समीक्षा: अनुभूति की वारुणि छलकाता ‘‘ स्वर्ण चषक’’

0

लेखिका – अलका प्रमोद
रचनाकार, सम्पादक, प्रकाशक, समूह-संचालक, सामाजिक कार्यकर्ता, निवेदिता श्री ने सदा के समान अपनी सद्यः प्रकाशित कृति, हाइगा संग्रह ‘‘ स्वर्ण चषक’’ से हिन्दी साहित्य जगत में अभिनव प्रयोग कर अपनी प्रयोगधर्मिता का परिचय दिया है। हाइगा, किसी चित्र के भाव को संप्रेषित करने के लिये, उसी पर उकेरे हाइकु के साथ उसके संयोग से प्रस्तुत रचना है जिसमें चित्र और शब्द एक दूसरे के पूरक की भूमिका का निर्वाह करते हैं। आज जब वैश्वीकरण अपना पंख फैला रहा है, निवेदिता श्री ने जापानी विधा हाइगा को हिन्दी साहित्य में स्थापित करने की राह पर सराहनीय पहल की है।
शारदेय प्रकाशन से प्रकाशित, 80 पृष्ठों एवं 114 हाइगा का यह संग्रह अपने शीर्षक के अनुरूप वह स्वर्ण चषक है जो प्रकृति के सौन्दर्य, मानव सम्बन्धों की ऊष्मा, देशप्रेमी हृदय के उद्गार, मानवता की संवेदनाएँ, जीवन-दर्शन, यथार्थ का दर्पण , अध्यात्म की गहराई और संस्कार की पूंजी, सब कुछ स्वयं में समाहित कर अपनी स्वर्णिम कान्ति से जगमगा रहा है।
हाइगा संग्रह के प्रारम्भ में कवयित्री द्वारा लिखा प्राक्कथन ‘‘ अक्षर अस्तित्व अनंत ’’ उनके लालित्य बोध से परिचित कराने के साथ-साथ अपने कथ्य से, उनके गंभीर विचारों से तथा अपने विषय के प्रति उनके ज्ञान और समर्पण की झलक दिखाता है।
कृति अपने पिताश्री को समर्पित करते हुए प्रथम हाइकु निवेदिता श्री ने लिखा है-
‘‘ पापा का साथ
गज भर का हौसला
प्रभु का हाथ’’
इस संग्रह में संकलित प्रत्येक चित्र मात्र अपने आकर्षक रंगों के संयोजन के कारण आकर्षक नहीं है, वरन् उसमें एक गूढ़ भाव निहित है जिसे हाइकु ने पूर्णता प्रदान की है। यथा ,पृष्ठ 35 पर अंकित तांडव मुद्रा में भगवान शिव का चित्र यदि प्रलय का संकेत दे रहा है तो वहीं विनाश के पश्चात आशा का संकेत भी दे रहा है । कवयित्री ने मात्र सत्रहवर्णों के हाइकु में चित्र की सम्पूर्ण व्याख्या कर दी है-
शिव तांडव
आसन्न सतयुग
तम का नाश
इसी पृष्ठ पर भगवान शिव का दूसरा चित्र सम्पूर्ण गरल को स्वयं ग्रहण कर भक्त को आश्वस्ति प्रदान कर रहा है। निवेदिता श्री का भक्त हृदय इसे देख कर पुकार उठा-
‘‘ हे नीलकण्ठ
आह्वान है तुम्हारा
तू ही सहारा ’’
पृष्ठ-67 पर अंकित चित्र में झुरमुट से झाँकता चाँद कवयित्री की मानवीय संवेदनाओं को झझकोरता है और वह लिखती हैं-
‘‘ बन जाता है
निर्धन का भोजन
रोटी सा चाँद’’
वहीं उस चित्र के पाश्र्व में अंकित गुलाबी रंग के गुलाब के चित्र के माध्यम से वह प्रेम की ऊँचाई को सिद्ध करती हैं-
‘‘ प्रेम प्रतीक
कांटो से भी निभाता
प्रेम सम्बंध’’
कवयित्री भावनाओं में डूबती तो हैं पर व्यवहारिक जीवन में मानव के मुखौटों से अनभिज्ञ नहीं हैं। पृष्ठ-74 पर दो मित्रों का चित्र है जिसमें मित्र के परोक्ष में उसके सच की परछाईं भी दिखायी दे रही है। इस पर लिखे शब्द, चित्र को मुखरता प्रदान कर रहे हैं-
‘‘ है यार सारे
आस्तीन में जो बैठे
कंुडली मारे ’’
मात्र सत्रह वर्णों में अपने भाव को संप्रेषित करना वह भी चित्र की भावभूमि पर ,देखने में जितना सरल प्रतीत होता है उसका सर्जन उतना ही दुःसाध्य है। कहना न होगा कि कवयित्री ने इस विधा के साथ पूरा न्याय किया है और हाइगा प्रस्तुति में उन्होंने स्वयं को पूर्णतः सक्षम व सफल सिद्ध किया है।
कृति के प्रकाशन की गुणवत्ता , सुश्री कशिश कोठारी द्वारा चित्रांकित आकर्षण आवरण पृष्ठ, सोने पर सुहागा कहावत को चरितार्थ करते हैं। अपनी मनोरम साज-सज्जा, उत्कृष्ट, सार्थक चित्रों तथा गागर में सागर भरती रचनाओं से युक्त यह संग्रह निश्चय ही संग्रहणीय है तथा वह मील का पत्थर है जो अनेक नवोदित रचनाकरों को राह दिखाएगा। निवेदिता श्री को हार्दिक बधाई एवं शुभकामनाएँ।
कृति का शीर्षकः स्वर्ण चषक
कवयित्रीः निवेदिता श्री
प्रकाशकः शारदेय प्रकाशन
पृष्ठः 80
मूल्यः रु 1000/- ।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *