प्रश्न

जीवन ही अब खत्म हुआ या
मैंने जीना छोड़ दिया है
मैंने प्रश्नों की पुस्तक में
एक प्रश्न ये जोड़ दिया है

तुम शीशे के बने हुए थे
मैं थी पत्थर की इक मूरत
बोलूं भी गर कौन ये माने
तुम ने मुझ को तोड़ दिया है

आधी ही हूँ साधू अब मैं
आधा मोह अभी तक बाकी
कब छूटेगी याद तुम्हारी
बाकी सब कुछ छोड़ दिया है

जो पाया पूरा कब पाया
प्यास अधूरी कब बुझती है
मैंने चाँद अगर मांगा तो
तुम ने तारा तोड़ दिया है
तुम भी जीवन जैसे निकले
मुझ को प्यासा छोड़ दिया है


मेरे आँसू मेरी प्यास

मेरी आँखें बरसती हैं
बरसती हैं बरसने दे
मेरा दिल गर तरसता है
इसे यूं ही तरसने दे

मुझे सपने नही देना
अंधेरी रात होने दे
यहाँ सावन ही रहने दे
अभी बरसात होने दे

तेरी दुनिया अगर तुझ को
कभी माँगे चली जाना
मैं तेरी राह भी शब भर
अगर देखूं नही आना

मेरे हाथों से मेरे खुद
सभी मैं ज़ख़्म सी लूँगा
जो दिल में प्यास जागेगी
मेरे आँसू ही पी लूँगा

मगर तुझ से कभी तेरे
नहीं लम्हे मैं माँगूँगा
नहीं मैं राह देखूँगा
मैं पूरी रात जागूँगा

किसी दिन ज़िंदगी मुझ पे
कुछ ऐसे भार डालेगी
मैं सारी रात रोऊँगा
सहर ये मार डालेगी

5 thoughts on “कवि: अनिल पाराशर “मासूम”

  1. अनिल मासूम जी की काव्य शैली मार्मिक व सुंदर शब्दावली को प्रकाशमान करती है। दोनों रचनाएँ उत्तम श्रेणी की हैं👏👏👏

    गीतांजलि गुप्ता
    नई दिल्ली।

  2. दिल को छूने वाली कविताएँ,बेहद खूबसूरत, जो दिल में प्यास लगेगी,मेरे आंसू ही पी लूंगा,वाह क्या बात है,अनिल जी को शुभकामनाएं इतनी संवेदनशील रचनाओं के लिए

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