समाजगत हिंसा का जेंडर पक्ष (कोविड-१९ काल के विशेष संदर्भ में) -कुसुम त्रिपाठी
प्रो. कुसुम त्रिपाठी
जेंडर स्टडीज विभाग
डॉ. बी.आर.अम्बेडकर सामाजिक विज्ञान
पितृसत्ता एक सामाजिक व्यवस्था भी है और एक विचारधारा भी, जिसके अनुसार पुरुष श्रेष्ठ है। पितृसत्तात्मक विचारधारा बनाने और उसे आगे बढ़ाने में धर्मों ने बड़ी भूमिका निभाई है, जिसके कारण औरतों के प्रति हिंसा को बढ़ावा मिलता है। महिलाओं पर सामाजिक हिंसा के अनेक रूप हैं। जेंडर विभेद तो समाज में है ही। लड़की को कम खाना देना, पौष्टिक चीजें न देने से बड़े होकर कुपोषण की शिकार होना, भारत देश में सामान्य बात है। पितृसत्तात्मक घृणित सामाजिक मान्यताओं के कारण ही बेटा कुल दीपक है। उसे अच्छा खाना-पीना, पढ़ाई-लिखाई दी जाती है, पर लड़कियों को नहीं। कोरोना काल में, बेरोजगारी के दौर में, मँहगाई के कारण घर में तनाव बढ़ता है, तो महिलाओं पर हिंसा भी बढ़ जाती है। मारपीट और कई कारणों से उनका स्वास्थ्य गिरता है। हिंदू डेटा रिपोर्ट के अनुसार – पिछले दस वर्षों में इतनी घरेलू हिंसा की शिकायतें दर्ज नहीं की गई, जितनी कोरोना काल के ६८ दिनों में की गई। सबसे ज्यादा शिकायतें दिल्ली, हिमाचल प्रदेश, हरियाणा और उत्तर प्रदेश की है। आश्चर्य जिस उत्तर प्रदेश में महिलाओं की मदद के लिए १८१ हेल्प लाइन फोन की सुविधा दी गई थी, वह भी पिछले सप्ताह सरकार ने बंद कर दिया। परिणाम उत्तर प्रदेश की ३२ वर्ष की आयुषी जो २०१७ से १८१ नम्बर हेल्पलाइन में काम करती थी। समाजशास्त्र में स्नातक थी। उसकी पोस्टिंग उन्नाव में थी। उसकी पाँच वर्ष की बेटी और दिव्यांग पति था। जो आयुषी १८१ नम्बर पर परेशान महिलाओं की बात सुनकर उनको समझाती थी, वही आयुषी ३ जुलाई २०२० की शाम को कानपुर के श्याम नगर स्थित अपने मायके के पास पी.ए.सी. की क्रासिंग पर रेलगाड़ी की पटरियों पर अपनी जान दे दी। कारण लखनऊ में १८१ हेल्पलाइन में ३५१ महिला काउंसलरों को पिछले एक वर्ष से वेतन मिलना बंद हो गया था। वेतन १२०००/- रुपये था। आयुषी की मौत के बाद कई सवाल उठे कि उन ३५१ महिला काउंसलर का भविष्य, प्रदेश की कोरोना पीड़ित-परेशान महिलाओं का जाना-पहचाना सहारा सब लुप्त हो गया। केंद्रीय बजट में शामिल ‘निर्भया कोष’ का आखिर क्या हुआ? उत्तर प्रदेश की महिलाओं का जिनके साथ होने वाली हिंसा का आँकड़ा पूरे देश में सबसे अधिक है, उनकी सुरक्षा का क्या? (स्त्रोत, न्यूजक्लिक ६ जुलाई २०२०, सुभाषिनी अली)
हिंदू डेटा टीम के अनुसार ८६% शिकायत कर्ता औरतें किसी से मदद भी नहीं मांगती। वे हिंसा को अपनी तकदीर मान बैठी हैं। इन हिंसाओं में ज्यादातर शारीरिक हिंसा ७९%, यौनिक हिंसा ८०.५% और दोनों प्रकार की हिंसा ६१.३% शामिल है।
