कवि : ज्ञान प्रकाश चौबे
परिचय
जन्मः बलिया, (उत्तर प्रदेश) शिक्षाः एम. ए. (हिन्दी साहित्य), बी. एड.
(विशिष्ट शिक्षा), पीएच. डी. (हिन्दी साहित्य) प्रकाशनः नाटककार भिखारी
ठाकुर की सामाजिक दृष्टि (आलोचना)। प्रेम को बचाते हुए (कविता संग्रह)।
वागार्थ, लमही, कादम्बिनी, परिकथा, कल के लिए, अनहद, प्रगतिशील आकल्प आदि
पत्रिकाओं में कविताएं प्रकाशित। सम्मानः वागार्थ, कादम्बिनी, कल के लिए,
प्रगतिशील आकल्प आदि पत्रिकाओं द्वारा कविताएं सम्मानित। संप्रतिः संपादक
(कविता केन्द्रित पत्रिका ‘कविता बिहान, लखनऊ)
तुम देखना
हम जियेंगे
बरसों बरस जियेंगे
तुम देखना
जब तुम बाहें खोलोगे
हवा नहीं
हमीं लिपटेंगे तुमसे
तुम्हारी नसों के तार में
गुनगुनायेंगे हमीं
हम जिन्दा रहेंगे
तुम्हारी स्मृतियों में छुपे
रोशनी के दरख्तों में
बेहिसाब बरसों तक
गणनाओं के पंख लगाकर उड़ते रहेंगे
हम आयेंगे
तुम्हारी पलकों के नीचे
नींद के धोड़े पर सवार होकर
तुम्हारे स्वप्न रचते हुए
होंठो पर उगाये हरी दूब
इस छोर से उस छोर तक
हमीं बरसेंगे बरसात में
हमीं से रची जायेगी
खुलती हुई धूप में
बादलों की परछाईयां
रंग की परभाषाएं लिखते हुए
फूटेंगे हम कोपलें बनकर
यूं ही गुम नहीं हो जायेंगे
इतिहास की किसी कोठरी में
तितलियों के पंखों पर सवार
हम तुम्हारे साथ होंगे
अजनबी देशों की यात्राओं पर
नक्षत्रों में छुपे तुम्हारे रास्ते
हमीं होंगे
शब्द होंगे तुम्हारी भाषा के हम
बजेंगे तुम्हारी धड़कनों में
कि तुम्हारे गीतों में
रचे बसे रहेंगे सदियों तक
हम मरेंगे नहीं
बरसों बरस जियेंगे
तुम देखना
एक लोकगीत पढ़ते हुए
चूल्हे में आग जले
जाड़े में रात रे !
आँखों में नींद पके
बटुली में भात रे !
सैंया मोरा राजा बने
मैं मैने की पाँख रे !
हँसती मैं जागूं सोऊं
रोये मोरी आँख रे !
मन मोरा पिसा जाय
मैं पिसू जांत रे !
कोई तोड़े नशा मोरा
कोई तोड़े खाट रे !
सब कोई चाहे
बनूं मन की मीत रे !
बर्तन सब ढ़ो-ढ़ो बाजे
किसी में न प्रीत रे !
काहू की जीत बनूं
काहू की हार रे !
बिटिया मोरी मुझसे पूछे
माँ कैसी रीत रे !
समय
समय कुछ नहीं कहेगा
हर लेगा तुम्हारे दुख
तुम्हारी हार को
बदल देगा जीत में
निशान तो छोड़ेगा
लेकिन भर देगा तुम्हारे घाव
वह आएगा चुपके पाँव
और सरक जाएगा
तुम्हारी बन्द मुट्ठियों के बीच होता हुआ
तुम झूठ बोलोगे
समय सच कह देगा
तुम कहीं भी कुछ भी छुपाओगे
वह ढूँढ ही लेगा
वह छोड़ देगा तुम्हारे हर अपराध का सबूत
समय माफ नहीं करेगा
वह तो हिसाब करेगा
एक एक पाई का
क्माने का गंवाने का
पूरा और पक्का हिसाब
समय तुम्हें याद रखेगा
यदि रखोगे तुम उसे याद
नहीं तो उससे बड़ा भुलक्कड़
पूरी चैहद्दी में कोई नहीं
लेकिन जब तुम भूल जाओगे
अपनी यात्रा के बीते हुए पड़ाव
पार की हुई नदियों गुफाओं की याद
उन तमाम जिन्दगी के हिस्सों को
जिससे गुजरते हुए तुम पहुँचे यहाँ
वह लगाएगा पुकार तुम्हारी
तुम्हारी पूरी पहचान के साथ
समय अपनी बात कहेगा
तुम सुनो या न सुनो
जब भरोगे आसमान से उँची उड़ान
वह पकडे़गा तुम्हारे हाथ
जब भी उतरोगे अंधकार की गहन गुफाओं में
वह थाम लेगा तुम्हें
रोशनी के बनाते हुए पुल
करायेगा पार
इस पार से उस पार
समय कुछ नहीं कहेगा
उठेगा झाड़ेगा अपनी तुम्हारी गर्द
चल देगा तुम्हारे साथ चुपचाप
हर बार गिरने के बाद
थोड़ा-सा खिसक जाएं
थोड़ा-सा खिसक जाएं
एक खरगोश के उछलने की जगह भर
जितने में सिमट जाए
किसी याद का कोई छोटा-सा टुकड़ा
इतना कि गुब्बारे भर हवा समा सके
