जालपा हैरान थी। बार-बार ख़ुद को समझाने के बावजूद एक बेचैनी उसके मन में बनी हुई थी। वो अनु से पराजित कैसे हो गई। उस अनु से, जो ना तो उसकी तरह सलीके़दार है और ना ही समाज में उसका रूतबा है; और तो और, जालपा की तरह उसके पास अच्छी नौकरी का रूतबा भी नहीं है। उसके पति भी जालपा के पति से काफी जूनियर लेवल पर हैं…, पर इसके बावजूद आज जिसे देखो उसकी ज़बान पर अनु का नाम है…। अनु ये है, अनु वो है…, सुनते-सुनते जालपा अब झल्ला गई है। वो चीख़ कर उन सबसे कहना चाहती है कि अनु क्या है, ये उससे बेहतर कोई नहीं जानता।
भला जालपा भूल भी कैसे सकती है अनु की असलियत। ये वही अनु है, जो कभी कॉलेज में जालपा के पीछे खड़ी रहती थी। गाने की प्रतियोगिता हो, या वाद-विवाद; हर चीज़ में जालपा का कोई सानी नहीं था। कॉलेज में तो उसकी धूम थी, और उस वक़्त यही अनु, एक सस्ती सलवार कमीज़ में उसके आसपास मंडराया करती थी।
जालपा को आज भी याद है कि उसके ग्रुप में प्रवेश पाने के लिए अनु ने कितनी कड़ी परीक्षा दी थी। अनु ने जालपा के नोट्स बनाये थे, उसकी प्रेक्टिकल बुक सजाई थी और पिकनिक में जालपा का भारी बैग उठाकर चलती रही थी, तब जाकर उसे जालपा का सान्निध्य नसीब हुआ था, वो भी दूर से।
अनु कभी उसे अपने स्तर की लगी ही नहीं थी। वो जब भी उसके सामने आकर खड़ी होती, जालपा की आँखों में वो छोटे-छोटे घर तैर जाते जहाँ तंग गलियों में हवा भी जाने में हिचकिचाती है…, फिर भी जालपा अक्सर ख़ुद को समझती, ये सब तो किस्मत की बात है और तुरंत उसका बड़प्पन जाग जाता। वो अनु को अपने पास कैसे रहने देती।
पर आज वही अनु इतनी ऊंची हो गई है कि जालपा को उसे देखने के लिए अपना सर ज़रूरत से ज़्यादा उठाना पड़ रहा है और यही जालपा से बर्दाश्त नहीं हो रहा। अच्छी-ख़ासी चैन से जी रही थी कि पता नहीं कहाँ से ट्रॉन्सफर लेकर अनु का पति भी उसी शहर में आ धमका। सिर्फ शहर ही नहीं अनु ने जालपा की उस सोसायटी में भी घुसपैठ कर ली थी, जहाँ उसके व्यवस्थित घर, ऊंची नौकरी और अनुशासित गृहस्थी का दबदबा कायम हो चुका था। जालपा को संतोष मिलता था, जब उसकी पड़ोसिनें उसकी व्यस्त दिनचर्या की चर्चा करती थी। उसके सुंदर सजे घर की तारीफ़ करती थीं और उसकी कलात्मक रूचि पर न्योछावर होने का दम भरती थीं।
हांलाकि, जालपा के पास इतना समय नहीं था कि वो उन महिलाओं की गपशप में रोज़ भागीदारी करे, पर गाहे-बगाहे तीज़-त्यौहार में जब सोसायटी के सभी बाशिंदे नीचे इकट्ठे होते तो जालपा को उनकी आँखों में अपने लिए आदर और सम्मान का भाव दिखाई देता। जालपा का मन तसल्ली से इस रुतबे की जुगाली करता।
अनु आई तो उसने जालपा से फिर वही नज़दीकी बनाने की कोशिश की, लेकिन कुछ समय की कमी और कुछ जालपा के आत्मप्रशंंसित व्यवहार का असर ऐसा पड़ा कि अनु की दुबारा हिम्मत नहीं हुई। इससे दो बातें हुईं, एक तो सोसायटी में जालपा के ऊंचे घर वाली परिकल्पना को बढ़ावा मिला और दूसरे अनु को सबके अविश्वास ने काटकर अलग कर दिया।