२३ मार्च को भारत में अचानक लॉकडाउन की घोषणा की गई। अचानक इंसान की जिंदगी रुक गई। फैक्टरियाँ, ट्रेनें, ऑटो रिक्शा, बसें, इमारतों का बनना, सड़कों, ब्रिजों, जितने भी निर्माण से संबंधित काम है, दुकानें, छोटे-मोटे कल-कारखानें, घर में काम करने वाली घरेलू नौकरानियों सबके काम बंद हो गये। महामारी का इतना भयावह रूप मानव समाज ने कहीं नहीं देखा होगा। अचानक दिहाड़ी मजदूर से लेकर सभी मजदूर बेरोजगार हो गये। लॉकडाउन के दौरान हमने राष्ट्रीय स्तर पर शर्मशार करने वाले दृश्यों को देखा। देश के करोड़ो मजदूरों जो गांवों से शहरों में रोजगार के लिए आए थे, रोजी-रोटी की तलाश में, उन्हें औद्योगिक फैक्टरियों के बंद होने के कारण मजबुरन अपने गांव की तरफ लौटना पड़ा। वे मजदूर जिन्होंने हमारे देश के शहरों, संस्कृतियों, सभ्यताओं तथा अर्थव्यवस्था को अपने श्रम द्वारा खड़ा किया, उन्हें ही शहर दो जून की रोटी नहीं दे सका। इसमें महिलाओं की भी भारी जनसंख्या थी। मैं जिन महिलाओं की बात कर रही हूँ, वे गरीब बहुजन समाज की महिलाएँ है। जिनकी जिंदगी कितनी भी कठिन हो लेकिन इस अर्थव्यवस्था में उनका बेमिसाल योगदान है। कोरोना काल में वे महिलाएँ जो दलित, पिछड़े आदिवासी समुदाय की हैं, उनकी कोई खोज-खबर ही नहीं। महिला श्रमिक अक्सर शहरों में घरेलू कामों को प्राथमिकता देती है ताकि उन्हें रहने की दिक्कत का सामना ना करना पड़े, परिवार के साथ आई महिला निर्माण और उत्पादन संबंधी कामों में हिस्सा लेती है। शहरी औद्योगिक क्षेत्रों में कुशल और अर्द्धकुशल महिला श्रमिकों की भारी संख्या है।
घरेलू नौकरानी से लेकर सिलाई-कढ़ाई, कताई, बुनाई, धोबीघाट, फल-सब्जी, मछली बेचना, सौंदर्य-प्रसाधन बेचने, दुकानों पर छानने, पछोरने, बेकरियों, ढाबों और फैक्टरिंग के क्षेत्र में, मिडडे मील आदि बनाने जैसे अनगिनत क्षेत्रों में करोड़ो महिलाएँ जुड़ी है। इसके साथ ही खेती किसानी, बागवानी, मनरेगा और दुग्ध उत्पादनों से भी सैकड़ों महिलाएँ जुड़ी हैं। लेकिन लॉकडाउन लागू होने के बाद मजदूरों के साथ जो हुआ उसकी कल्पना किसी भी संवेदनशील व्यक्ति को सिहरा देने के लिए काफी थी।
नियोक्ताओं, मालिकों ने इस अवसर का फायदा उठाकर श्रमिकों को बिना उनकी बकाया मजदूरी दिये काम बंद कर दिया। ऐसे में मजदूरों को घर वापसी एक भयानक दु:स्वप्न और त्रासदी बनकर रह गई। इस लॉकडाउन के दौरान श्रमिक महिलाओं की जो तस्वीरें दिखाई पड़ी उससे पूरा राष्ट्र शर्मिंदगी महसूस कर रहा था। श्रमिक वर्ग भारतीय अर्थव्यवस्था की रीढ़ है, जिनके बलबुते पर पूरा अर्थतंत्र खड़ा है, पूरे तंत्र ने उसे नकार दिया। देश इन मजदूरों के प्रति कितना असंवेदनशील हो सकता है। इसकी हकीकत सामने आ गई। लॉकडाउन में घर वापसी के लिए सैकड़ों-हजारों किलोमीटर पैदल चलते हुए सबसे ज्यादा कष्ट में महिलाएँ रही। सारी दुनिया ने देखा कि सिर पर गृहस्थी लादकर काम बंद हो जाने का तनाव, खाली जेबें, एक या दो वक्त का खाना-पानी के साथ बच्चों को लेकर हाइवें पर ४५-४९ डिग्री तापमान में, तपती धूप और लू में पिघलती चौड़ी-चौड़ी सड़कों पर, मजदूर अपने परिवार के साथ पुलिस के डंडे खाते अपने गांव-घर पहुँचने की उम्मीद से भूखे-प्यासे आगे बढ़ते जा रहे थे। न खाना, न पानी, उन्हें दो–ढाई हजार किलोमीटर पहुँचने में उन्हें एक सप्ताह से पंद्रह-बीस दिन लग गये। अब तक सामने आये रिपोर्ट में ६६७ लोगों की सड़क दुर्घटना में मौत हो गई, पर जो दर्ज नहीं किये गये। शायद उनकी संख्या इससे भी ज्यादा होगी।
