कथाकार: सुधा आदेश

देवर सुमित की पुत्री शुभा का विवाह था । सुमित और दीपाली महीने भर पहले से ही जिद पर अड़े थे कि भाभी आपको हफ्ते भर पहले आना होगा । वे उसे मानते भी बहुत थे शायद यही कारण है कि हमारे लिये उनके आग्रह को ठुकराना पाना संभव नहीं हो पा रहा था । अमित के पास ज्यादा छुट्टी नहीं थी अतः वह विवाह से एक दिन पूर्व ही जाना चाहते थे पर वह संजना से जाने का आग्रह कर रहे थे । इस बार संजना का अकेले जाने का मन ही नहीं कर रहा था । न जाने क्यों कहीं भी आना जाना वह भी अकेले, सोच-सोचकर उसे तनाव होने लगता है । कहीं दुर्घटना, कहीं चोरी तथा कभी बलात्कार…समाचारपत्रों और दूरदर्शन की खबरों से तो यही लगने लगा है कि आज इंसान कहीं भी सुरक्षित नहीं है ।

एक समय था जब माता-पिता बच्चों से कहते थे कि अखबार और टी.वी. की खबरें नियमित पढ़ा और देखा करो, कम से कम देश विदेश के बारे में जानकारी मिलेगी, कुछ तो ज्ञान बढेगा पर अब तो स्वयं ही पढ़ने या देखने को मन नहीं करता । विशेषतया झारखंड में आकर चाय की चुस्कियों के साथ अखबार पढ़ना कब का छूट चुका है । ‘ प्रभात खबर ’ जैसे आँचलिक अखबार की तो छोड़िये, ‘ हिंदुस्तान ’ जैसे राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त दैनिक में भी मुखपृष्ठ पर रोज गला रेत कर हत्या के समाचार के साथ खून से लथपथ लाशें देखकर मन काँप उठता है । जीवन से कभी मोह नहीं रहा पर जीवन इतना क्षणभंगुर होगा, कभी सोचा भी नहीं था । ऐसे समाचार जहाँ असुरक्षा की भावना बढ़ाते हैं वहीं रोज-रोज ऐसे समाचार देख और पढ़ कर क्या व्यक्ति संवेदनशून्य नहीं होता जायेगा ?

कभी-कभी वह सोचती क्या हमारे देश में एक भी अच्छा काम नहीं हो रहा है…? क्या पूरे विश्व में जानवर ही बिखरे पड़े हैं…? जो कभी मजहब के नाम लूटपाट करने पर आमदा रहते हैं तो कभी कोई संगठन अपनी बातें मँगवाने हेतु बंद का आयोजन कर, अपने ही देश की संपत्ति, अपने ही लोगों को नुकसान पहुंचाकर क्षोभ करना तो दूर आनंदित होने में ही अपनी शेखी समझने लगे हैं या हमारे देश का मीडिया ही इतना नकारात्मक हाता जा रहा है कि उसे इन सब के अतिरिक्त कुछ नजर ही नहीं आता । वह ऐसी खबरों में नमक मिर्च लगाकर लोगों में सनसनी पैदा कर अपनी टी.आर.पी. रेटिंग तो बढ़ा लेता है पर वह यह भूल जाता है कि ऐसा करके वह क्षण मात्र को भले ही उत्तेजना पैदा कर दे पर व्यक्तियों के मनमस्तिष्क में ऐसा जहर भरता जा रहा है जिसे न तो निगला जाता है और न ही उगला । कभी-कभी तो दुर्घटना के भयानक सीन दिखाने के पहले सूचना आ जाती है…कृपया बच्चे और दिल के मरीज इस दृश्य को न देखें पर अगर कोई बीच में ही टी.वी. का स्विच ऑन कर दे तो…!!

अभी दो वर्ष पूर्व ही अमित महाराष्ट्र से झारखंड में स्थानांतरित होकर आये हैं…पोस्टिंग भी ऐसी जगह हो गई जो नक्सलियों का गढ़ मानी जाती है । नौकरी तो नौकरी ही है, जहाँ भी स्थानांतरण हो जाना ही पड़ता है। यहाँ नक्सलियों का कहर इतना है कि देर रात बाहर रहना सुरक्षित नहीं समझा जाता है…। पद संभालते ही अमित के सहयोगियों ने इस बारे में उन्हें आगाह कर दिया था । घूमना फिरना तो ठीक है पर नौकरी तो घर बैठकर नहीं की जा सकती, उसमें तो देर सबेर होती ही रहती है ।

जब कभी ऐसी स्थिति आती, अमित जब तक घर नहीं लौट आते अनहोनी की आशंका से दिल धड़कता ही रहता है ।

अमित से अपने मन की बात कहती तो वह हँसी में उड़ा देते, कहते, ‘ संजना, तुम्हें हो क्या गया है, तुम्हारी जैसी आत्मविश्वासी स्त्री, जो जब तब अकेले आने जाने की अभ्यासी रही है, के मुँह से यह सब सुनना आश्चर्यजनक लगता है…अगर तुम्हारी तरह सब सोचने लगे तब तो यहाँ कोई भी घर से बाहर ही नहीं निकल पायेगा । अरे, जो होना होगा वह होगा ही फिर व्यर्थ का तनाव क्यों…?’

