शीशा
एक अंतराल के बाद देखा…
मांग के करीब सफेदी उभर आई है
आँखें गहरा गयी हैं,
दिखाई भी कम देने लगा है…
कल अचानक हाथ कापें ..
दाल का दोना बिखर गया-
थोड़ी दूर चली ,
और पैर थक गए .
अब तो तुम भी देर से आने लगे हो..
देहलीज़ से पुकारना ,अक्सर भूल जाते हो
याद है पहले हम हार रात पान दबाये,
घंटों घूमते रहते…
..अब तुम यूहीं टाल जाते हो…
कुछ चटख उठता है-
आवाज़ नहीं होती …
पर जानती हूँ
कुछ साबित नहीं रह जाता…..
और यह कमजोरी…
यह गड्ढे….
यह अवशेष …..
जब सतह पर उभरे …
एक चटखन उस शीशे में बिंध गयी ..
और तुम उस शीशे को…
फिर कभी न देख सके…!

किन्नर …!

हाँ मैं किन्नर हूँ
किन्नर …न पूर्ण स्त्री न पुरुष
एक अभिशाप
सभ्य समाज के दामन पर एक धब्बा
जिसे उसके अपने ठुकरा देते हैं
जिससे जुड़ना एक कलंक समझते हैं ।
क्या भूल है हमारी
जो हम ऐसे हुए ।
एक साधारण मनुष्य की भावनाएँ
हम में भी है ।
हम भी तरसते हैं आजीवन
माँ की ममता और पिता के स्नेह के लिए
हम भी कलपते हैं अँधेरों में
रोशनी के लिए
एक इज़्ज़तदार जीवन के लिए…!
हे माता बहुचरी
जीवन भर आशीषा ,
सदा सबका भला चाहा
लंबी सुखी उम्र की कामना की
सारी बलाएँ अपने सिर लीं
पर हम एक साधारण इंसान भी न कहलाए
समाज ने बहिष्कार किया ,
हमसे जुडने में शर्मिंदगी महसूस की
कभी सोचा कि
हमारे सीने में भी एक हृदय बसता है
जहाँ एक पत्नी बनने की लालसा ,
एक घर बसाने की चाह पलती है
किसी की अर्धांगिनी बनने की हसरत
बसती है
जन्म के साथ ही विलग कर दिया जाता है ,
समाज के झूठे दंभ की खातिर
हमें अनाथ कर दिया जाता है
हम तरसते हैं , माँ के वात्सल्य भरे स्पर्श के लिए
शीश पर पिता के वरद हस्त के लिए
सच्चे किन्नरों में लोग
कोई दैवीय शक्ति विद्यमान समझते हैं
हमारे आशीष को फलदायी
और बददुआ को श्राप समझते हैं
पर समाज का हिस्सा नहीं मानते
कोई बता दे हमारा दोष
अगर प्रकृति ने हमें ऐसा बनाया
तो हम क्यों दंडित हों
हमारी भूल क्या है
जो यह समाज हमें सिर्फ तिरस्कार देता है ।
हमसे सारे नाते तोड़
हेय दृष्टि से देखता है ।
किन्नर होना एक अभिशाप है
एक गाली है
जो समाज ने हमारे माथे पर गोद दी है
जो रिसती रहती है एक नासूर सी
जिसकी पीड़ा हमें छलनी कर देती है
पर हमें मुसकुराते जाना है
मंगल गीत गाते जाना है
हर शुभ कार्य में आशीष बरसाना हैं
और स्वयं
एक गुमनाम तिरस्कृत जीवन जीकर
मर जाना है
आधी रात को अंधेरे में दफना दिया जाना है
ताकि फिर हम यह जन्म न लें
चप्पलों से कब्र को पीटा जाना है
कि ऐसा तिरस्कृत जीवन फिर न कभी जिएँ।
रंग रोगन पोत आँसुओं को छिपाना है
नाच गाकर , अपने हृदय की पीर को दबाना है ।
हम कभी न कहेंगे हमारी जगह खुद को रखकर देखो
नहीं , नहीं चाहेंगे ऐसा बोझिल जीवन किसी को जीना पड़े
बस सिर्फ हमें
जीने का हक़ दो समाज में स्थान दो
एक बिनती है
हमें इंसान समझो
आखिर हमने भी तुम्हारी ही तरह
एक माँ की कोख से जन्म लिया है ।

शहीदों के जब ताबूतों में अवशेष आते हैं

देश की खातिर वीरों ने दी
जीवन की कुर्बानी
हर शहीद के साथ जुड़ी
शहादत की कहानी।
इन वीरों के परिवार की
अपनी एक कहानी
सिर्फ नहीं देता शहीद
देता कुनबा कुर्बानी
पीछे रह जाते हैं
एक बेवा बूढ़ी माता
जर्जर शरीर लिए पिता
एक बहन और एक भ्राता
इनके सपने, इनके अरमान काठ हो जाते हैं
शहीदों के जब ताबूत में अवशेष आते हैं ।