पैदल चलती महिलाएँ सबसे ज्यादा प्रताड़ित हुई। महिलाओं की शारीरिक बनावट और प्रकृति अलग होने के कारण उन्हें अनेक दिक्कतों का सामना करना पड़ा। बुजुर्ग, बीमार, गर्भवती महिलाएँ लगातार चलती रही। किसी भी स्थान पर उन्हें माहवारी आ सकता है। ऐसे में शारीरिक दिक्कतों के साथ सेनेटाइजेशन और साफ-सफाई की जरुरत रहती है। जिन राह चलती औरतों के पास पीने का पानी नहीं था, तो उन्हें माहवारी की सफाई के लिए पानी कहाँ से मिलता? ४५ डिग्री के तापमान में चलती हजारों महिलाएँ माहवारी की पीड़ा से गुजरी होगी। जिन दिनों पेट, कमर, पैरों मे असह्य पीड़ा होती है। उस समय तपती धूप में चलना कितना यातनादायक हुआ होगा। इसका हम केवल अंदाजा लगा सकते है।
लॉकडाउन के दिनों में अनेक ऐसी खबरें आई, जो किसी भी सभ्य समाज को शर्म से झुका देने के लिए काफी थी। शकुंतला नामक एक गर्भवती महिला ने घर जाते हुए अस्सी किलोमीटर पैदल चलने के बाद सड़क पर ही एक बच्चे को जन्म दिया और कुछ घंटों के बाद फिर से १६० किलोमीटर की यात्रा की। ऐसी अनेक महिलाओं ने ट्रेन में, ट्रक में और सड़क पर बच्चा पैदा किया। इन बच्चों का आने वाले समय में भविष्य क्या होगा? इसकी कल्पना से ही दिल कांप उठता है।
लॉकडाउन के दौरान महिलाओं के बलात्कार की कई घटनाएँ सामने आईं। महिलाओं पर यौन-हिंसा, बलात्कार की घटनाओं में, जो कोरोना काल में वृद्धि हुई, उसके पीछे पितृसत्तात्मक सोच है। महिलाओं को उपभोग की वस्तु समझना और पुरुषों की यौन की इच्छाओं को संतुष्ट करना। कोरोना काल में जब लॉकडाउन शुरु हुआ, तब उड़िसा के वीरमित्रपुर में १३ वर्ष की नाबालिग लड़की मार्च अंत में मेला देखकर घर लौट रही थी। रिक्शा स्टैण्ड पर रिक्शा के लिए खड़ी थी। उसी समय पेट्रोलिंग पर निकले पुलिसवालों ने उसे घर छोड़ देने का आश्वासन देकर उसे जीप में बिठा लिया और पुलिस स्टेशन पर ले जाकर उसका बलात्कार किया। दो महीने बाद जब पता चला कि वह गर्भवती है, तब उस इंस्पेक्टर और उस लड़की के सौतेले पिता ने लड़की का गर्भपात करवा दिया। जब रक्षक ही भक्षक बन जाये, तो क्या किया जाये? (उड़िसा टी.वी., यूट्यूब ओ.टी.वी., ३ जुलाई २०२०)
इसी तरह ३० जून २०२० वर्धा जिले के सांवगी में सेलपुरा गांव में गैंगरेप की घटना सामने आई। कोरोना काल में नौकरी की तलाश सबको होती है। एक महिला को नौकरी देने के बहाने फार्म हाउस पर बुलाया गया। वह अपने पति के साथ फार्म हाउस पर गई थी। वहाँ उसके पति के हाथ पैर बांधकर उसके साथ छ: लोगों ने बलात्कार किया। ये घटनाएँ हमारी नैतिकता का पतन बताने के लिए काफी है। बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ का नारा धरा का धरा रह जाता है। बलात्कार की शिकार ये बेटी काफी पढ़ी-लिखी थी। (स्त्रोत – प्रतापगड़चे वोर, सांध्य दैनिक, २ जुलाई २०२०)
