लोकतंत्र का सबसे बड़ा उत्सव इस बार ‘कुरुक्षेत्र का मैदान’ बन गया। महाभारत की तरह इस युद्धक्षेत्र में भी हर योद्धा अपनों पर ही संधान करते रहे। कहीं दोस्त – मित्र, कहीं पिता – पुत्र, कहीं गुरू – शिष्य; यहां तक कि कहीं – कहीं पति – पत्नी भी एक – दूसरे के विरोधी खेमों में लड़ते नज़र आए।
संजय की भूमिका निभा रहे न्यूज़ चैनल चीख़- चीख़ कर अपने – अपने तरीके से आंखों देखा हाल बयां करते रहे, लेकिन इस बार जनता ने धृतराष्ट्र की भूमिका नहीं अदा की, बल्कि आँखें खोल कर ख़ुद युद्ध का जायज़ा लेती रही।
‘सत्य पर असत्य’ की लड़ाई सभी लड़ रहे थे, लेकिन एक दूसरे को झूठा सिद्ध करने में ‘सच्चे – झूठे’ ‘वचन बाण’ छोड़ने में कोई पीछे नहीं रहा।
श्रीकृष्ण की तरह चुनाव आयोग ‘निष्पक्ष अचार संहिता’ का ‘गीता ज्ञान’ देता रहा, लेकिन सुनने वाला कोई नज़र नहीं आया, इसलिए उसके परामर्श पर अमल करने का तो सवाल ही नहीं था, हालांकि उसके तौर तरीकों पर सवाल ज़रूर उठाए जाते रहे।
लोकतंत्र के उत्सव को कुरुक्षेत्र का मैदान बनाने में सबसे ज़्यादा योगदान ‘शब्द बाणों’ का रहा। ‘हम किसी से कम नहीं’ की तर्ज़ पर हर महारथी अपने अपने शब्द कोष से तेज़ धार वाले शब्द खोज कर अपना तरकश खाली करने में लगा रहा।
कोई – कोई महारथी सारा दोष ज़बान पर डालकर बच निकलने की फ़िराक में भी रहे, लेकिन शब्दों का संधान बिना सोचे समझे होगा, तो ज़बान फिसलेगी ही।
इस महायुद्ध में युद्ध संचालकों की ज़बान सबसे ज़्यादा फिसली। ‘कुछ भी’ कहने में सभी एक दूसरे से आगे रहे।
कभी – कभी तो ऐसा भी लगने लगा कि ये महायुद्ध लोकतंत्र का है या निजी संग्राम। लोकतंत्र की गरिमा को दरकिनार कर सभी योद्धा एक – दूसरे पर व्यक्तिगत हमले करते रहे। यहां तक कि इन हमलों में महारथियों ने देश की अस्मिता की भी परवाह नहीं की।
ग़ालियों का तो ये हाल रहा कि आने वाले समय में ये ग़ालियां भी अपना मतलब खो देंगी या फिर इनके मायने बदल जाएंगे और तब इनका इस्तेमाल ‘सियासी शान’ समझा जाने लगेगा।
जैसे तैसे लोकतंत्र का ये महायुद्ध संपन्न हो गया। ताज का हकदार कोई भी हो, लेकिन इस महायुद्ध में सबसे ज़्यादा ज़ख्म लोकतंत्र को मिले हैं। चुनावी वादों को तो जाने दीजिए, वो तो सिर्फ़ वक़्ती तौर पर जनता को लुभाने के लिए होते हैं, लेकिन चुनाव जीतने के लिए ‘साम – दाम – दंड – भेद’ के अलावा ये जो ‘झूठ – फ़रेब, आरोप – प्रत्यारोप और ग़ाली – गलौज’ का नया सिलसिला शुरू हुआ है, ये अगले चुनावों में कितना भयंकर रूप ले सकता है, इसका अनुमान लगाया जा सकता है।
ढाई सौ साल की ग़ुलामी के बाद देश को आज़ाद हुए अभी सौ साल भी नहीं हुए … और आज लोकतंत्र की ये हालत है कि सत्ता की चाहत में चुनाव युद्ध का मैदान बनने लगा है, लोकतंत्र का सबसे बड़ा पर्व अब ‘महायुद्ध’ की तरह सजने लगा है।
पक्ष और विपक्ष के सिपहसालारों ने भी अपनी – अपनी सेना की विजय सुनिश्चित करने के लिए ‘शब्द बाण’ दागने में कोई कसर नहीं छोड़ी। सोशल मीडिया पर देश की जनता ने भी उनका साथ दिया; लेकिन इस बात पर तो सभी एक मत होंगे कि देश को अब और महाभारत नहीं चाहिए।
( इस कॉलम में कही गई बातों पर आपकी प्रतिक्रियाओं का स्वागत है – प्रकाशक)