कहानी : गुड्डो का स्कूल – अलका सिन्हा

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गुड्डो का स्कूल

आज गुड्डो पहले दिन स्कूल जा रही थी। मैं कुछ नर्वस महसूस कर रही थी। बार-बार उसे समझा रही थी कि शू-शू या पौट्टी आए तो टीचर से कहना, बैठी मत रहना। मैंने उसे नहाने के लिए बाथरूम में छोड़ा और तौलिया लाने चली गई। लौटी तो भोली तब तक उसे नहला भी चुकी थी। जल्दी से वह उसे बाहर ले आई।

पलंग पर रखा था गुड्डो का स्कूल यूनिफॉर्म – सफेद कमीज़ र्और भूरी स्कर्ट। मैं उसे ड्रेस पहनाने लगी तो भोली मंत्रमुग्ध-सी उसे देखने लगी।

“बिटिया, इसकूल जाय रहे हो, बड़े आदमी बनना… पर हमें भूल नहीं जाना…”

मैंने नजर उठाकर देखा, उसने पल्लू से अपनी आंखें रगड़ लीं।  

भोली मुश्किल से पैंतीस की होगी, पर है बिलकुल दादी अम्मा। मेरी दादी भी ऐसे ही आशीष देती थीं। खुशी हो या गम, झट उनकी आंखें भर आतीं।

रिक्‍्शे की घंटी की आवाज से तंद्रा भंग हुई।

“गुड्डो रानी, तुम्हारा डिब्बे वाला रिक्शा आय गया है,” ताली बजाती-सी भोली बोल पड़ी।

मैं गुड्डो को लेकर नीचे गई और उसे रिक्शे में बिठा दिया। गुड्डो बहुत खुश थी।

डिब्बा बंद रिक्शे की खिड़की से वह दूर तक हाथ हिलाती रही।

मैंने देखा-बाल्कनी में खड़ी भोली भी उसे हाथ हिला कर ‘बाय’ करती जा रही थी।

ऊपर आकर मैं भी अब जल्दी-जल्दी ऑफिस के लिए तैयार होने लगी। भोली भ अपना काम निपटा चुकी थी।

“बीबी जी, तुम तो दफ्तर जाय रही हो, अगर बिटिया रानी इसकूल में रोईं तो?” सशंकित-सी भोली अचानक पूछ बैठी।

मेरे हाथ एक पल को ठिठक गए। पर अगले ही पल मैंने ताला-चाबी उठा लिया। भोली के साथ-साथ खुद को भी आश्वस्त किया, “मैं फोन करती रहूंगी, दफ्तर से।”

“बीबी जी, बिटिया रानी इसकूल से किरैच में पहुंचेगी?” भोली ने मेरे हाथ से क्रेच पहुंचाने वाला सामान ले लिया, “हम पहुंचाते चले जाएंगे ये सामान।”

मुझे बड़ी राहत हो गई। कम से कम, मेरे दस मिनट तो बचा ही दिए थे उसने।

शाम को भोली मुझसे भी पहले आई खड़ी थी। मैंने दरवाजा खोला।

गुड्डो चहक रही थी, “मम्मा, मैम ने मुझे चॉकलेट दी।” गुड्डो हाथ मटका-मटका कर स्कूल में सिखाई पोयम की लाइनें सुनाने लगी।

भोली मुंह खोले उसकी हरकतें देख रही थी। भोली के साथ उसकी आठ-दस साल की बच्ची भी गुड्डो की पोयम सुन कर ताली बजा रही थी।

“बीबी जी, क्या बिंदिया भी पढ़ सकती है, गुड्डो रानी के इसकूल में?” हठात् पूछ बैठी भोली।

चार सौ रुपया महीना। मैंने मन ही मन हिसाब लगाया, पर अगले ही पल भोली के बुझते चेहरे को देखकर जवाब दिया, “क्यों नहीं भोली, इसे सरकारी स्कूल में डाल दो, वहां तो मुफ्त है पढ़ाई।”

“मुफ्त नहीं बीबी जी, हम पइसे देंगे… बिंदिया भी जाएगी गुड्डो रानी के इसकूल में।” भोली चहककर कहने लगी तो मैं हंस पड़ी, “क्यों, क्या सरकारी स्कूल में पढ़ाई नहीं होती?”

“होती तो तुमने क्‍यों नहीं डाला गुड्डो रानी को सरकारी इसकूल में?”