भला अनु जैसी फूहड़ औरत जालपा की सहेली कैसे हो सकती ह; जिसे ना घर संभालने का शहूर है और ना ही ख़ुद को सवांरने का सलीक़ा…। अनु तो ढे़र के ढे़र कपडे़ धोकर बाहर फैलाती है। अनु तो दिन भर किचन में घुसी रहती है। अनु को जालपा की तरह पेंटिंग भी नहीं आती। वो जालपा की तरह नौकरी नहीं करती, पर हर दोपहर घर से ग़ायब हो जाती है। सुनने में तो यहाँ तक आया है कि उसे पास की उस गंदी बस्ती में जाते देखा गया है, जहां सोसायटी में काम करने वाली मेड्स रहती हैं। सुनकर जालपा को ताज्जुब नहीं हुआ था। उसे कॉलेज के दिनों में अनु की ऊंची सलवार और रंग उड़ा कुरता याद आ गये थे। जालपा सोचती, अनु ने इतनी तरक्की कर ली, यही क्या कम है कि अब वो कम से कम उसी सोसायटी में रहने लगी है जहाँ जालपा रहती है।
जालपा संतुष्ट थी, पर उस दिन की घटना ने हलचल मचा दी। अपनी कड़क इस्त्री की हुई साड़ी में तैयार जालपा फ़ाइल लेकर बाहर की ओर बढ़ रही थी, तभी वहॉं रोती-कलपती माया उसके पैरों में आकार गिर गई। माया उसके साथ ही अन्य दो चार घरों में काम करती थी। जालपा जब तक कुछ समझे तब तक पीछे से आते उसके राक्षस पति ने कसकर एक पत्थर फेंक दिया। निशाना शायद माया थी या जालपा, पर वो पत्थर उन दोनों के बजाय कार में लगा। कार का शीशा टूट गया। जालपा का गुस्सा सातवें आसमान पर पहुँच गया। उसने पर्स से रुपये निकाले और माया के हाथ में रखते हुए कहा, ’ये लो, एडवांस दे रही हूँ, अब सामने से हटो, मुझे मीटिंग में जाना है।’ जल्दी में उसने माया की चीखें भी अनसुनी कर दीं। झट रिक्शा मंगाया और ऑफ़िस चली गई।
शाम को जब घर लौटी तो उसके दिमाग से सुबह की घटना निकल चुकी थी, पर पूरी सोसायटी में अनु की जय जयकार हो रही थी। सबसे पहले मिसेज़ शर्मा ने बताया , ’कमाल की है भाई अनु, चुटकियों में उसने इतनी बड़ी मुश्किल संभाल ली।’ आगे चन्द्र मिली, ’आपकी सहेली तो बड़ी हिम्मती निकली। माया को ऐसे बचाया कि सब देखते रह गये।’ तब तक जालपा को सुबह की घटना याद आ गई थी। तभी सामने से कोमल आ गई, ’आज तो अनु की वजह से एक बहुत बड़ी मुसीबत टल गई।’
जालपा पूरी बात नहीं पूछ पाई पर, घर तक पहुंचते-पहुँचते जालपा को टुकड़ों में सुबह की घटना पता चल चुकी थी। पता लगा कि माया का पति अपने नशे की लत को पूरा करने के लिए उससे पैसे छीन रहा था, जो उसी दिन पगार में मिले थे। माया के मना करने पर उसने उसे बहुत मारा। भागती हुई माया सोसायटी में शरण लेने आई, तो उसका पति भी वहां आ गया। झगड़ा बढ़ा तो उसने चाकू से माया पर वार किया, पर तभी अनु बीच में आ गई। उसने माया के पति का हाथ पकड़ा और उसे दूर हटाकर माया को साथ घर ले गई।
