तुम बिन जाऊं कहां : शायर – गीतकार मज़रुह सुल्तानपुरी
तुम बिन जाऊं कहां : शायर – गीतकार मज़रुह सुल्तानपुरी
- बबिता बसाक
"जब किसी फिल्म के गीत हिट होते हैं तो हम कह उठते हैं वाह! उस फिल्म के गीत कितने सुन्दर हैं। यह सच है कि गीतों की सफलता में गायक, संगीतकार और गीतों के फिल्माकंन नायक व नायिका का होता है। परंतु गीतों की सफलता में सर्वाधिक योगदान होता है उस गीत की रचना व लिखने वाले का, फिल्मी भाषा में जिन्हें हम और आप शायर व गीतकार के नाम से जानते हैं, ये गीतकार ही होते हैं जो अपने कलम के जादू से गीतों को सफलता के शिखर पर पहंुचाकर उन्हें कामयाब बनाते हैं।"
रहें ना रहें हम, जलते हैं जिसके लिए, दिल जो ना कह सका, पिया तू अब तो आजा, चाहूंगा मैं तुझे सांझ सवेरे, हमें तुमसे प्यार कितना, तुम बिन जाऊं कहां, पापा कहते हैं, पहला नशा जैसे कई लोकप्रिय गीतों की रचना करने वाले ये शायर व गीतकार थे जनाब असरार हसन खान उर्फ मज़रुह सुल्तानपुरी साहब।
मज़रुह सुल्तानपुरी जिन्होंने लगभग 350 फिल्मों के लिए एक से एक लोकप्रिय गीतों की रचना की इस हिन्दी चलचित्र जगत के लिए।
1 अक्टूबर, 1919 को उत्तर प्रदेश के आजमगढ जिले के निजामाबाद गांव में जन्म हुआ था इस लोकप्रिय शायर व गीतकार का। इनके पिता एक पुलिस कॉस्टेबिल थे, जो ये चाहते थे कि उनका पुत्र हकीम बने, परंतु बचपन से ही गज़लों व शेरों शायरी के शौकीन थे असरार। उन्हें मुशायरों और महफिलों में जाना और शायरी सुनना बेहद पसंद था। पिता की आज्ञानुसार असरार लखनऊ के तकमील उल तीब कालेज गये और यूनानी पद्धति से हकीम की पूरी तालिम भी ली, परंतु युवा असरार ये अच्छी तरह से जानते थे कि इससे वो सफलता नहीं मिल सकती जो कि एक उर्दू शायरी कर सकती है।
अलीगढ़ स्थित मदरसे से फारसी व अरबी की शिक्षा प्राप्त करने के बाद वे आये मायानगरी बम्बई। वहां पहुंचकर उर्दू शेरों शायरी के शौकीन असरार ने शीघ्र ही अपनी उर्दू शायरी को गज़ल का रुप दे दिया।
बम्बई आकर साल 1945 में सबसे पहले ऑल इंडिया सब्बो सिद्दीकी इंस्टीट््यूट द्वारा आयोजित एक मुशायरे में वे शामिल हुए। वहां निजामी लोगों के सम्मुख उनका परिचय मज़रुह सुल्तानपुरी कहकर करवाया गया।
फुल लखनवी पजामा-कुर्ता, गला बंद फुल काले रंग का कोट, चेहरे पर एक अलौकिक चमक के साथ युवा असरार जब माइक्रोफोन पर आये तब उन्होंने अपनी गज़ल पढ़ी, ‘‘शब ए इंतजार कशमकश में ना पूछ कैसे रहा हूं, कभी एक चराग जला दिया, कभी एक चराग बुझा दिया।’’
उस मुशायरे में मशहूर निर्माता निदेशक अब्दुल रशीद कारदार जी हां के आर कारदार साहब भी मौजूद थे, वे मजरुह साहब की शायरी से बेहद प्रभावित हुए और फिर क्या था कारदार साहब ने अपनी फिल्म शाहजहां में गीत लिखने के लिए मज़रुह साहब को आमंत्रित किया परंतु मज़रुह साहब ने उन्हें फिल्म में गीत लिखने से साफ इंकार कर दिया। बाद में शायर जिगर मुरादाबादी के कहने पर उन्होंने फिल्म शाहजहां में गीत लिखना स्वीकार किया और बस यहीं से शुरु हो गया बतौर गीतकार उनका फिल्मी करियर।