यह जरूरी है एक थके आदमी के लिए
जो पूरी थकान से लदा-फंदा लौटा है
पृथ्वी पर जीने लायक थोड़ी जगह बनाकर
आप देख सकते हैं बिना मशक्कत के
सूरज को बीच आसमान में
टांकने की थकान है उसके चेहरे पर
परेशान मत हों आप
थके पांव भर की जगह ही तो चाहिए उसे
आखिरकार ब्राह्माण्ड ने दी ही है
पृथ्वी को उसके घूमने भर की जगह
नदी ने मछलियों को तैरने के लिए
आसमान ने तो कैसे कैसों को
सौंपी है उड़ने भर की जगह
आपके आराम में नहीं होगी खलल
सबका आराम लेने ही तो निकला था वह
पिछली सदी की किसी ठिठुरती सुबह में
बच्चे के छुपने भर की यह जगह
वैसे भी उसने ही छोड़ी थी जनाब
उम्र के अन्तिम मुहाने पर जाने से पहले
वही तो छोड़ गया था
अपनी बूढ़ी थकान के लिए
अपने बैठने भर की यह अमूल्य जगह
सही है कि सभी जगहें भरती जा रही हैं
तब भी इतना तो खिसक ही जाएं
कि वो भी खिसक सके किसी के लिए
जब जगह की बहुत कमी हो
किसी के लिए बोया जा सके थोड़ा आराम।
पहाड़ से लौटते हुए
पहाड़ से लौटते हुए
हम सोचते हैं पहाड़ को
क्या पहाड़ सोचता होगा हमारे बारे में ?
पहाड़ पर चढ़ते हुए
हम पहाड़ नहीं चढ़ते
उतरता है पहाड़ हमारे अंदर
एक एक कदम रखते हुए
पहाड़ का आदमी उतरता है
कंधे पर चाय बगान लादे हुए
पहाड़ पर बीनते हुए जीवन के हिस्से
गाती है पहाड़ी औरत
पहाड़ के बचे रहने की उम्मीद
पहाड़ बजाता है बांसुरी संग साथ
पीछे छोड़ते हुए पहाड़
हम पहाड़ नहीं छोड़ते
अपना चौड़ा सीना छोड़ आते हैं
छोड़ आते हैं अपने ऊँचें होने का विश्वास
पहाड़ हम तुम्हें नहीं छोड़ते
अपना ऊँचा मस्तक छोड़ आते हैं
पहाड़ से लौटते हुए
आदमी सोचता है पहाड़ को
और पहाड़ को लौटता हुआ आदमी
अपने परिवार की भूख को
बार बार करता है याद
रिक्शावाला
पैडल के नीचे
दबाता है अपना दुख
हैण्डल के उमेठते हुए कान
बदलता है
हवा की दिशाएं
मेहनत की हवा का दबाव
उसके फेफड़ों में भरता है
बचे रहने की उम्मीद
उसकी पिंडलियों की मांसपेषियां
जीवन के पहाड़ को थामे हुए
चरमराती हैं
पुराने घिसे हुए रिक्शे के धुरे के साथ
उसके रिक्शे पर
भूख की तनी हुई तिरपाल है
जिसकी छांव में
सुस्ता रहा है उसका परिवार
और रिक्शेवाला
भरी दुपहरी के सीने पर
पहिये के निशान छोड़ते हुए
ढो रहा है
समय की व्यवस्थाए
कवि का मरना
कवि की नियति में
नहीं लिखा मरना
मरना तो महज जाना है
निर्लिप्त किसी शान्त यात्रा पर
कवि के साथ
कवि के शब्द नहीं मरते
बन्द नहीं होती
कविता की जादुई खिड़की
उसकी अनुपस्थिति से
खाली नहीं होता घर
ना ही पगडण्डियों से मिटते
उसके पैरों के निशान
मन के किसी कोने में
जागता हुआ कवि
सजग चैकीदार की तरह
हमें बार-बार करते हुए सावधान
पराजय के आखिरी क्षण में
रखता है हमारे कन्धे पर हाथ
हमारी प्यास के बीच
बहता है पहाड़ी नदी की तरह
मरता कहाँ है कवि
कुछ और नर्म धूप समेटे हुए
उगता है हर रोज
कवि का जाना ऐसा है
कि निकला हो एक कामगार
गैंती फावड़े के साथ
अंधेरे का पहाड़ काटने
गया हो समुद्र के उस पार
बादलों को खींच लाने
कि उतरा हो
समय की खदान में
सच का हिस्सा तलाशने
लौटा हो अपने पुराने ठौर
नई यात्रा की तैयारियों के लिए
कवि के जाने पर
हम नहीं गाते कोई विदा गीत
ना ही झूकते हैं हमारे कन्धे
उसकी लिखी कविताएँ
हमारी चेतना के अंधेरे आकाष में
भरती हैं विजयी उड़ान
अनिष्चितताओं के दुर्गम जंगल में
कवि धंसता है हमारे साथ ही
रोशनी की लाठी लिये
समय-बेसमय कभी भी
खड़का सकता है वह
हमारी गहरी नींद की सांकले
कवि का मरना
मरना कहाँ है
लौटना है बार-बार