कलम के जादूगर मुंशी प्रेमचंद- –  राजुल 

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कलम के जादूगर मुंशी प्रेमचंद

  • –  राजुल 

 

कलम के जादूगर मुंशी प्रेमचंद ने अपनी जिंदगी में समाज की तमाम बुराइयों के खिलाफ न सिर्फ़ लिखकर बल्कि उसे जिया भी.

प्रेमचंद का वास्तविक नाम धनपत राय श्रीवास्तव था। उनका जन्म वाराणसी से लगभग चार मील दूर, लमही नाम के गाँव में 31 जुलाई, 1880 को हुआ। प्रेमचंद के पिताजी मुंशी अजायब लाल और माता आनन्दी देवी थीं। उनके पिता डाकघर में मुंशी का पद संभालते थे.

अपने मित्र मुंशी दयानारायण निगम के सुझाव पर उन्होंने धनपत राय की जगह  प्रेमचंद नाम रख लिया. साहित्य जगत में उन्हें मुंशी प्रेमचंद के नाम से जाना गया, हालांकि बहुत से मित्र उन्हें जीवन-पर्यन्त नवाब के नाम से ही सम्बोधित करते रहे।

बचपन में उन्होंने एक मौलवी साहब से उन्होंने उर्दू और फ़ारसी पढ़ना सीखा। उनकी कहानी, ‘कज़ाकी’, उनकी अपनी बाल-स्मृतियों पर आधारित है। कज़ाकी डाक-विभाग का हरकारा था और बड़ी लम्बी-लम्बी यात्राएँ करता था। वह बालक प्रेमचंद के लिए सदैव अपने साथ कुछ सौगात लाता था। कहानी में वह बच्चे के लिये हिरन का छौना लाता है और डाकघर में देरी से पहुँचने के कारण नौकरी से अलग कर दिया जाता है। हिरन के बच्चे के पीछे दौड़ते-दौड़ते वह अति विलम्ब से डाक घर लौटा था। कज़ाकी का व्यक्तित्व अतिशय मानवीयता में डूबा है। वह शालीनता और आत्मसम्मान का पुतला है, किन्तु मानवीय करुणा से उसका हृदय भरा है।

प्रेमचंद का विवाह 15-16 बरस में ही कर दिया गया, लेकिन कुछ समय बाद ही उनकी पत्नी का देहांत हो गया. इसी बीच उन्होंने स्कूल में शिक्षक की नौकरी की, साथ ही बीए की पढ़ाई भी. बाद में उन्होंने एक बाल विधवा शिवरानी देवी से विवाह किया. शिक्षक की नौकरी के दौरान प्रेमचंद ने जनजीवन को बहुत गहराई से देखा और अपना जीवन साहित्य को समर्पित कर दिया.

प्रेमचंद के उपन्यास गबन, गोदान, निर्मला आज भी वास्तविकता  के बेहद करीब दिखते हैं. उन्होंने सिर्फ अपनी कहानियों का काल्पनिक रचना संसार रचने के बजाय अपने जीवन में भी उस यथार्थ को जिया. जब उन्होंने बाल विधवा शिवरानी देवी से विवाह किया तो उस जमाने में ये सामाजिक सरोकार से जुड़ा मामला था. सिर्फ भारत ही नहीं वो पूरी दुनिया में मशहूर और सबसे ज्यादा पसंद किए जाते हैं. प्रेमचंद की कहानियों के किरदार आम आदमी हैं. ऐसे ही उनकी कहानियों में आम आदमी की समस्याओं और जीवन के उतार-चढ़ाव दिखते हैं.

प्रेमचंद्र ने लगभग 300 कहानियां और 14 बड़े उपन्यास लिखे. लगभग सभी प्रमुख भाषाओं में उनके साहित्य का अनुवाद हो चुका है, इसमें विदेशी भाषाएं भी शामिल है. अपनी रचना ‘गबन’ के जरिए से एक समाज की ऊंच-नीच, ‘निर्मला’ से एक स्त्री को लेकर समाज की रूढ़िवादिता और ‘बूढी काकी’ के जरिए ‘समाज की निर्ममता’ को जिस अलग और रोचक अंदाज में उन्होंने पेश किया, उसकी तुलना नही है. इसी तरह से पूस की रात, बड़े घर की बेटी, बड़े भाईसाहब, आत्माराम, शतरंज के खिलाड़ी जैसी कहानियों से प्रेमचंद ने हिंदी साहित्य की बड़ी सेवा की है.