बूढ़ी माँ थी खड़ी वहाँ
लिए आँखें पथराईं
भेजा था जिसको तिलक लगा
करे उसकी अगुआई
दोनों हाथों से शीश झुका
जो माथा चूमा था
उसकी काठी के टुकड़ों की
बस गठरी है आई
अर्थी चूम बिलखना उसका देख न पाते हैं
शहीदों के जब ताबूत में अवशेष आते हैं

एक शहीद की ब्याहता थी
चूड़ा था हाथों में
पथराई सी थी खड़ी हुई
उजड़े हालातों में
उसका अंश भीतर पल रहा
यह खबर सुनानी थी
उसके अरमान शहीद हुए
किस्मत की घातों में
उजड़ी किस्मत देख आँसू रुक न पाते हैं
शहीदों के जब ताबूत में अवशेष आते हैं

उसी भीड़ में कोने में
बैठा था बूढ़ा बाप
कर्ज़ बीमारी बन गए थे
अब जीवन का श्राप
उसके बुढ़ापे की तो अब
लाठी भी टूटी थी
अब तक थी जो पल रही
वह आस भी छूटी थी
जर्जर सहमी काया देख के मन भर आते हैं
शहीदों के जब ताबूत में अवशेष आते हैं


मोनालिसा


एक रहस्य सी..!
तुमसे
जुड़े हैं
अनेक प्रश्न
सदियों से…

‘तुम्हारी मुस्कान’
उपहास लगती है
हे पुरुष
कर लो कोशिश
नही पढ़ पाओगे कभी
स्त्री के मनोभावों को…
16 वर्ष लग गए तुम्हें
फिर भी कृति अपूर्ण ही रही
नही उकेर पाए
वह सब
जो एक स्त्री के भीतर खदबदाता है
न जान पाए
मुस्कान के पीछे छिपे ध्येय को…

तुम्हारा वह कनखियों
से देखना
कई भ्रम पैदा करता है
‘वह दृष्टि’
मानो टोह रही हो
मन के विकारों को
मंशाओं को
आगाह करती हुई
स्त्रियों को, कि
कसे रहो चाप
इंद्रियों पर…
जागृत रखो
छटी इन्द्रिय को, कि
वही तुम्हारा
सुरक्षा कवच है…
पुरुषों को, कि
स्त्री के अंतर्मन को जानो
सम्मान करो
उसकी इच्छा का
भावनाओं का
उसके मन को जीतो
वह पूर्ण रूपेण समर्पित
हो जाएगी…

कहो मोनालिसा
सच हैं न
या फिर
कोई और रहस्य जो,
सिर्फ तुम जानती हो…!

क्षणिकाएँ

प्रेम


उसने पूछा
प्रेम करते हो मुझसे
हाँ, बहुत
आज़मा लो
पर्चियाँ बनाओ
कुछ पर लिखो प्रेम
कुछ पे नफरत
उसने पर्ची उठायी
उसपर लिखा था प्रेम
वह मुस्कुरा दिया
देखा
में न कहता था
वह भी मुस्कुरा दी
गुड़ी मुड़ी कर फेंक दी
सारी पर्चियाँ
जिन पर लिखा था
प्रेम..!

कागज़ की कश्ती

कागज़ की कश्तियाँ
वह अधूरे सपने
जो एक मज़ाक –
एक खेल की उपज होते है –
ज़रा सी धचक से बह जाते है –
बच्चों का वह खेल
जिससे अनायास ही –
बड़े जुड़ जाते हैं –
खेल खेल में …!

धरोहर

कुछ यादें…
कुछ पल ….
कुछ एहसास …..
बंद मुट्ठी में
छिपे कुछ राज़… !
सीली खुशियों में
छिपी आहें……
नम कोरों पर रुके
कुछ ख्वाब …..!!
फूल से
आज भी संजो रक्खे हैं …..
दिल में कुछ नश्तर….
कुछ ख़ार….
कुछ ग़ुबार….!!!


खुरचन

तपती कढ़ाई के किनारों पर
जमी खुरचन –
किसे नहीं सुहाती !
सच ही तो है
दर्द जितना गहरा –
उतना मीठा !

