बुधुआ के चुनावी नुस्ख़े… वरिष्ठ पत्रकार अशोक हमराही की कलम से
बात निकलेगी तो …
बुधुआ के चुनावी नुस्ख़े
चुनाव प्रचार का सीज़न है. ऐसे में बड़े-छोटे दलों से लेकर गली-नुक्कड़ के निर्दलीय प्रत्याशियों को भी चुनाव प्रचार के लिए साजो-सामान की ज़रूरत होती है. बुधुआ के लिए भी ये सीज़न सबसे ज़्यादा कमाई वाला होता है. उसका ताम-झाम काफ़ी बड़ा है, और पूरे देश में फैला हुआ है.
बुधुआ को चुनाव प्रचार एजेंसी विरासत में मिली है, जैसे नेताओं को नेतागिरी विरासत मिलती है. बुधुआ के बाप-दादा इसी बिज़नेस में थे. बुधुआ के दादाजी अंग्रेज़ों की ‘चापलूस कमेटी’ के सक्रिय सदस्य थे. अपनी ‘अटूट भक्ति’ और ‘कर्मठता’ की वजह से वह इस कमेटी के शीर्ष तक पहुँच गए थे. यही वजह थी कि उन्हें अंग्रेज़ों के सारे दांवपेंच मालुम थे’ जो बाद में चुनाव प्रचार एजेंसी के बिज़नेस में उनके बहुत काम आया.
अंग्रेज़ों ने ढ़ाई सौ साल से भी ज़्यादा वक़्त तक भारत पर राज किया. मुट्ठी भर अंग्रेज़ों की ताक़त उनकी नीतियाँ थीं. उनका सफ़ल फार्मूला था ‘फूट डालो और राज करो’. इस फ़ार्मूले के तहत वो हमें आपस में लड़ाते रहे, एक-दूसरे का दुश्मन बनाते रहे और मज़े से हमारे ही देश में हम पर राज करते रहे, लेकिन हमारी हस्ती को मिटा नहीं पाए; आख़िरकार उन्हें यहाँ से जाना पड़ा. जाते-जाते भी वो अपना आख़िरी दाँव खेल गए और हमारे देश को विभाजन का दंश झेलना पड़ा.
खैर, बात हो रही है बुधुआ के दादाजी की. तो उन्होंने आज़ादी के बाद नेताओं को अंग्रेज़ों के दाँव-पेंच सिखाने के लिए ‘कंसल्टेंसी’ का काम शुरू किया. चूंकि वो अंग्रेज़ी हुक्मरानों के करीबी थे, इसलिए उनका ये धंधा ख़ूब चला. पहले आम चुनाव आते-आते चार-पांच साल में उनकी शोहरत काफ़ी बढ़ गयी थी. चुनाव के दौरान उन्होंने ‘प्रचार एजेंसी’ खोल ली. पहला चुनाव था, इसलिए अनुभवहीन नेताओं के वह बहुत काम आये. कंसल्टेंसी का काम भी उन्होंने जारी रखा.
सुना है कि बड़े-बड़े नेता और राजनीतिक पार्टियाँ भी बुधुआ के दादाजी से राय-मशविरा लिया करती थी. उनकी एजेंसी में सभी की गोपनीय फाइलें रहतीं थीं, लेकिन उन्होंने ईमानदारी के साथ कभी भी समझौता नहीं किया. बुधुआ के दादा ने अपने सारे गुर अपने बेटे यानि बुधुआ के पिता को दिए. अब वो विरासत बुधुआ के पास है.
बुधुआ ने अपने दादाजी की एजेंसी को ख़ूब चार चाँद लगाए. चुनाव प्रचार में अपने विरोधियों को कैसे चित करना है, चुनाव जीतने के लिए क्या-क्या हथकंडे अपनाने जाएँ, कब आक्रामक होना है और कब सुरक्षात्मक; ऐसे बहुत सारे नुस्ख़े बुधुआ की झोली में थे और सब के सब गोपनीय; मज़ाल कि एक को दूसरे की भनक तक लग जाए!
बुधुआ के दादाजी ने ‘फूट डालो और राज करो’ इस नुस्ख़े से बहुत सारे नेताओं और राजनीतिक पार्टियों का भला किया. इसके बाद बुधुआ के पिता ने जातीय समीकरण का नुस्ख़ा ईज़ाद किया. इस नुस्ख़े ने तो चुनाव परिदृश्य ही बदल दिया. जातिवाद का नारा क्षेत्रवाद से ज़्यादा कारगर साबित हुआ. अब जातीय समीकरण के मुताबिक़ उम्मीदवारों का चयन होता और जाति-बिरादरी के नाम पर वोट मांगे जाने लगे. क्षेत्रीय आधार पर पार्टियां तो थीं ही, अब जातीय आधार पर छोटी-बड़ी राजनीतिक पार्टियाँ भी बनने लगीं. देश विभाजन के लिए हम अंग्रेज़ों या फिर उस समय के कुछ राजनेताओं को दोष देते हैं, लेकिन सत्ता के लोभ में जाति-बिरादरी के नाम पर एकात्म देश को बांटने का काम जिन्होंने किया और जो कर रहे हैं; उन्हें आप क्या कहेंगे.