माया का पति कुछ देर बाद अपने दूसरे नशेबाज़ साथियों के साथ अनु के घर के सामने पहुँच गया और माया को आवाज़े देकर हंगामा करने लगा। सोसायटी वालों ने पुलिस बुलाई, पर अनु ने उन्हें समझा बूझा कर वापिस भेज दिया। कुछ ही देर में महिला संगठन की अध्यक्ष मिसेज़ चौधरी वहां आई। उन्होंने और अनु ने माया के पति को जाने कैसे समझाया कि वो नशा मुक्ति केंद्र में जाने के लिए तैयार हो गया। अभी तो अनु, मिसेज़ चौधरी के साथ माया को लेकर अस्पताल गई है।
कपडे़ बदलकर चाय पीते हुए जालपा सुबह की सारी घटनाएं याद कर रही थी। मिसेज़ चौधरी तो सुना हुआ नाम लगता है। कहीं ये उसकी फ़ेवेरेट टीचर अंजना चौधरी तो नहीं। पर, वो यहाँ कहाँ होंगी। जालपा ने मन को समझाया और थोड़ी हवा खाने बालकनी में आ गई।
नीचे काफी भीड़ लगी थी। अनु लौट आई थी। साथ में मिसेज़ चौधरी भी थीं। दूर से तो अंजना चौधरी ही लग रही थी, पर वो अनु से हंसकर कैसे बातें कर सकती है। वो तो उसे ठीक से जानती भी नहीं होगी। उनकी प्रिय शिष्या तो जालपा थी, जिस पर उन्हें नाज़ था।
जालपा से रहा नहीं गया। वो जल्दी से नीचे पहुंची। सामने अंजना चौधरी ही खड़ी थीं। अनु से इतनी आत्मीयता से बात कर रही थीं। जालपा को वो दिन याद आ गया, जब उसने, नाटक में लेने के लिए अनु की सिफ़ारिश की थी, तब मिसेज़ चौधरी ने कहा था, ’नाम तो लिख दूं, पर मुझे नहीं लगता ये लड़की कुछ कर पाएगी।’
आज वही मिसेज़ चौधरी अनु की पीठ थपथपा रही थी, ’मुझे पता था कि तुम सब संभाल लोगी।’ जालपा को यकीन नहीं हुआ। वो आगे बढ़ी और मिसेज़ चौधरी को प्रणाम किया।
वो पहचान गईं, लेकिन फिर भी अनु की ही बात करती रहीं। ’जानती हो जालपा, इतने साल हो गये, पर आज भी इसे वो सब याद है जो मैंने सिखाया था। दूर रही, पर हमेशा मेरे संगठन से जुडी रही। इसने हमेशा मुझे याद रखा, मेरी बातों को याद रखा। जहाँ गई दूसरों को ख़ुशियाँ देने की कोशिश की। आसान नहीं घर गृहस्थी के साथ ये सब। दूसरों के लिए तो इंसान उंगली हिलाने से भी बचता है, पर ये हमेशा वक़्त निकाल लेती है। अब देखो, आज ही इसने कितना बड़ा काम कर दिखाया।’
जाते-जाते उनके स्वर का उलाहना जालपा को अन्दर तक छू गया। ’इसी की प्रेरणा से मैंने एक छोटी सी दुनिया बनाई है, इसी शहर में। कभी आना जालपा वहां; तुम्हें दिखाऊँगी, कैसे बड़े-बड़े अभावों को हम छोटी-छोटी खुशियों से पूरा करते हैं।’
सब चले गये। जालपा भी घर आ गई, पर उसे अपना सजा-संवरा घर बड़ा अजीब लग रहा था। उसकी सारी उपलब्धियां फ़ीकी पड़ गई थी।
उपलब्धि:
सच मानिए, मैनें एक सांस में पूरी कहानी को पढ़ डाला।संतुष्टि नहीं मिली तो फिर पढ़ा।बेहतरीन कथा शिल्प, पास पड़ोस के पात्र और रोजमर्रा की घटनाएं और मन:स्थितियां मन को स्पर्श करती गईं।राजुल जी कोई एक और कहानी इन्हीं पृष्ठों पर पढ़ी थी।वह भी अच्छी लगी थी।जालपा,अनु,मिसेज चौधरी या माया और उसका शराबी पति ..ये सभी पात्र हमारे आसपास के हैं और वे जो जी रहे हैं वह भी हम सभी का चिर परिचित हुआ करता है।उन्हें एक सूत्र में बांधकर जीवंत करना एक कुशल कथाकार की जादुई उंगलियां और मस्तिष्क कर सकता है।राजुल जी को बधाई !