भोली ने कह तो दिया, मगर कहते ही भांप लिया कि वह अपनी औकात से अधिक बोल गई है।

मैं गुस्से से भर उठी। मैंने ही मुंह लगा रखा है इसे। मन ही मन तय किया, इससे अब फालतू बात नहीं करुंगी।

भोली झेंपती हुई-सी बिंदिया से कह रहो थी, “चल री, पानी तो ला दे, हम आटा तो गूंध दें।”

तीन साल से ऊपर हो गए हैं भोली को मेरे घर काम करते हुए। तब गुड्डो पैदा ही हुई थी जब इसने मेरे घर का सारा काम संभाला था। खाना बनाना, कपड़े धोना… और तो ओर, गुड्डो को नहलाना, तेल लगाना भी। और गुड्डो का काम तो इसने अपने आप हो ले लिया था।

एक दिन मैं गुड्डो को गोद में लेकर तेल लगा रही थी कि भोली बोल पड़ी, “ऐसे नहीं तेल लगता है, लाओ हमें दो।”

और उसने जो कस-कस कर तेल रगड़ा कि लड़की छह घंटे चैन से सोती रही। तब से वह ख़ुद ही उसका नहलाना-धुलाना करने लगी।

मैं बड़बड़ाती रहती, “देखो, लड़की फिसल जाएगी, दोनों हाथों से पकड़ो।” और वह हंसती हुई उसे एक हथेली में पकड़ कर नहला लाती।

मुझे याद है, एक दिन गुड्डो खूब रो रही थी। समझ ही नहीं आ रहा था कि वह क्यों रो रही है। मैं उसे डॉक्टर के पास ले जा ही रही थी कि भोली आ गई, शाम की ड्यूटी पर।

“ठहरो, हमें देखने दो!” उसने गुड्डो को गोद में ले लिया, हिलाया-डुलाया। फिर उसे पलंग पर लिटा दिया। फिर एकाएक गुड्डो की दोनों बाजुओं को पकड़कर झटके से उठा लिया।

“अरे, अरे… बच्ची का हाथ उखड़ जाएगा, क्या करती हो भोली?” मेरी सांस ऊपर-नीचे हो आई थी।

मगर उसके ऐसा करते ही गुड्डो ने रोना बंद कर दिया और कुछ देर में नॉर्मल भी हो गई। उस घटना के बाद से मैं भोली को बहुत ‘अपना’ समझने लगी थी।

बहुत बोलती थी भोली। हर समय उपदेश देती रहती। उलाहने देते से भी बाज ने आती, “ऐसे ही पलता है बच्चा, बीबी जी? अब से आधी बाजू का सुवाटर पिहनाया करो, ठंड चढ़ रही है।”

कुल मिलाकर मैं उस पर बहुत भरोसा करती थी और उसके बिना मेरा काम नहीं चल सकता था, पर आज उसकी बात पर मुझे बहुत गुस्सा आ रहा था।

भोली ने आटा गूंधकर सब्जी काट दी थी। जाने से पहले फिर मेरे नजदीक आकर खड़ी हो गई। मैंने मुंह उठाकर देखा तो कुछ झिझकती-सी बोल पड़ी, “बीबी जी, हमारी पगार में से तुम सौ रुपये अपने पास रख लिया करना, हम बखत पर ले लिया करेंगे।”

मन तो मेरा खिन्‍न था ही, मैंने झट मना कर दिया, “मुझ नहीं पड़ना इन स्पये-पैसों के चक्कर में।”

वह दोबारा पूछने का साहस न कर सकी, बिंदिया के साथ चुपचाप बाहर चली गई। मैंने दरवाजा बंद कर लिया।

उस रोज भोली काफी देर से आई। मैं तब तक सारे बर्तन मांज चुकी थी। उसने मेरे हाथ से बाकी का काम झटक लिया और बिना बोले गैस साफ करने लगी। मैं जानती थी, आज फिर अपने आदमी से लड़कर आई होगी। उसके रोज-रोज के झगड़े से मेरा काम ख्वामख्वाह हर्ज हो जाता है।

“भोली, ऐसे कैसे चलेगा?” मैंने गुस्से से पूछ ही लिया, “आज मेरा ऑफिस लेट करा दिया तुमने।”

“बीबी जी, हमने बिंदिया को इसकूल भेजे खातिर रुपये जोड़ रखे थे… हमार मरद ने दारू पी लई सब पइसों की…” वह आंचल के छोर से आंखें रगड़ने लगी।

मेरा चढ़ा पारा एकदम से नीचे उतर आया। मुझसे कुछ कहते न बना। में जानती थी कि भोली बिंदिया को पढ़ाने के लिए कितनी उत्सुक थी। मेरी चुप्पी भोली को और भी तोड़ गई। वह बिफर पड़ी, “अगर तुम हमारी पगार से सौ रुपये अपने पास रख ही लेतीं, तो क्या बिगड़ जाता तुम्हारा?”