लॉकडाउन के समय २१ जून २०२० उत्तर प्रदेश के जिला कानपुर के स्वरूपनगर स्थित राजकीय बाल संरक्षण गृह में ५७ लड़कियाँ कोरोनाग्रस्त पाई गई। संक्रमित बालिकाओं के मेडिकल जाँच के दौरान १७ वर्ष की सात लड़कियाँ गर्भवती पाई गई। उसमें एक एच.आई.वी. पॉजिटिव और दूसरी हेपेटाइटिस की मरीज पाई गई। (नवभारत टाइम्स २१ जून २०२०)
कोरोना काल में औरतें अंधविश्वास की भी शिकार हुई। बिहार के अररिया में कोरोना माई की पूजा का वीडियो खुब वायरल हुआ। औरतें जो अशिक्षित, अनपढ़, अंधविश्वासी, अंधश्रद्धा की शिकार है, उन्होंने कोरोना मैया के लिए व्रत रखा। कहीं से अफवाह उड़ी कि जो स्त्री व्रत रखेगी उसके खाते में सरकार पैसे डालेगी। परिणाम एक स्त्री व्रत के दौरान मृत्यु को प्राप्त हुई। ये बहुत ही दुर्भाग्यपूर्ण घटना है। (फारवर्ड प्रेस १२ जून २०२०)
सामाजिक हिंसा का एक और रूप है डायन प्रथा। कोरोना काल में हमने देखा कि बिहार के मुजफ्फरपुर के हथौड़ी गांव में ५ मई २०२० के दिन तीन औरतों को पंचायत ने डायन घोषित कर उनके बाल कटवाने, उन्हें मैला (संडास) खिलाने का फरमान जारी किया और उन्हें घसीट-घसीट कर मार गया। इस पूरी घटना का वीडियो वायरल किया गया। (बिहार-झारखण्ड न्यूज १८ चैनल के सौजन्य से ०५ मई २०२०)
ऐसी कई खबरें एक के बाद एक आई। जैसे कि झारखण्ड के ठुमका जिले की दो आदिवासी महिलाएँ कर्नाटक से बेंगलुरु के करीब एक जंगल में दो बच्चों के साथ छिपी रही। बाद में उसमें से एक महिला ने पुलिस को बताया कि लॉकडाउन की घोषणा के बाद जिस फैक्टरी में वे काम करती थी, वहाँ के दो लोगों ने उसके साथ बलात्कार किया था। वही एक घटना छत्तीसगढ़ की है। १८ अप्रैल २०२० को जमालो मकदाम नामक १२ वर्षीय एक बच्ची की मौत उस वक्त हो गई, जब वह छत्तीसगढ़ के बीजापुर से अपने घर से मजह ११ किलोमीटर दूर थी। वह अपने माता-पिता के साथ तेलंगाना से पैदल घर लौट रही थी। (फारवर्ड प्रेस, १२ जून २०२०)
सूरत से एक ट्रेन बिहार के लिए निकली। ट्रेन रास्ता भटक गई। नौ दिनों बाद बिहार पहुँची। रास्ते में ट्रेन में बैठे यात्री भुखे प्यासे थे। बिहार के मुजफ्फरपुर स्टेशन पर ट्रेन पहुँचती है। कई लाशें निकलती है, जिसमें एक लाश महिला की है। रेलवे प्लेटफार्म पर मृत माँ को जगाने की कोशिश कर रहे बच्चे की तस्वीर ने नये भारत के चेहरे से नकाब हटा दिया। प्लेटफार्म पर गाड़ी खड़ी है। महिला के असहाय परिवार वाले, तमाशबीन भीड़, रेल विभाग, सरकार कौन जिम्मेदार है उस बच्चे के भविष्य के लिए? कोरोनाकाल की बलि चढ़ गई उस बच्चे की माँ। पूरा राष्ट्र शर्मिंदा है, ऐसी घटनाओं से।
बहुत संवेदनशील विषय को उतनी ही संवेदना से निभाया । आँखें भर आयी हैं ।
मैम भारत सरकार ने 23 मार्च को जो लॉकडाउन लगाया। बिना तैयारी के सरकार को उल्टा पड़ गया। सरकार को चाहिए था कोरोना जैसी महामारी से लड़ने के लिए हर जिले स्तर पर हॉस्पिटल की सेवाएं बेहतर करना चाहिए था और नए हॉस्पिटल का निर्माण होना चाहिए पर सरकार के ये प्राथमिकता में नहीं रहा। जिसके कारण आम जनता को परेशानियों का सामना करना पड़ रहा है। आपने बहुत सारे बिंदुओं की तरफ ध्यान आकर्षित किया है…💐💐💐👌👌👌
Very well written article! Amazing!