यह सच है कि संजना में बचपन से ही आत्मविश्वास कूट-कूट कर भरा था, हमेशा यही लगता था कि जब लड़के इस काम को कर सकते हैं तो वह क्यों नहीं…? साइकिल से लेकर स्कूटर और कार चलाना भी उसने सीखा था । आत्मविश्वास का ही फल था कि बी.ई. करने के तुरंत बाद नौकरी मिल गई थी पर विवाह के पश्चात् बच्चों की परवरिश में परेशानी होने के साथ-साथ पति कहीं और तथा वह कहीं और वाली समस्या ने नौकरी छोड़ने को मजबूर कर दिया । तब लगा था बच्चों को पढ़ाना, उचित परवरिश करना भी नौकरी से कम नहीं है…पर फिर भी व्यस्त रहने के अभ्यस्त मस्तिष्क ने खाली समय का सद्पयोग किया । घर रहते हुए शेयर ब्रोकर का काम प्रारंभ कर दिया…मार्केट देखकर पैसा लगाने लगी । कुछ समय पश्चात् उसे लगने लगा कि इस तरह से तो वह नौकरी से भी अधिक कमाने लगी है ।

कभी असंतुष्ट रहता मन संतुष्ट हो चला था पर अचानक हुए स्थानातंरण तथा यहाँ के माहौल ने न जाने क्यों असुरक्षा की भावना से घेर लिया था । पहले वह जहाँ न दिन देखती थी न ही रात…जब कभी आवश्यकता होती, कभी भी कहीं भी स्वयं ड्राइव करके चली जाती थी वहीं अब अकेले जाने में डर लगने लगा है…न जाने कैसा खौफ, दहशत मन में समाती जा रही है ।

वह अमित को चाहकर भी नहीं समझा पा रही थी कि अपनों के लिये स्त्री मन की चिंता उसे चैन से नहीं रहने दे रही है । जहाँ तक आत्मविश्वास की बात है वह तो ओस की गिरती उस बूंद के समान है जो गिरते समय यह सोच-सोच कर परेशान होती रहती है कि वह बचेगी या नहीं । यह बात अलग है कि कभी वह धरती में समाकर जीवनदान दे देती है तो कभी सीप में समाकर मोती बन जाती है ।

मन में अजीब सी कशमकश चल रही थी । शुभा के विवाह के लिये कानपुर जाना अवश्यांभावी हो गया था पर पिछले कुछ अनुभवों के कारण अकेले जाने की हिम्मत जुटा ही नहीं पा रही थी । पिछली बार जब वह कानपुर गई थी तब लौटते समय जम्मू पठानकोट एक्सप्रेस को गरबा रोड़ के पास रोक कर उपद्रवी तत्वों ने चार घंटे तक उत्पात मचाया था । गनीमत थी कि वह उस बोगी में नहीं थी पर रोने चीखने की आवाजें दूसरे डिब्बे में बैठे हुए भी दहशत पैदा कर रही थीं ।

लूटपाट थमने पर ट्रेन चली थी । अगले स्टेशन पर घायलों को मरहम पट्टी के लिये उतारा तो देखकर दिल दहल गया किसी के कंधे पर गोली लगी थी तो किसी के माथे पर चाकू का निशान था । एक औरत के तो कानों से खून बह रहा था…शायद उसके विरोध करने पर उन दहशतगीरों ने उसके झुमके खींच कर निकाले होगे । आश्चर्य तो इस बात का था कि दहशतगीरों की दहशतगिरी चलती रही और रेलवे सिक्यूरिटी दल के सिपाही दूसरे डिब्बे में बैठे बीड़ियाँ फूँकते रहे । तर्क था इतने लोगों के सामने हमारी क्या चलती कम से कम हमारी पहल पर अन्य बोगियों के बीच का दरवाजा बंद कर देने के कारण अन्य डिब्बे तो लुटने से बच गये…।

