प्रेमांकुर

तुम चाहे लाख
कोशिश करो मुझे
अन्य अमरबेलियों
के सहारे मिटाने की
अपने भावनाहीनता
के शिलाखंड से
दबा कर खत्म करने की
मौन की धूप से
जला देने की ।
पर फिर भी
मेरी जिद्दी जड़ें
तुम्हारे मन से
मिट नहीं सकतीं ।
भले मेरी हरियाई
बदल जाए
पीत वर्ण में।
या मेरा ऊपरी अस्तित्व
झुलस जाए ।
भले एक मौसम
बीतने तक मुझे रुकना पड़े।
फिर चाहे तुम मुझे
चाहो या न चाहो ।
चाहे तुम मुझे
फिर से मिटा देने का
अथक प्रयास क्यों न करो।

पर मैं तुम्हारे मन में
पसरी हुई वो दूब हूँ जो,
अमरबेलियों के मध्य से,
शिला के किनारे से,
खामोशी की धूप में,
बहे तुम्हारे एहसास के
स्वेद की बूंदों से,
खुद को सिंचित कर,
एक बार फिर से
सिर उठा ही लूंगी
और फिर से कर लूंगी
तुम्हारे मन पर
अपना सम्पूर्ण विस्तार।
मैं !? मैं तुम्हारे मन का
प्रेमांकुर हूँ ।

दिव्या त्रिवेदी

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