दोहे

माँ

माता सा होता नहीं , दूजा कोई साथ ।
सुनो ईश ने ही चुना , सबके सर यह हाथ।।

कोई भी विपदा अगर , भूले से जो आय ।
ढाल बन उसके आगे, सदा खड़ी हो जाय ।।

जग में ढूँढा ईश ने जब अपना पर्याय ।
माँ के बाद कोई भी दूजा नही सुहाय ।।

कोशिश करके देख लो, कर लो जतन हज़ार।
चुका सके कोई नही माता का उपकार।।

जब तक यह सौगात है, रह लो जी भर साथ।
ना जाने कब रूठकर, ईश हटा लें हाथ।।

कर्म

जीवन में हो जाय जब सहसा कोई बात
चेत जा तू ओ प्राणी किस्मत करती घात

कोई भी घटना सुनो करता बिना न होय
कोई विपदा जब घटे जान कर्म फल होय

समय बड़ा बलवान है , बात सदा रख याद
सब मिल जाए धूल में सुने नहीं फरियाद

मेरी बेटी अब माँ बन गयी है

मेरी बेटी अब माँ बन गयी है
बचपन में
कई बार पोछें हैं मेरे आँसू
फ्रॉक के घेर से…
ज़ख्मों पर फूँक मार
उड़ाकर दर्द को
हथेलियाँ नचा
काफूर कर दी है सारी पीड़ा…
अनेकों बार
छोटीसी गोद में सिर रख
दुलारा है मेरी थकन को
और भर दी है स्फूर्ति…
अब वह नन्ही
बड़ी हो गई है …
अपनी नन्ही को सीने से लगा
हरती है उसकी पीड़ा
आँचल में छिपा
दुलारती है उसे
भरती है जीवन की ऊर्जा।
ताज्जुब करती है
माँ,
माँ बनना कितना सुखद होता है
एक विचित्र सा एहसास
मेरे खून, माँसपेशियों से बनी
मेरा अंश..!
मेरा अपना सृजन..!
अद्वितीय है
यह अनुभव माँ….!
निहारते हुए
हर हरकत पर भरमाते हुए
छिपा लेती है उसे दुनिया से
बुरी नज़र से दूर।
मेरी नन्ही अब माँ बन गयी है।


परिभाषा

चाँद

सपनों की वह दुनिया
जहाँ कहानियाँ बुनी जाती हैं –
और कते हुए सूत के छोर से बंधी
हम तक पहुँच जाती हैं …
वह हमदर्द !
जो हर तड़प से वाकिफ़ है
जो हर उस हिचकी की वजह जानता है
जो विरह के रुदन से उठती है …..
वह क़ासिद !
जिससे सबको उम्मीद है
की हर हाल में , मेरा पैगाम
वह माहि तक पहुंचा ही देगा …..
वह दाता !
जिससे हर सुहागन
कुछ साल उधार माँगती है
कि उसका सुहाग बना रहे …..

वह दानवीर !
जो देता है , देता जाता है
इस दर्जा कि खुद रीता हो जाता है
लेकिन दुआओं के असर से फिर बढ़ जाता है
जो एवज में मिलतीं हैं उसे ….

कुछ अनकहा

आज सोचा चलो एक प्रेम कविता लिखूँ
आज तक जो भी लिखा –
तुम से ही जुड़ा था –
उसमें विरह था …
दूरियाँ थीं…
शिकायतें थीं..
इंतज़ार था …
यादें थीं..
लेकिन प्रेम जैसा कुछ भी नहीं ….
हो सकता है वे जादुई शब्द
हमने एक दूसरे से
कभी कहे ही नहीं-
लेकिन हर उस पल
जब एक दूसरे की ज़रुरत थी …
हम थे…
नींद में अक्सर तुम्हारा हाथ खींचकर …
सिरहाना बना ..
आश्वस्त हो सोई हूँ …..
तुम्हारे घर देर से पहुँचने पर बैचैनी …
और पहुँचते ही महायुद्ध !
तुम्हारे कहे बगैर –
तुम्हारी चिंताएँ टोह लेना-
और तुम्हारा उन्हें यथा संभव छिपाना
हर जन्म दिन पर रजनी गंधा और एक कार्ड …
जानते हो उसके बगैर –
मेरा जन्म दिन अधूरा है
हम कभी हाथों में हाथ ले
चाँदनी रातों में नहीं घूमे-
अलबत्ता दूर होने पर
खिड़की की झिरी से
चाँद को निहारा ज़रूर है
यही सोचकर की तुम जहाँ भी हो ..
उसे देख मुझे याद कर रहे होगे….
यही तै किया था न –
बरसों पहले
जब महीनों दूर रहने के बाद –
कुछ पलों के लिए मिला करते थे
कितना समय गुज़र गया
लेकिन आदतें आज भी नहीं बदलीं
और इन्ही आदतों में
न जाने कब —
प्यार शुमार हो गया –
चुपके से …
दबे पाँव…..


सरस दरबारी

1 thought on “कवयित्री:सरस दरबारी

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