तबसे ट्रेन की यात्रा करने पर खौफ लगने लगा था…मन की बात अमित को बताने पर उन्होंने कहा,‘ तुम व्यर्थ परेशान हो रही हो, ऐसी घटनायें रोज-रोज थोड़े ही होती हैं…।’

सच है ऐसी घटनायें रोज-रोज नहीं घटती पर मन में एक डर तो बैठ जाता है…अपनी चिंता तो एक बार छोड़ भी दे पर यहाँ ऐसे माहौल में अमित को भी अकेले छोड़कर जाने का मन नहीं कर रहा था । क्रोध तो अमित पर भी यह सोचकर आ रहा था कि वह मेरे मन की व्यथा को क्यों नहीं समझ पा रहे हैं…? उन्हें यहाँ के माहौल में अकेला छोड़कर क्या मैं वहाँ चैन से रह पाऊँगी…? क्या वहाँ रहकर मुझे इनकी चिंता नहीं रहेगी…? छुट्टी नहीं है तो लीव विदाउट पे लेने से तो कोई नहीं रोक सकता, वही ले लें…। आखिर शुभा उनके भी तो भाई की लड़की है ।

क्या ऐसे समय भाई का हाथ बँटाना उनका कर्तव्य नहीं है…? ऐसे में मुझ पर ही अकेले जाने के लिये दबाव क्यों…?

यह एक निर्विवाद सत्य है कि पुरूष के मुँह से एक बार न निकल गया तो हाँ का प्रश्न ही नहीं उठता…। कभी-कभी अपने ही गढ़े आदर्श, नैतिकता, कर्तव्यपरायणता के साथ मिथ्या ओढ़ी आत्मनिर्भरता व्यक्ति को दंश देने लगती है । न जाने क्यों कुछ दिनों से संजना को ऐसा ही महसूस हो रहा था । दुख तो इस बात का था कि उसकी मनोव्यथा को समझे बिना बार-बार अमित का यह कहकर अकेले जाने का इसरार करना कि तुम तो हमेशा ही अकेले जाती रही हो तो फिर अब मना क्यों कर रही हो ? कहीं डर का सहारा लेकर कर्तव्य से तो मुख नहीं मोड़ना चाहती…?

सुनकर मन में हूक सी उठी…वाह रे पुरूष ! पच्चीस वर्षो के समर्पण का अच्छा सिला दिया…। सदियों से पुरूष ऐसे ही वाक्यों का सहारा लेकर नारी की अस्मिता से खेलता आया है । आखिर सारे रीति रिवाज, सारे कर्तव्य नारी के हिस्से में ही क्यों आ़ते हैं…? करे भी नारी, सुने भी नारी और भरे भी नारी…। पुरूष तो सदा से ही काम का बहाना बनाकर अपने कर्तव्यों से विमुख होता रहा है…। क्या कामकाजी स्त्री भी ऐसा कर सकती है…? नहीं, कभी नहीं…उससे तो पहले ही कह दिया जाता है भई नौकरी करनी है करो पर घर बाहर दोनों देखना होगा । घर की उपेक्षा सहन नहीं कर सकता…मानो नारी न हुई कोई मशीन हो गई…।

संजना की हिचकिचाहट के बावजूद अमित ने स्वर्णजयंती  एक्सप्रेस से उसकी टिकट बुक करा ही दी…आखिर वह दिन भी आ गया जब चलना था । मन में डर तो था ही पर कर्तव्यों के सम्मुख ओखली में सिर डालने को विवश हो गई थी ।

‘ वैसे तो डर की कोई बात नहीं है फिर भी इस मोबाइल के जरिए तुम सदा संपर्क में रहोगी ।’ अमित ने मोबाइल हाथ में पकड़ाते हुए कहा ।

‘ आप तो मोबाइल ऐसे पकड़ा रहे हैं जैसे युद्ध पर जाने से पहले पत्नियाँ पतियो के हाथों में बंदूक देकर विदा करती हें ।’ संजना ने चिढ़ते हुए कहा । दरअसल क्रोध में या अव्यवस्थित मनःस्थिति के कारण मोबाइल घर ही छोड़ आई थी पर अमित को याद रहा…थोड़ी चिंता भली लगी ।

‘ क्या उपमा दी तुमने…बंदूक और मोबाइल…वाह जबाव नहीं तुम्हारा…!!’ कहकर खिलखिला अमित हँस दिये ।

उस समय अमित की हँसी भी चुभन पैदा कर रही थी…मन कह रहा था कहूँ क्यों अंधे कुएं में ढकेल रहे हो…पर कहने से कोई फायदा नहीं था क्योंकि उसे पता था अभी वह कुछ कहे , उनके कानों में जूं भी नहीं रेंगेगी । वैसे भी एक ही बात बार-बार दोहराने से क्या फायदा…? शायद दोष पुरूष का नहीं हम स्त्रियों का ही है… आत्मनिर्भर बनकर सदा हर काम स्वयं करना चाहती हैं । ऐसी स्थिति आने पर यही तो होगा…।

