़कता ही जा रहा था ।5:00 बजे शाम से ही स्वेटर जर्सी के बावजूद मेरे बदन में कपकपी शुरू हो गई ।बहरहाल एक ऊनी कोट और नाइन प्लाई का गरम स्वेटर खरीदकर हमने चाट कचोरी खाई और अंधेरा होते होते घर लौट आए।
कल और परसों मुझे मेले में ही दिन बिताना है। इतने लेखकों से मिलना जुलना, विभिन्न स्टालों पर हो रही चर्चा, विमर्श ,लोकार्पण…… साहित्यिक उत्सव के क्या कहने।
10 जनवरी दोपहर 3:00 बजे किताब वाले प्रकाशन के भव्य स्टॉल पर मेरी किताबों का लोकार्पण हुआ ।सहयोग दिया हरीश पाठक, महेश दर्पण ,गिरीश पंकज ने।साथ में गिरीश पंकज ,प्रमिला वर्मा और राजकुमार कुंभज की किताबों का लोकार्पण मेरे हाथों हुआ। इस सत्र का संचालन भी मैंने किया ।लोकार्पण में करीब 60 लेखकों की उपस्थिति रही। मेरे सभी लेखक मित्र आए। यहीं पहली बार सविता चड्डा से मुलाकात हुई। अब वे विश्व मैत्री मंच की दिल्ली शाखा की अध्यक्ष है।
दूसरे दिन मेरी भोपाल वापसी थी। इसलिए बाहर डिनर लेने का प्लान बना। मेले से हम डिनर के लिए डॉल म्यूजियम स्थित होटल में आए ।नितिन जी के बेटे बेटियां डायरेक्ट होटल पहुंच गए थे ।उस रात के डिनर का वह आनंददाई वक्त मेरी यादों में अक्स हो गया और भी इसलिए कि हमने सन्नाटे भरी सड़क के फुटपाथ पर जमा देने वाली ठंड में रात 11:00 बजे आइसक्रीम खाई ।मैंने मीनू से कहा “मेरी आइसक्रीम खाते हुए एक फोटो खींच दीजिए धीरेंद्र अस्थाना जी को भेजूंगी ।विश्व पुस्तक मेले में ठंड की वजह से वे नहीं आते।”
क्रमशः