सादा और सरल जीवन के मालिक प्रेमचन्द सदा मस्त रहते थे। उनके जीवन में विषमताओं और कटुताओं से वह लगातार खेलते रहे। इस खेल को उन्होंने बाज़ी मान लिया जिसको हमेशा जीतना चाहते थे। कहा जाता है कि प्रेमचन्द हंसोड़ प्रकृति के मालिक थे। विषमताओं भरे जीवन में हंसोड़ होना एक बहादुर का काम है। इससे इस बात को भी समझा जा सकता है कि वह अपूर्व जीवनी-शक्ति का द्योतक थे। सरलता, सौजन्य और उदारता की वह मूर्ति थे। जहाँ उनके हृदय में मित्रों के लिए उदार भाव था वहीं उनके हृदय में ग़रीबों एवं पीड़ितों के लिए सहानुभूति का अथाह सागर था। प्रेमचन्द उच्चकोटि के मानव थे। इनको गाँव जीवन से अच्छा प्रेम था। वह सदा साधारण गंवई लिबास में रहते थे। जीवन का अधिकांश भाग उन्होंने गाँव में ही गुज़ारा। बाहर से बिल्कुल साधारण दिखने वाले प्रेमचन्द अन्दर से जीवनी-शक्ति के मालिक थे। अन्दर से जरा सा भी किसी ने देखा तो उसे प्रभावित होना ही था। वह आडम्बर एवं दिखावा से मीलों दूर रहते थे। जीवन में न तो उनको विलास मिला और न ही उनको इसकी तमन्ना थी। तमाम महापुरुषों की तरह अपना काम स्वयं करना पसंद करते थे।

उन्होंने हिन्दी में शेख़ सादी पर एक छोटी-सी पुस्तक लिखी थी, टॉल्सटॉय की कुछ कहानियों का हिन्दी में अनुवाद किया था और ‘प्रेम-पचीसी’ की कुछ कहानियों का रूपान्तर भी हिन्दी में कर रहे थे।

प्रेमचंद का करीब एक साल 1934 – 35 मुंबई की फ़िल्मी दुनिया में भी बीता. कभी शिक्षक के रूप में 18 रुपये प्रति माह की नौकरी करने वाले प्रेमचंद को तब फ़िल्म स्टूडियो अजंता सिनेटोन ने 8000 रुपये की बड़ी सैलरी पर काम पर रखा था। साल 1930 से 1940 का दौर ऐसा था कि तब देश भर से लेखक और साहित्यकार मायानगरी मुंबई में ज़मीन तलाश रहे थे।

प्रेमचंद ने फ़िल्म ‘मिल मजदूर’ में मजदूरों  की समस्याओं को बड़ी ही मजबूती से उठाया था। फ़िल्म में एक देश-प्रेमी मिल-मालिक की कथा थी, लेकिन तत्कालीन ब्रिटिश सरकार ने इस फ़िल्म पर प्रतिबंध लगा दिया गया। किसी तरह यह फ़िल्म लाहौर, दिल्ली और लखनऊ के सिनेमा हॉल में रिलीज़ हुई और इस फ़िल्म का मजदूरों पर ऐसा असर हुआ कि हर तरफ विरोध के स्वर गूंजने लगे। फिर आनन फानन में इस फ़िल्म को थियेटर से हटा लिया गया। इस फ़िल्म में प्रेमचंद स्वयं भी कुछ क्षण के लिए रजतपट पर अवतीर्ण हुए। मज़दूरों और मालिकों के बीच एक संघर्ष में वे पंच की भूमिका में आए थे। अंततः प्रेमचंद समझ गए कि फ़िल्म इंडस्ट्री में उनकी बात कोई नहीं सुनेगा। बहुत निराश मन से वो वापस बनारस लौट गए।

उसके बाद उन्होंने ‘सिनेमा और साहित्य’ पर तीखे लहजे में एक आलोचनात्मक निबंध लिखा। जिसमें उन्होंने कहा कि फ़िल्म इंडस्ट्री सिर्फ मुनाफे कमाने के लिए काम करती है।

गौरतलब है कि सत्यजित राय ने उनकी दो कहानियों पर यादगार फ़िल्में बनाईं। 1977 में ‘शतरंज के खिलाड़ी’ और 1981 में ‘सद्गति’।

प्रेमचंद के निधन के दो साल बाद सुब्रमण्यम ने 1938 में ‘सेवासदन’ उपन्यास पर फ़िल्म बनाई जिसमें सुब्बालक्ष्मी ने मुख्य भूमिका निभाई थी। 1977 में मृणाल सेन ने प्रेमचंद की कहानी ‘कफ़न’ पर आधारित ‘ओका ऊरी कथा’ नाम से एक तेलुगु फ़िल्म बनाई, जिसको सर्वश्रेष्ठ तेलुगु फ़िल्म का राष्ट्रीय पुरस्कार भी मिला। 1963 में ‘गोदान’ और 1966 में ‘गबन’ उपन्यास पर लोकप्रिय फ़िल्में बनीं। 1980 में उनके उपन्यास पर बना टीवी धारावाहिक ‘निर्मला’ भी बहुत लोकप्रिय हुआ था।

प्रेमचंद की कुछ कहानियों पर और फ़िल्में भी बनी हैं.

उनका अधिकतर समय वाराणसी और लखनऊ में गुज़रा, जहाँ उन्होंने अनेक पत्र-पत्रिकाओं का संपादन किया और अपना साहित्य-सृजन करते रहे।

सन् 1935 में मुंशी जी बहुत बीमार पड़ गए और 8 अक्टूबर 1936 को 56 वर्ष की उम्र में उनका निधन हो गया.

  • Video देखने के लिए नीचे दिए गए link पर जाइये.

राजुल स्वतंत्र पत्रकार, लेखिका और Radio Jockey हैं. 

 

 

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