ट्रेन चल पड़ी थी…। ‘ शुभ यात्रा की शुभकामना के साथ ’ अमित ने उसे विदा किया था । उनके हिलते हाथ का हाथ हिलाकर जबाव देती रही जब तक कि वह आँखों से ओझल हो गये । मन के भय को दूर करने के लिये बैग से किताब निकाल कर पढ़ने लगी…अकेले में किताबें ही व्यक्ति की अच्छी साथी होती हैं यह निर्विवाद सत्य है… कम से कम मनमस्तिष्क को भटकने से तो रोकती हैं । स्टेशन आते गये और जाते गये । पढ़ते-पढ़ते जब आँखें बोझिल होने लगी तब घड़ी की ओर निगाह डाली, वह नौ बजा रही थी । बैग से खाना निकाला, खाकर सोने की तैयारी करने लगी । अभी झपकी लगी ही थी कि बगल के केबिन से किसी के कराहने की आवाज आने लगी । उठकर देखा, एक औरत दर्द से कराह रही है । ध्यान से देखा तो पाया कि वह गर्भवती है । उसका पति बगल में बैठा उसे सांत्वना दे रहा है तथा अन्य सहयात्री विवशता भरी आँखों से उसे देख रहे हैं ।

अगला स्टेशन आने में लगभग चार घंटे की देरी थी । संजना ने जाकर उसे सांत्वना दी । उसकी आत्मीयता भरी बातें सुनकर उसके पति की आँखों से आँसू निकलने लगे । मन पर काबू करते हुए उसने कहा, ‘ अभी तो महीने भर की देर थी मेम, पर पता नहीं कैसे दर्द शुरू हो गये…?’

पहले तो लगा फाल्स पेन होगा पर दर्द की तीव्रता देखकर मन की धारणा गलत सिद्ध होती प्रतीत हो रही थी । साथ ही साथ यह संजना को भी लगने लगा था कि सिर्फ सांत्वना देने या सिर्फ हाथ पर हाथ धरे बैठे रहने से कुछ नहीं होगा । इस बीच यह तो पता चल ही चुका था कि उन्हें भी कानपुर जाना है । कानपुर आने में अभी दस घंटे शेष हैं । इतनी देर में न जाने क्या से क्या हो सकता है…इस बात का उनके साथ-साथ उसे भी एहसास होने लगा था ।

अचानक एक विचार आया और संजना ने अटैन्डेंट से जाकर बात की तथा उससे ट्रैन में सफर करने वाले यात्रियों की सूची माँगी । पहले तो वह हिचकिचाया पर मंतव्य समझाने पर उसने टी.टी से जाकर बात की । सुनकर टी.टी. सहायता के लिये आगे आया । उसने सूची सामने कर दी…सूची में अगली बोगी में ही डा0 रीता सक्सेना नाम देखकर जान में जान आई । संजना टी.टी के साथ बीच के मार्ग से उस बर्थ पर गई । मन ही मन प्रार्थना कर रही थी कि वह मेडिकल प्रेक्टीशनर ही हो न कि कोई रिसर्च स्कालर…। थोड़ी हिचक के साथ उस बर्थ पर सोती महिला को उठाया । पहले तो इस तरह डिस्टर्ब करते देख वह झुंझलाई पर जब उसने अपनी बात उसके सामने रखी तो वह सहायता के लिये तैयार हो गई । वह मेडिकल डाक्टर ही थी । किसी सेमिनार में भाग लेने दिल्ली जा रही थी ।

वह तुरंत ही उसके साथ आई तथा पेशेन्ट को देखने लगी । उसे ऐसा करते देखकर पीड़ित महिला बबीता का पति विजय पहले चौंका किंतु जब वस्तुस्थिति पता चली तब उसने उसे धन्यवाद देते हुए संतोष की सांस ली ।

डाक्टर रीता ने चैकअप करने के पश्चात् कहा कि कुछ ही समय में डिलीवरी हो सकती है । प्रीमैच्योर डिलीवरी है…वह भी पहली, अतः सावधानी भी आवश्यक है । उसके पास डिलीवरी के लिये आवश्यक उपकरण भी नहीं थे, वह समझ नहीं पा रही थी कि क्या करे…?