“अरे, क्या कह रही हो भोली, कोई एक बार की बात है? हर महीने चार सौ रुपये जोड़ लोगी तुम?” मैं एकदम से उबल पड़ी थी, “अपने पांव चादर मुताबिक फैलाने चाहिए। जरूरी है गुड्डो के स्कूल में पढ़ाना, सरकारी स्कूल में क्यों नहीं डाल देती अगर इतना ही शौक है पढ़ाने का तो… ” मैं एक सांस में बोल गई।

भोली बिलबिला कर रह गई। क्या कहती, अपना घर तो चला नहीं पाती, बेटी को पढ़ाएगी अंगरेजी स्कूल में।

“…शाम को कर लेना कपड़े, मुझे देर हो रही है।” मैंने ताला-चाबी उठाते हुए कहा।

ऑफिस में मन थोड़ा बेचैन रहा। बार-बार भोली का चेहरा घूमता रहा। इसने कितना अपना होकर बांटा है मेरा दुःख-दर्द, और मैंने एक झटके में इसके सपने उजाड़ दिए। मुझे याद है, कई बार जब मैं गुड्डो के रोने से परेशान हो जाती तब वही तो संभालती थी इसे।

“बीबी जी, लगता है बिटिया का पेट दुखता है! लाओ, सरसों की बनाकर सेंक दें।”

कई बार आंखें मटकाती रामबाण औषधि बताती, “दो बूंद छाती का दूध बिटिया की नाभि पर टपका दो, बुखार तुरतै उतर जाएगा… ” और सचमुच ऐसा ही होता।

मैंने उसका सारा एहसान पल भर में उतार दिया था। मेरा मन ग्लानि से भर उठा। मुझे ध्यान है, जब से उसने गुड्डो को नहलाना-घुलाना शुरू किया था, उसे अधिक समय लगने लगा था और इसी चक्कर में उसके एक घर का काम भी छूट गया था। मैंने महीने के अंत में उसे सौ रुपये अधिक दे दिए थे। उसने दोबारा पैसे गिने फिर पल्लू मुंह में दबाकर हंसने लगी, “गिनती भूल गई क्या बीबी जी?”

मैने कितना कहा, “तुम्हारी मेहनत के पैसे हैं, तुम्हारा काम बढ़ गया है।” मगर वह नहीं मानी तो नहीं मानी।

कहने लगी, “हम तो बच्ची के साथ जरा हंस खेल लेते हैं, कोई पइसों के लोभ से थोड़े ही…”

मेरा मन ख़ुद को घिक्कार रहा था। आज मैंने ठीक नहीं किया। मुझे इतना नहीं कहना चाहिए था।

शाम को भोली आई, शांत, निर्विकार-सी… चुपचाप कपड़े धोती रही। मैं गुड्डो को होमवर्क करा रही थी। वह कपड़ों की बालटी लिए बाल्कनी में जाने लगी तो एक पल ठिठक कर रुकी, फिर चली गई।

मैंने देखा, वह आंचल के छोर से अपनी आंखें पोंछ रही थी।

मन में आया कि मैं ही भर दूं इसकी बेटी की फीस, पर मैं ही कौन-सी सेठ-साहूकार थी। मैं अन्यमनस्क हो आई थी। गुड्डो को पढ़ाने में मन नहीं लग रहा था। भोली कपड़े डालकर लौटी तो समझौते की आवाज में पूछ बैठी, “क्या बिंदिया को सरकारी में रख लेंगे, बीबी जी?”

मेरे चेहरे पर आशा की किरण दौड़ गई, “हां, हां, रखेंगे क्‍यों नहीं, तुम ले आना उसे, मैं साथ चलूंगी… हम उसका नाम लिखवाकर आएंगे।”

हम दोनों ने तय किया कि सोमवार को सुबह भोली बिंदिया को लेकर मेरे घर आ जाएगी, फिर हम साथ जाकर नजदीक के स्कूल में उसका नाम लिखा आएंगे।

“शुक्र… शनि… इतवार… और फिर सोमवार!” मैं बेसब्री से इंतजार करने लगी।

मैंने पहले ही ऑफिस में कह दिया था कि सोमवार को मुझे आने में थोड़ी देर हो जाएगी। मैं खुश थी कि अब बिंदिया भी पढ़ सकेगी।

आज सोमवार था। मैं जल्दी से उठी। आज विशेष उत्साह था मुझमें।

मगर भोली रोज की तरह अपने समय पर आई और बिंदिया को भी साथ नहीं लाई।

मैंने हैरानी से पूछा तो उसे ध्यान आया, “अच्छा, आज सोमवार है।” फिर ख़ुद ही हंसती-सी

बोल पड़ी, “अरे छोड़ो बीबी जी, हम महरिन सबका बच्चा क्या पढ़ेगा… और पढ़के ही कौन किलैक्टर बन जाएगा?” कहते हुए वह किचन में घुस गई।

“देखो भोली, बरतन-वरतन शाम को कर लेना। जाओ, जाकर बिंदिया को ले आओ।” मैंने अपनी झल्लाहट दबाते हुए अनुरोध किया।

मगर भोली ने अपने मशीनी अंदाज में बर्तन मांजने शुरू कर दिए, साथ-साथ मुझे ही  समझाने लगी, “बीबी जी, केत्ता पढ़ लेगी बिंदिया? और फिर पढ़ लेने से ही कौन नौकरी लग जाती है? चौंतीस नंबर वाले भैया जी को ही देख लो, कब से भटक रहे हैं एत्ता पढ़-लिखकर भी…?”

