Month: April 2021

यह तो कहो किसके हुए – कवि भारत भूषण अग्रवाल

यह तो कहो किसके हुए  आधी उमर करके धुआँ यह तो कहो किसके हुए परिवार के या प्यार के या गीत के या देश के यह तो कहो किसके हुए कन्धे बदलती थक गईं सड़कें तुम्हें ढोती हुईं ऋतुएँ सभी तुमको लिए घर-घर फिरीं रोती हुईं फिर भी न टँक पाया कहीं टूटा हुआ कोई बटन अस्तित्व सब चिथड़ा हुआ गिरने लगे पग-पग जुए -- संध्या तुम्हें घर छोड़ कर दीवा जला मन्दिर गई फिर एक टूटी रोशनी कुछ साँकलों से घिर गई स्याही तुम्हें लिखती रही पढ़ती रहीं उखड़ी छतें आवाज़ से परिचित हुए गली के कुछ पहरूए --- हर दिन गया डरता किसी तड़की हुई दीवार से हर वर्ष के माथे लिखा गिरना किसी मीनार से निश्चय सभी अँकुरान में पीले पड़े मुरझा गए मन में बने साँपों भरे जालों पुरे अन्धे कुएँ यह तो कहो किसके हुए ---

मधु ऋतु की हँसती घड़ियाँ ये – कवयित्री सुमित्रा कुमारी सिन्हा

मधु ऋतु की हँसती घड़ियाँ ये  मधु ऋतु की हँसती घड़ियाँ ये, जीवन-पतझर में क्यों लाए ? ये मस्ती की फुलझड़ियाँ ले, मेरे खंडहर में क्यों आए ? छेड़ी क्यों तुमने सूने में वंशी-ध्वनि मीठी, क्यों आए ? जिसको सुन पागल-विकल हुआ यह मन मेरा, तुम क्यों आए ? रोदन के एकाकी जग में, पल एक हँसाने क्यों आए ? नाता इस पीड़ामय उर से, तुम हाय ! जोड़ने क्यों आए ? उस गीली स्मिति की छवि नयनों में तुम उलझाने क्यों आए ? मधु का प्याला आँखों में भर पल-पल छलकाने क्यों आए ? तुम पूर्ण अपरिचित मग चलते, चिर परिचित बन कर क्यों आए ? हे पथी, कहो, जाना ही था...

पल भर न हुआ जीवन प्यारा! – कवयित्री सुमित्रा कुमारी सिन्हा

पल भर न हुआ जीवन प्यारा! पल भर न हुआ जीवन प्यारा!  पूजा के मंदिर में झाँका, अर्चन की चाहों को आँका, जग ने अपराधिनि ठहराया, आजीवन खुल न सकी कारा! पल भर न हुआ जीवन प्यारा! मधु के घट रक्खे दूर-दूर, जब छूना चाहा हुए चूर, जग अंतराल से पिला सका मुझको केवल विष की धारा! पल भर न हुआ जीवन प्यारा!

मानस-मंदिर में प्रिय तुम – कवयित्री सुमित्रा कुमारी सिन्हा

मानस-मंदिर में प्रिय तुम मानस-मंदिर में प्रिय तुम, निशिदिन निवास करते हो। पर उसकी जीर्ण दशा का कुछ ध्यान नहीं रखते हो। इतने बेसुध हो तुम जब, कैसे हो मुझ को आशा ! तुम पूरी कभी करोगे मेरे मन की अभिलाषा !

खेल ज्वाला से किया है! – कवयित्री सुमित्रा कुमारी सिन्हा

खेल ज्वाला से किया है! खेल ज्वाला से किया है! शून्यता जब नयन छाई, हृदय में तृष्णा समाई, समझ कर पीयूष मैंने गरल ही अब तक पिया है। स्वप्न-उपवन में चहक कर, पींजरे में जा, बहक कर- जग भला क्या जान सकता, मूल्य मैंने क्या दिया है? इस अंधेरे देश में पल, पागलों के वेश में चल, शून्य के ही साथ मैंने वेदना-विनिमय किया है ! प्यार का पाकर निमन्त्रण, मैं गई,कितना प्रवंचन! समझ कर वरदान मैंने, शाप ही अब तक लिया है! खेल ज्वाला से किया है!

समीक्षा: अनुभूति की वारुणि छलकाता ‘‘ स्वर्ण चषक’’

लेखिका - अलका प्रमोद रचनाकार, सम्पादक, प्रकाशक, समूह-संचालक, सामाजिक कार्यकर्ता, निवेदिता श्री ने सदा के समान अपनी सद्यः प्रकाशित कृति,...

नयनों के डोरे लाल गुलाल भरे – सूर्यकांत त्रिपाठी “निराला”

नयनों के डोरे लाल गुलाल भरे नयनों के डोरे लाल-गुलाल भरे, खेली होली !जागी रात सेज प्रिय पति सँग रति सनेह-रँग...

प्रिय यामिनी जागी – सूर्यकांत त्रिपाठी “निराला”

प्रिय यामिनी जागी प्रिय यामिनी जागी । अलस पंकज-दृग अरुण- मुख तरुण-अनुरागी। खुले केश अशेष शोभा भर रहे, पृष्ठ-ग्रीवा-बाहु-उर पर...

सखि वसन्त आया – सूर्यकांत त्रिपाठी “निराला”

सखि वसन्त आया सखि वसन्त आया ।भरा हर्ष वन के मन,   नवोत्कर्ष छाया ।किसलय-वसना नव-वय-लतिकामिली मधुर प्रिय-उर तरु-पतिका,   मधुप-वृन्द बन्दी--  पिक-स्वर नभ सरसाया...