‘ क्या बात है डाक्टर ? ’ उसे असमंजस में पड़ा देखकर संजना ने पूछा ।

‘ मेरे पास कोई उपकरण तो नहीं है पर यदि गर्म पानी और स्टरलाइज किया हुआ चाकू मिल जाए तब भी मैं काम चला लूँगी अगर कोई अन्य कांप्लीकेशन पैदा न हुआ तो…।’ उसने कहा ।

‘ इनका इंतजाम मैं करा देता हूँ ।’ डाक्टर की बात सुनकर टी.टी. ने कहा तथा अटैन्डेंट को निर्देश देते हुए कहा, ‘पेंटरी कार में जाकर एक भगौना गर्म पानी तथा एक चाकू स्टरलाइज करके ले आओे…।’

‘ सर, रात के ग्यारह बज रहे हैं…वे लोग तो सब समेट कर सो गये होंगे…।’ अटैन्डेंट ने उत्तर दिया ।

‘ तो जाकर जगाओ…और जल्दी से जल्दी गर्म पानी और चाकू लेकर आओ…। टी.टी ने आदेश दिया ।

‘ चाकू स्टरलाइज करने के लिये उसे कम से कम दस मिनट गर्म पानी में खौलाना होगा ।’ डॉक्टर रीता ने कहा ।

‘ आप चिंता न करें मैं अपनी देख रेख में करवाती हूँ ।’ संजना ने कहा । 

इसके साथ ही संजना भी अटैंडेंट के साथ चली गई ।  साथ ही वह मन ही मन प्रार्थना कर रही थी कि सब कुछ नारमल हो तथा कोई कांप्लीकेशन न हो…। इस बीच डाक्टर के आदेशानुसार उस केबिन को चादर से घेर कर आपरेशन रूम बनाया गया । दर्द बढ़ने के साथ महिला की चीखें तेज होती जा रही थीं…डाक्टर उसके सिर पर हाथ फेरकर दिलासा देने की कोशिश कर रही थी ।

दो घंटे की अथक मेहनत के पश्चात् सेफ डिलीवरी हो गई…सबने चैन की साँस ली…डाक्टर ने उसे दवा देकर सुला दिया तथा बेबी को नहलाकर साफ कपड़े में लपेट कर उसके पास ही सुला दिया ।

उस समय डाक्टर रीता ने डाक्टर और नर्स दोनों के काम बखूबी निभाये । जब तक डाक्टर अंदर रही विजय पूरे समय बाहर मौन खड़ा रहा जब डाक्टर जाने लगी तो उसने उसके हाथ में एक पैकेट पकड़ाते हुये कहा, ‘ डाक्टर साहब यदि आज आप नहीं होती तो शायद आज का दिन मेरी जिंदगी का सबसे काला दिन होता…समझ नहीं पा रहा हूँ कि आपको कैसे धन्यवाद दूँ …?’

‘ यह क्या है ? ’ डाक्टर ने पैकेट देखकर पूछा ।

‘ डाक्टर साहब, आपकी फीस…इस समय मेरे पास बस इतना ही है ।’

डोंट बी सिली…यह मेरा क्लीनिक नहीं है । मैंने तो बस अपना कर्तव्य निभाया है । अगर धन्यवाद देना है तो इनको दो…।’ डाक्टर रीता ने संजना की तरफ देखते अपनी बात जारी रखते हुए पुनः कहा,‘ हो सके तो इतना वचन दो कि तुम इसे कभी कोई दुख नहीं पहुंचाओगे क्योंकि आज यह औरत तुम्हारे बच्चे की माँ बनते हुए उस पल से गुजरी है जिसे एक आदमी कभी महसूस ही नहीं कर सकता…। आज उसका पुनर्जन्म हुआ है । बच्चा प्रीमैच्योर है इसलिये इसकी विशेष देखभाल की आवश्यकता है ।’ डाक्टर रीता ने विजय की पीठ थपथपाते हुए कहा ।

बबीता मायके डिलीवरी के लिये ही जा रही थी पर यात्रा के बीच में ही उसे पेन शुरू हो गये अगर डाक्टर रीता ट्रेन में सफर न कर रही होती तो न जाने क्या होता…? डाक्टर रीता दो तीन बार उसे देखने भी आई…।

डाक्टर रीता का व्यवहार देखकर संजना को कहीं पढ़ा यह वाक्य बार-बार याद आ रहा था…संसार के विषाक्त सागर मे कुछ सीपियाँ ऐसी भी हैं जो शर्म से सिर झुकाने की बजाय इज्जत से सिर झुकाने योग्य हैं…हमें ऐसी सीपियों को ही आदर्श बनाना चाहिए ।

कानपुर आने पर संजना उतरने की तैयारी करने लगी तो विजय ने उसके पैर छूते हुए सिर्फ इतना कहा,‘ दीदी, आज अगर आप नहीं होती तो शायद मैं बबीता को खो देता ।’