धन-बल का भरपूर इस्तेमाल तो पहले चुनाव से ही होने लगा था, लेकिन बुधुआ के पिता के फ़ार्मूलों से प्रभावित बाहुबली भी चुनाव मैदान में आने लगे. सोचा होगा, नेताओं के हाथ की कठपुतली बनने से तो अच्छा है, खुद नेता बन जाएँ. इससे उनकी ‘पॉवर’ और बढ़ जायेगी. यही हुआ और राजनीति में अपराधियों की सीधी घुसपैठ शुरू हो गयी. बड़ी-बड़ी राजनीतिक पार्टियाँ भी अपराधियों को प्रश्रय देने लगीं. फलस्वरूप चुनाव और उसके बाद भी, धन और बल दोनों की ताक़त का मुज़ाहरा खुले आम होने लगा.
दादा और पिता के बाद चुनाव प्रचार की विरासत बुधुआ ने संभाली तो ऐसे-ऐसे फ़ार्मूले बनाये, जिनके बारे में सभ्य समाज सोच भी नहीं सकता. बुधुआ ने अपने ये फ़ार्मूले बड़ी-बड़ी क़ीमत पर बेचे हैं, क्योंकि अब बड़ी-बड़ी पार्टियाँ उनकी क्लाइंट है.
इन फार्मूलों में सबसे हिट रहे हैं – दूसरों पर व्यत्क्तिगत हमले करना, कीचड़ उछालना, अपमानित करने के लिए अपशब्दों का इस्तेमाल करना. हमेशा दूसरों की कमज़ोर नस पर नज़र रखना.
बुधुआ की सलाह पर इन पार्टियों ने कुछ न्यूज़ चैनल भी पकड़ रखे हैं, जो बड़ी सतर्कता के साथ उनका यशगान करते हैं और दूसरों की छीछालेदर. इन चैनलों के नाम यहाँ न भी लें तब भी आप समझ जायेंगे. बस धैर्य के साथ सिर्फ़ 10 मिनट इनका डिस्कशन सुन लीजिये, आपको पता चल जाएगा, किसकी बजाई जा रही है और किसकी सुनाई जा रही है. अब तो चुनाव जीतने के लिए इन नेताओं ने देवी-देवताओं तक को नहीं छोड़ा.
अब आप सोचिये बुधुआ की इस प्रचार सामग्री से देश का क्या होगा? सभ्यता के सारे मापदंड तोड़ते हुए ग़ाली- गलौज़, गुंडागर्दी, ख़रीद-फ़रोख्त, जातीय-धार्मिक उन्मांद जैसे फार्मूलों से जो चुनाव जीतेंगे उनका राज कैसा होगा और उनके राज में जनता का हाल क्या होगा. दुःख होता है और खुद पर तरस भी आता है कि मजबूरन इन्हीं में से हमें अपना नेता चुनना है.
बुधुआ की एजेंसी तो चलती रहेगी. अगले चुनाव तक कुछ और नए फ़ार्मूले तैयार होंगे, लेकिन सवाल ये है कि चुनाव जीतने के लिए इस तरह के फार्मूलों की ज़रूरत कब तक हमारे नेताओं को होती रहेगी! क्या उनका खुद का वजूद कुछ भी नहीं? देश के लिए किये गए कामों का लेखा-जोखा बताने के लिए जनता का दरवाज़ा खटखटाने की ज़रूरत क्यों होती है उन्हें? क्या जनता उनके कामों से परिचित नहीं है? फिर इसे जताने और दूसरों के दोष गिनाने की ज़रूरत क्यों पड़ती है?
सुनते आये हैं कि प्रतिष्पर्धा ‘स्वस्थ’ होनी चाहिए. अखाड़े के बाहर दो पहलवान भी दोस्तों जैसा बर्ताव करते हैं और हाथ मिलाकर अखाड़े में उतारते हैं. फिर जनतांत्रिक देश की सबसे बड़ी संस्था की प्रतिष्पर्धा दो देशों के बीच युद्ध जैसी क्यों होती है? क्या दुश्मनी का कलेवर उतारकर दोस्तों की तरह अपनी बात नहीं रख सकते. न्यूज़ चैनलों के एंकर की तरह चींख-चींखकर हमें अपनी बात क्यों कहनी पड़ती है?
राजनेताओं की सादगी, उनका व्यक्तित्व, देश के लिए उनका समर्पण-उनके कार्य जनता रोज़ देखती है उन्हें अपनी बात मनवाने या अपनी सच्चाई साबित करने के लिए किसी फ़ार्मूले की ज़रूरत नहीं है. वैसे भी आम जनता ‘ऐसे संवादों’ को मज़े के लिए सुनती है और जो बात बिना किसी फ़ार्मूले के सादगी के साथ कही जाती है, उन पर गौर करती है-विचार करती है.