मैं खीजकर अपने कमरे में आ गई। बेकार है इनके चक्‍करों में पड़ना। इनको कितना ही समझा लो, ये आगे बढ़ने वाले नहीं।

शाम को गुड्डो हाथ नचा-नचाकर बता रही थी कि मैम ने उसे डांस में रखा है। भोली और बिंदिया भी उसका नाच देखने लगे। मैंने भोली को फिर समझाना चाहा कि वह चाहे तो हम कल चलते हैं, बिंदिया का भी नाम स्कूल में लिखा देंगे। लेकिन भोली को न मालूम क्‍या हो गया था, नहीं मानी तो नहीं मानी।

“बीबी जी, छोड़ो पढ़ाई-लिखाई, इसके बदले बिंदिया को एकाध घर का काम दिला दो, तो कम से कम अपना खर्चा तो बांटेगी।”  

“क्या भोली, बिंदिया से काम कराओगी! इतनी छोटी-सी बच्ची से?” मैंने हैरत से पूछी तो भोली मुंह में पल्लु दबाकर हंसने लगी, “छोटी कहां है बीबी जी, दो-चार साल में तो उसे बिहा (ब्याह) भी देंगे हम।” फिर अत्यंत गंभीरतापूर्वक अनुरोध करने लगी, “बीबी जी, किसी घर में थोड़ा काम-वाम दिला सको तो देखना बिंदिया के लिए।”

मैंने खीजकर हाथ जोड़ दिए। इसे समझाना व्यर्थ था।

घर फैला पड़ा था। मैं सामान व्यवस्थित करने लगी तो गुड्डो ठुनकने लगी, “मम्मा, पहले मेरा होमवर्क करा दो, नहीं तो मैम गुस्सा करेंगी…”   

मैं अचानक ही भोली को आवाज लगा बैठी, “भोली, बिंदिया को मेरे ही घर ले आया करो, घर संभालने में मेरी मदद कर दिया करेगी। मैं ही दे दिया करूंगी इस काम के सौ रुपये… ” 

अगले रोज से भोली बिंदिया को नियम से लाने लगी थी। मेरे सामने ही तो बड़ी हुई थी ये बच्ची भी। मेरी गुड्डो से थोड़ी ही तो बड़ी थी तब ये, जब गुड्डो पैदा हुई थी। उससे काम कराते न बनता। मैं कह देती, “जाओ, गुड्डो को संभालो।” और वह फूल-सी खिलकर गुड्डो के पास जा बैठती।

अब मुझे अपने और घर के लिए कुछ अतिरिक्‍त समय मिल जाता था।

एक दिन मैं अपने काम में लगी थी कि मुझे दूसरे कमरे से ऊंचे स्वर में गुड्डो के डांटने की आवाज सुनाई पड़ी। मैंने जल्दी से दूसरे कमरे में झांक कर देखा तो हंसी आ गई।

बिंदिया गुड्डो की छोटी-सी कुरसी पर कान पकड़कर खड़ी थी और गुड्डो मेरी चुन्नी को साड़ी की तरह लपेटकर टीचर बनी उसे कॉपी दिखाकर डांट रही थी, “जब आप ए, बी, सी लिख सकते हो, तो “डी’ क्‍यों नहीं लिख सकते?”

मैं झटककर गुड्डो के पास पहुंची और हैरत से गुड्डो के हाथ से कॉपी छीनी, “अरे, ये किसने लिखा है?”

मुझे अचानक आया देखकर गुड्डो सकपका गई। पर फिर चौड़ी होकर बोली, “इसी ने लिखा है… बिंदिया ने! मगर देखो, ‘डी’ नहीं लिखती।”

मैंने चहकते हुए भोली को आवाज दी, “देख भोली, तेरी बेटी लिखना सीख गई है!” मैंने कॉपी भोली की ओर बढ़ा दी।

भोली ने कॉपी ले ली और कलेजे से लगा ली।

“अरे देख तो, अंगरेजी लिखी है इसने…” मैंने फिर कहा।

“बीबी जी, हम न कहते थे बिंदिया भी पढ़ेगी गुड्डो रानी के इस्कूल में…!”

मैंने देखा, उसकी बंद आंखों से झरना फूट पड़ा था- ठंडा और संतोष-भरा…

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  • लेखिका – अलका सिन्हा

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