ऐसा क्यों कहते हो, मैं न होती तो कोई और होता…।’

‘ यह तो कहने की बात है दीदी, यूँ तो जिंदगी के सफर में बहुत से लोग मिलते हैं पर कुछ ही लोग दूसरों की सहायता के लिये आगे आते हें ।’

कोई रिश्ता न होते हुए भी कुछ ही घंटों में अनजाना सा रिश्ता कायम हो गया था । अपना फोन न0 देते हुए उसने मेरा मोबाइल न0 लिया । कुछ दिनों पूर्व इस यात्रा को लेकर इतनी सशंकित थी, इसे निर्विघ्न पूरा होते देख जहाँ मन में खुशी हो रही थी वहीं अपने छोटे से प्रयास से एक युगल के चेहरे पर छाया संतोष सुकून भी दे रहा था । इसी बीच कानपुर स्टेशन आ गया सुमित और दीपाली को देखकर वह नीचे उतरी । बातों में इतना मशगूल हुई कि उस जोडे के बारे में भूल ही गई ।

रात्रि को खाना खाते हुए संजना ट्रेन वाली घटना सबको बता ही रही थी कि टी.वी. पर एक न्यूज फ्लैश हुई…पुष्पक एक्सप्रेस में कल एक महिला के साथ सामूहिक बलात्कार हुआ । एक दो लोगों ने विरोध किया तो उन अपराधियों ने उसे ट्रैन से बाहर फेंक दिया । उनमें एक मर गया तथा दूसरे को कुछ चोटें आई हैं । उस महिला की हालत गंभीर है, उसे इलाज के लिये निकटस्थ अस्पताल ले जाया गया है ।

जब यह घटना घटित हो रही थी तभी उसी डिब्बे में तैनात रेलवे पुलिस के जवानों से किसी ने शिकायत की तो उन्होंने कहा ,‘ हमारी डियूटी खत्म हो गई है, इस समय हम कुछ नहीं कर सकते । अगले स्टेशन से नये लोग आयेंगे तब शिकायत दर्ज करवाइयेगा ।’

सारी घटना का कवरेज ट्रेन के डिब्बे के साथ पीड़िता का धुंधला चेहरा दिखाने के साथ-साथ, तरह-तरह के प्रश्न पूछ कर भी किया जा रहा था । दरिन्दे तो दरिंन्दे पर पुलिस वाले भी क्या इस कांड में बराबर के दोषी नहीं है…? बार-बार यही प्रश्न मन को मथे जा रहा था ।

इस तरह के न्यूज कवरेज को देखकर कुछ दिनों से उसे भी लगने लगा है कि ट्रेन तो ट्रेन आज अकेली महिला कहीं सुरक्षित नहीं है । चाहे वह विद्या का घर स्कूल, कालेज ही क्यों न हो ? यहाँ तक कि परिचित का घर भी उसका आश्रयस्थल नहीं बन सकता । अब तो उम्र से भी इन नामर्दो का कोई वास्ता नहीं रहा है । दो वर्ष की बच्ची हो या सत्तर वर्ष की औरत, उनको सिर्फ अपनी हैवानियत की क्षुधा पूर्ति के दमन के लिये साधन चाहिए…। हद हो गई है दरिन्दगी की…यत्र नारीयस्तु पूज्यन्ते, रमयन्ते तत्र देवता । ऐसे लोग शायद यह ब्रह्म वाक्य भूल चुके हैं । वे यह भी भूल गये हैं जिसने उन्हें नौ महीने कोख में रखा वह नारी देह ही थी । जिनके खून से उनका शरीर बना है वह भी एक नारी थी । पता नहीं कैसी मानसिकता है कि ऐसा घिनौना कृत्य करते हुए उन्हें जरा भी अपनी माँ या बहन का ख्याल नहीं आता…। उन्हें नैतिकता का जरा भी भान नहीं होता, उनकी अपनी अनैतिकता भी उन्हें दंशित नहीं करती, कोई अपराधबोध नहीं कचोटता…। 

ऐसे अमानुषिक लोगों के लिये तो औरत मात्र देह ही तो है…सारे रिश्ते नातों से परे सिर्फ देह…। जब अपनी पौरूषता दिखानी हो, या बदला लेना हो तो कुचल डालो देह को उसकी अस्मिता को । ऐसे लोग मानसिक विकृति के शिकार नहीं तो और क्या है…? वरना दूसरे को दुखी कर एक आम इंसान सुख का अनुभव कैसे कर सकता है…? वैसे भी किसी को नीचा दिखाने के लिये क्या इंसान को स्वयं नहीं गिरना पड़ता ? किसी की अस्मिता से खिलवाड़ करते हुए क्या उसे अपने आत्मसम्मान की बलि नही चढ़ानी पड़ती ? यदि नहीं तो ऐसी मनोवृत्ति वाला इंसान, इंसान नहीं हैवान है…। ऐसा इंसान न केवल स्वयं के परिवार के लिये वरन् समाज के लिये भी कोढ़ है…इन्हें कड़ी से कड़ी सजा मिलनी ही चाहिए ।