IT IS PICTURIZATION OF DEEP RUTED PSEUDO EGO OF SELF BEING.JALPA REFLECTION OF MATERIALISTIC WORLDY LIFE OF BEYOND TRUTH.GOOD EFFORTS BUT MORE TO BE ADDED TO HAVE FELT GUILT AND EXPRESSION OF REFORM. OVER ALL GOOD .
Pradaam mam aapki rachnaa bahut hi super hai…
Isse hame yah sicha milti hai ki samay ak samaan nahi rahtaa kisi ka bhi …
Sabka apna kabhi n kabhi achcha din aata hai….Dusra yah batata hai ki….ak chotaa sa awsar hame sabki najar me utha bhi saktaa hai aur giraa bhi sakta hai…..aur Rupaye se har chij ko aanka nahi jaa saktaa hai…..
वाह राजुल कितनी अच्छी रचना है कॉलेज की याद दिला दी
Very nice story
Thanks 🌹
धन्यवाद पूनम 🌹
उत्तम रचना राजुल जी
धन्यवाद सुधा जी 💐
छोटी सी कहानी में बड़ी बात कह दी। बातों बातों में।
🙏🏼💐💐
संवेदनशील। कथावस्तु और शिल्प भी बेहतर
धन्यवाद 💐
उपलब्धि:
सच मानिए, मैनें एक सांस में पूरी कहानी को पढ़ डाला।संतुष्टि नहीं मिली तो फिर पढ़ा।बेहतरीन कथा शिल्प, पास पड़ोस के पात्र और रोजमर्रा की घटनाएं और मन:स्थितियां मन को स्पर्श करती गईं।राजुल जी कोई एक और कहानी इन्हीं पृष्ठों पर पढ़ी थी।वह भी अच्छी लगी थी।जालपा,अनु,मिसेज चौधरी या माया और उसका शराबी पति ..ये सभी पात्र हमारे आसपास के हैं और वे जो जी रहे हैं वह भी हम सभी का चिर परिचित हुआ करता है।उन्हें एक सूत्र में बांधकर जीवंत करना एक कुशल कथाकार की जादुई उंगलियां और मस्तिष्क कर सकता है।राजुल जी को बधाई !
धन्यवाद प्रफुल्ल जी .. 🙏🏼💐
बहुत अच्छी और सच्ची सोच है
इस कहानी के माध्यम से समझाया है कि अहंकार किसी का नहीं रहता।
शाबाश राजुल तुम्हारी भाषा शैली और लेखनी बहुत शशक्त है।
धन्यवाद 🙏🏼🌹
KAHANI CHHOTI PRERNA DAYAK AHNKAR KISI KA NAHI RAHTA AHNKAR SAB KUCHH NASHT KARDETA HE.
सही कहा भाई जी 🙏🏼
Thought provoking story. Well written Rajul ji.
Thank you so much Fizza 🌹🌹
कहानी अच्छी है और समाज का एक चेहरा भी दिखाती है ।
IT IS PICTURIZATION OF DEEP RUTED PSEUDO EGO OF SELF BEING.JALPA REFLECTION OF MATERIALISTIC WORLDY LIFE OF BEYOND TRUTH.GOOD EFFORTS BUT MORE TO BE ADDED TO HAVE FELT GUILT AND EXPRESSION OF REFORM. OVER ALL GOOD .
Pradaam mam aapki rachnaa bahut hi super hai…
Isse hame yah sicha milti hai ki samay ak samaan nahi rahtaa kisi ka bhi …
Sabka apna kabhi n kabhi achcha din aata hai….Dusra yah batata hai ki….ak chotaa sa awsar hame sabki najar me utha bhi saktaa hai aur giraa bhi sakta hai…..aur Rupaye se har chij ko aanka nahi jaa saktaa hai…..
Very nice story Rajul ji