1946 की इस फिल्म के गीतों ने धूम मचा दी और गायक के0 एल0 सहगल द्वारा गाये सभी गीतों को संगीतप्रेमियों से खूब सराहा। फिल्म के संगीतकार थे नौशाद साहब। उसके बाद 1949 की फिल्म ‘अंदाज’ के लिए उन्होंने गीत लिखे। तू कहे अगर, झूम झूम के नाचो आज, आज कहीं दिल खो बैठे, टूटे ना दिल टूटे ना जैसे गीतों ने अभूतपूर्व सफलता पाई और इस सफलता के साथ ही मज़रुह साहब उस दौर के लोकप्रिय गीतकारों में शु़मार हो गये और फिल्मों में एक के बाद एक उत्कृष्ट गीत लिखते चले गये मज़रुह साहब और साथ ही सफलता का स्वाद चखते रहे।
मज़रुह साहब एक सफल उर्दू शायर थे, इसलिए सुनने वालों को उनके गीतों में शायरी की एक स्पष्ट झलक सुनने को मिलती है। गीत, गजल, रोमांटिक, रॉक एंड रोल, पॉप, कव्वाली, भजन, संवेदनशील, मस्ती भरा, कैबरे या फिर संवाद प्रवृत्ति का गीत सभी प्रकार के गीत लिखे मज़रुह साहब ने। उन्होंने जिस भी दौर मंे गीत लिखे वे सभी हिट हुए और उनकी खासियत यह है कि उन गीतों की चमक आज तक बरकरार है।
नौशाद, अनिल विश्वास, ओ पी नैयर, रोशन, उषा खन्ना, सी रामचंद्र, शंकर जय किशन, बसंत देसाइर्, एन0 दत्ता सलिल चौधरी, हेमंत कुमार, मदन मोहन और लक्ष्मीकांत प्यारेलाल जी जैसे अपने समय के सुप्रसिद्ध संगीतकारों के अलावा बाद में ए0 आर0 रहमान, राजेश रोशन, अन्नू मलिक, आनंद मिलिंद, जतिन ललित, तुषार भाटिया व लीज्ले लुईस लेविस जैसे संगीतकारों के साथ भी उन्होंने अपने कलम के जौहर बिखेरे और वे सभी गीत भी बेहद मकबूल हुए।
एक खास बात यह है कि हिन्दी सिनेमा में उन्हें पिता व पुत्र दोनों ही संगीतकारों के साथ काम करने का मौका मिला। उनमें संगीतकार रोशन व उनके पुत्र राजेश रोशन, संगीतकार चित्रगुप्त व उनके पुत्र आनंद मिलिंद और संगीतकार एस डी बर्मन व उनके पुत्र आर डी बर्मन प्रमुख हैं।
निर्माता-निदेशक नासिर हुसैन की अधिकांश फिल्मों के लिए सदैव गीत लिखे मज़रुह साहब ने। आरंभ में नासिर हुसैन की फिल्मों का संगीत ओ0 पी0 नैयर, उषा खन्ना और शंकर जयकिशन का रहा, परंतु बाद की फिल्मों में नासिर हुसैन, आर0 डी0 बर्मन और मज़रुह सुल्तानपुरी ने हिन्दी सिनेमा को तीसरी मंजिल, कारवां, बहारोें के सपने, प्यार का मौसम, यादों की बारात, हम किसी से कम नहीं और जमाने को दिखाना है जैसी कई म्यूजिकल हिट फिल्में दीं इस फिल्म इंडस्ट्री को।
संगीतकार आर0 डी0 बर्मन के साथ उन्होंने अन्य फिल्मों के लिए भी लोकप्रिय गीत लिखे। मेला, अभिलाषा, अनामिका, मेरे जीवन साथी, मंजिल-मंजिल व कुदरत जैसी फिल्मों के गीत भी संगीतप्रेमियों ने खूब पसंद किया और गुनगुनाया।
1964 में राजश्री की फिल्म दोस्ती में चाहूंगा मैं तुझे इस गीत के लिए उन्हें सर्वश्रेष्ठ गीतकार का फिल्म फेयर पुरस्कार मिला । उन्हें राष्ट्रीय इकबाल सम्मान से भी सम्मानित किया गया । 1993 में दादा साहब फाल्के पुरस्कार से सम्मानित होने वाले मज़रुह साहब पहले गीतकार हैं। गज़ल व मिसाल ए जान जैसे पुस्तकों की रचना भी की थी उन्होंने।
जीवन के अंतिम क्षणों तक मज़रुह साहब लिखते रहे। 25 मई, साल 2000 को इस महान गीतकार ने इस फिल्मी दुनिया को अलविदा कहा। उनके गीतों में लय, अप्रतिम सौन्दर्य, सौम्य भावनाएं व सुसंस्कृत शब्दों का संुदर सम्मिश्रण हमें सुनने को मिलता है।
मज़रुह साहब के कलम से निकले गीतों को उनके चाहने वाले जब भी सुनेगें, वे सदैव यही कहेंगे ‘‘तुम बिन जाऊं कहां, कि दुनिया में आके, कुछ ना फिर चाहा कभी तुमको चाह के, तुम बिन…………।’’
आलेख- बबिता बसाक