आश्चर्य तो यह था पिछले चौबीस  घंटे से यह खबर बार-बार टी.वी. पर दिखाई जा रही थी पर डिलीवरी वाली घटना का कोई जिक्र नहीं था । मन में अजीब सी हलचल मची थी…मीडिया सिर्फ नकारात्मक खबरों को ही क्यों प्रचारित करता है । मन में बार-बार यह विचार आ ही रहे थे कि बीनू सुमित की छोटी लड़की ने आकर कहा,‘ बड़ी माँ, कल आप जिस घटना का जिक्र कर रही थी, वह भी टी.वी. में आ रही है…।’

‘ कहाँ…?’ संजना ने टी.वी. की ओर देखते हुए पूछा ।

‘ वह नीचे लिखकर आ रहा था…ध्यान दीजिए थोड़ी देर बाद फिर आयेगा ।

थोड़ी देर पश्चात लिखकर आया स्वर्णजयंती एक्सप्रेस में डिलीवरी… उसी ट्रेन में यात्रा कर रही डॉक्टर, रेलवे स्टाफ तथा यात्रियों की तत्परता के कारण जच्चा बच्चा सकुशल…।

इतनी अच्छी घटना के लिये आधा मिनट भी नहीं और उस घटना के लिये पूरे पाँच मिनट…वह भी हर घंटे के अंतराल पर…पहली घटना तो हर घर में पहुँच गई जबकि दूसरी को कोई पढ़ भी पाया या नहीं…।

समझ में नहीं आता कि आज मीडिया इतना संवेदनहीन और नकारात्मक क्यों हो गया है…!! वह क्यों ऐसी हर घटना को बढ़ा चढ़ाकर पेश करता है…!! ऐसा करके क्या वह पीड़िता को न्याय दिलवा पाता है…? क्या ऐसा करके ऐसी मुसीबत की मारी महिलाओं की परेशानी बढ़ाने में हिस्सेदारी नहीं निभा रहा है…? उसे इतना भी भान नहीं है कि नकारात्मक खबरें समाज में नकारात्मक उर्जा ही फैलाती हैं…वरना आज छह सात वर्ष के बच्चे के मुख से बलात्कार शब्द सुनने को नहीं मिलता !! उनका मासूम प्रश्न सुनकर समझ में नहीं आता क्या उत्तर दें…?

उचित उत्तर प्राप्त न होने पर, वे स्वयं ही इस शब्द का अर्थ खोजना चाहते हैं । पता नहीं वे अर्थ खोज भी पाते हैं या नहीं पर उनके मासूम चेहरों को पढ़ने से इतना अवश्य पता चल जाता है कि कोई ऐसी घिनौनी बात अवश्य है जिसके लिये लड़की को मुँह छिपाना पड़ता है वहीं लड़के को जेल हो जाती है ।

वहीं दूसरी ओर युवावस्था में प्रवेश करते युवाओं तथा अन्यों को यह बात आम लगने लगती है…खून नहीं खौलता उनका । वैसे भी दिन रात एक जैसी ही घटनाओं को देखकर भला किसी को क्या फर्क पड़ेगा ? दरिंदों के लिये तो यह मात्र जिस्मानी खेल है जबकि दूसरों के लिये मात्र एक घटना । एक्का दुक्का घटनाओं को छोड़ दें तो ऐसे अपराध करने वालों को क्या कभी कोई सजा मिल पाती है !! फिर डर क्यों ?

‘ भाभी दुल्हन का बक्सा लगवा दीजिये…कल से सारे मेहमान आने प्रारंभ हो जायेंगे तो फिर समय नहीं मिलेगा ।’ दीपाली ने पास आकर कहा ।

‘ चलो…।’ कहते हुए उसने मन में उमड़ते घुमड़ते विचारों को झटका…आखिर कब तक इस घटना को सोच-सोचकर दुखी होती रहेगी…।