Very emotional and informative.
‘बिहार के मुजफ्फरपुर स्टेशन पर ट्रेन पहुँचती है। कई लाशें निकलती है, जिसमें एक लाश महिला की है। रेलवे प्लेटफार्म पर मृत माँ को जगाने की कोशिश कर रहे बच्चे की तस्वीर ने नये भारत के चेहरे से नकाब हटा दिया।’
विचलित कर देने वाला लेख है।
आपके इस लेख ने मन व्यथित कर दिया। इस तरह के तथ्य और सामग्री अब पढ़ने को जल्दी नही मिलती है।
पूरे सिस्टम को बेनकाब करने वाला लेख है।ऐसे ही लेखों की आज के समय में जरूरत है, जो लोगों को झकझोर सकें।
आपको बहुत बहुत बधाई
मानवीय संवेदनाओं में आई कमी का अत्यंत मार्मिक वर्णन.
बहुत ही सजीव था,यथार्थ यही हे आपने शब्दों में पिरोया
पितृसत्तात्मक घृणित सामाजिक मान्यताओं के कारण ही महिलाओं पर अत्याचार हुये है और हो रहे है. जहां सामाजिक व्यवस्था से लेकर देश की आर्थिक व्यवस्था में भागिदारी करनेवाली महिलाओं पर हो रहे अत्याचार को आपने उजागर किया है. बहुत ही चिन्तनीय लेख है. आपको प्रणाम.
कोविद 19 काल में महिलाओं की यातनायें और उन हुये अत्याचार को आपने उजागर किया है. इस गम्भीर विषय पर सभी को चिंतन करने की आवश्यकता है. आपको प्रणाम.
मिस आप ने बिल्कुल सही बताया है महिलाओं कि परिस्थिति लॉकडाउन में बहुत ही खराब होती जा रही है। जहां मै रहती हूं ऐसे बहुत सारे मामले सामने आए हैं, जहां एक महिला को उसके पति ने छोड़ कर दूसरी महिला के साथ भाग जाता है और कुछ महीने बाद वो वापस आता है, उसकी पहली पत्नी अपना घर अपने बच्चो को सम्हाल रही है उसके वापस आने पर भी वह उसे अपना लेती है अगर एक स्त्री ऐसा कुछ करे घर से भाग कर वापस आए तो उसकी स्थिति कैसी होगी उसके साथ क्या होगा इसकी कल्पना भी नहीं कर सकते है।
बहुत ही संवेदनशील विषय कोरोना तो फिर भी शायद उम्मीद है कि एक या 2 साल में वैक्सीन आने के बाद इस पर कंट्रोल किया जा सकता है । लेकिन समाज पितृसत्तात्मक सोच और हिंसा को खत्म करना बेहद मुश्किल है। और इस महामारी के दौर में लोगों के मजबूरियों का फायदा उठाकर उन पर हिंसा करना उनका शोषण करना और भी ज्यादा शर्मनाक है। आपके लेख के द्वारा ऐसी बहुत सारी तस्वीरें एक बार फिर से नजरों के सामने आकर खड़ी हो गई जिनके बारे में सोचना भी बेचैनी पैदा करता है।
ऊफ !!! दिल दहल गया।
दरअसल में सारी दिक्कतें इस कोरोना काल में असंगठित मजदूरों की रही हैं जो सरकारी आंकड़ों में कहीं नहीं है।
पितृसत्तात्मक समाज का बहुत ही सटीक वर्णन किया है।
आलोचनात्मक अध्ययन सटीक व झझोङ देने वाला है ।महिलाओं के प्रति संवेदनशीलता के साथ विचार किये जाने में सहयोग करेगा ।
Aam jan manas ke takleef ko unke dard ko apni atma se mehsoos kiya h aap ne. Aapka likha ek ek sabd Samaj ke un logo ko sachai ka aayena dikha raha h jo apni jhoot aour Dhoke se bhari duniya me khush h.. Aap mahan h… Salaam h aapko
बहुत ही संवेदनशील और विवेचनात्मक विचारणीय आलेख।
Aam jan manas ke takleef ko unke dard ko apni atma se mehsoos kiya h aap ne. Aapka likha ek ek sabd Samaj ke un logo ko sachai ka aayena dikha raha h jo apni jhoot aour Dhoke se bhari duniya me khush h.. Aap mahan h… Salaam h aapko
बेहद उम्दा लेख।
पितृसत्तात्मक समाज, जेंडर विभेद पर बेहद उम्दा लेख।
एक एक शब्द, एक एक लाइन समाज मे महिलाओं की दयनीय स्थिति को उजागर कर रही है मानव जाति पर जब भी कोई संकट आता है चाहे सामाजिक हो या आर्थिक हो सबसे ज्यादा खमियाजा नारी जाति को ही भोगना होता है।
प्राचीन काल से ही महिलाओं के साथ ये दुर्व्हवहार होता आ रहा है , समाज की संरचना ही ऐसे रची गयी है कि महिलाओं को केवल शोषित किया जा सके , उपरोक्त लेख में आपने जो विचार रखे हैं वो कहीं न कहीं समाज में महिलाओं की भयावह स्थिति को बयां करते हैं इसीलिए हम सभी को जागरूक ओर संगठित होने की आवश्यकता है
महिला उत्पीड़न की तथ्यपरक व्याख्या की है आपने, कोविड19 की वजह से महिला अधिकारों का लगातार दमन किया गया है जिसका कारण पितृसत्तात्मक अधिकारिता को कोविड ने और बल दिया है।
उम्दा लेख 💐
ye ek behtreen lekh hai.
mahatwpurn lekh.
कोविड- 19 के संदर्भ में समाजगत हिंसा का जेंडर पक्ष पर संवेदनशील लेखिका प्रोफेसर कुसुम त्रिपाठी की तथ्यात्मक, मानवीय संवेदना सामने आई है । समस्या कितनी गंभीर है लेख के शीर्षक से ही प्रमाणित होता है । लैंगिक आधारित विषय वस्तु के लिए लेखिका को अंग्रेजी शब्द जेंडर का उपयोग करना पड़ा। यह संकोच ही पुरुषवादी सोच की विडंबना को इंगित करता है । यह हिचक चंद दिनों कि नहीं है, सदियों से साहित्य, कला, भाषा, लोक व्यवहार, परस्पर वार्तालाप में इसका असर देखा जाता रहा है।
प्रोफेसर त्रिपाठी ने करोना कॉल में महिलाओं की पीड़ा को केंद्र में रखकर विचार व्यक्त किए हैं । आलेख में कष्टों के विभिन्न स्वरूपों को दर्शाया गया है। लेकिन लेखिका किसी निष्कर्ष पर नहीं पहुंची है । देशज संदर्भों में समस्या के मूल में वर्ण व्यवस्था और मनुस्मृति है। श्रमिकों के पलायन की समस्या को भी वर्गीय दृष्टि से देखा जाना चाहिए जिसमें पूंजीवाद और उसकी राज्य व्यवस्था का निर्मम, नग्न स्वरूप सामने आया है। करोना काल में धर्म और कथित ईश्वरीय व्यवस्था भी बेनकाब हुई है। जिसका सर्वाधिक पालन और विश्वास महिलाएं ही करती रही है।