संसार सागर में अनेकों घटनायें होेती रहती है अच्छी भी और बुरी भी…किसी घटना से न बहुत खुश होना चाहिए और न ही घबरा कर पीछे हटना चाहिए वरन् अच्छी बुरी घटनाओं से सबक लेते हुए इंसान को अपनी जीवन यात्रा जारी रखनी चाहिए क्योंकि वक्त किसी के लिये नहीं रूकता । वहीं यह भी निर्विवाद सत्य है कि वक्त ही दिल के बड़े से बड़े जख्मों को भर देता है । जो वक्त की राह में अपने निशान छोड़ जाता है वही इतिहास बनाता है…।

अमित भी आ गये थे…विवाह भलीप्रकार संपन्न हो गया था । बिटिया को विदा कर लौटने की तैयारी कर ही रही थी कि बीनू ने कहा,‘ बड़ी माँ आपसे कोई मिलने आया है ।’

बाहर जाकर देखा तो ट्रेन वाला विजय खडा है…उसे देखते ही उसने उसके चरण स्पर्श किये…

‘ कैसे हो विजय, बबीता और बेबी ठीक है न…।’

‘ बस आपकी कृपा है दीदी, उस दिन अगर आप नहीं होती तो…।’

‘ फिर वही बात, मैंने तो सिर्फ अपना कर्तव्य निभाया था…।’ संजना ने अपनत्व से कहा ।

‘ यह सब कहने सुनने में ही अच्छा लगता है दीदी, पर सच तो यह है सच्चे मन से सहायता कोई बिरला ही कर पाता है…।’ सिर झुकाकर उसने कहा ।

‘ तुम्हें मेरा यहाँ का पता कैसे मिला…?’ संजना ने बात को बदलने की गर्ज से पूछा ।

‘ दीदी, उस दिन जब हम ट्रेन से उतरे तो हमें लेने आया बबीता के भाई ने एक सज्जन की ओर इंगित करके कहा , ‘ वह देखो वह हैं हमारे जनरल मैनेजर…।’

‘ जब मैंने उधर नजर घुमाई तो आपको उनसे बातें करते पाया । बस वह एक छोटी सी मुलाकात आपके पास पहुँचने का जरिया बन गई । आपसे बिना पूछे आपसे मिलने चला आया । सारी दीदी…।’

‘ सारी की क्या बात है !! अच्छा किया मिलने चले आये । तुम कहाँ के रहने वाले हो ?’ परिचय का सिलसिला आगे बढ़ाते संजना ने पूछा ।

‘ रहने वाला तो हजारीबाग का हूँ पर काम बोकारो स्टील प्लंाट में कर रहा हूँ । यहाँ बबीता के माता-पिता उसके भाई के साथ रहते हैं ।’

इस बार उसने मेरा पता लेने के साथ अपना पता भी दिया तथा कहा, ‘बबीता भी आपसे मिलना चाहती थी, इस समय तो वह आपसे मिलने नहीं आ पाई पर आपसे मिलाने उसे अवश्य लाऊँगा ।’

‘ अवश्य आना…तुम दोनों को एक साथ देखकर मुझे अत्यंत खुशी होगी ।’

तब तक चाय आ गई । चाय नाश्ते के पश्चात् जब वह जाने लगा, तब विवाह का घर होने के कारण उसे भी एक डिब्बा मिठाई का दिया । उसने धन्यवाद देते हुए डिब्बा पकड़ तो लिया पर लेते हुए चेहरे पर झिझक स्पष्ट दिखाई दे रही थी ।

‘ प्लीज दीदी, मना मत करियेगा, एक छोटे भाई का बड़ी बहन को एक छोटा सा तोहफा है ।’ जाते समय झिझकते हुए उसने उसके हाथ में एक छोटा सा पैकेट पकड़ाते हुए कहा ।

उसके मना करने के बावजूद विजय के बार-बार आग्रह करने के कारण उसे उपहार स्वीकार करने के लिए बाध्य होना पड़ा । वह चला गया था…पैकेट खोल कर देखा तो उसमें एक सुंदर सी अँगूठी थी । संजना समझ नहीं पा रही थी इतना मँहगा उपहार स्वीकार कर उसने अच्छा किया या बुरा…पर इतना अवश्य लगने लगा था कि वह पिछले दो वर्षो से व्यर्थ भय के साये में जी रही थी । अच्छे और बुरे इंसान हर जगह, हर प्रांत में हैं फिर अनावश्यक डर और अविश्वास क्यों…?

विजय की सहृदयता से उसके साथ एक अनोखा रिश्ता कायम हो गया था । यात्रा तो उसने अनेकों की थी पर इस यात्रा ने उसे एक नई अनुभूति, प्रेम और अपनत्व का अनोखा एहसास दिया था । मन का धुँधलका छँटने के साथ ही खोया आत्मविश्वास लौटने लगा था…।

1 thought on “कहानी: अनोखा एहसास

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *