कवयित्री: सुमन बाजपेयी
यादों की गंध
आज पुरानी यादों के सारे लिफाफे खोल डाले
कुछ खत मिले कुछ तसवीरें
उन तसवीरों में अपने लिए तुम्हारी आंखों से झलकते
प्यार को मैंने अंजुरियों में भर लिया।
आज तुम्हारी मुसकुराहटों की सारी किताबें खोल डालीं
तुम्हारी शरारतों की इबारत मिली
तुम्हारी बेपनहा मोहब्बत के एहसास की छुअन से
मैंने अपने जिस्म को सिहरने दिया।
आज भीगे मौसम की हर बूंद को मैंने
अपने मन की नाव में भर लिया
तुम्हारी मुझ पर समुद्र किनारे बैठ लिखी कविताएं
मेरी अंगुलियों के पोरों में समा गईं।
जी उठी मैं कुछ पलों के लिए
और फिर घबराकर बंद कर दिए
सारे लिफाफे, पुलिंदे और कविताएं
बड़े से एक संदूक में।
फिर बनाया एक और लिफाफा और उसमें समेट दिए
तुमसे जुदा होने के गम
और दबा दिया उसे संदूक में सबसे नीचे।
मैं नहीं याद रखना चाहती तुमसे अलग होने के एहसास को
हैं मेरी पास तुम्हारी यादों के सुनहरे पल
उन्हें ही पिरो कर अपने आज में
मैं गूंथ लूंगी तुम्हारे प्यार की माला
पहनूंगी जब उसे
तो तुम्हारी यादों की तरह
तुम्हारे प्रेम की गंध भी मुझसे लिपट जाएगी।
कभी-कभी
कभी-कभी जिंदगी में ठहराव आ जाता है
क्या ठहराव आना अच्छा नहीं है?
पल-पल समय को सरकते देखना
और जिंदगी की सुबह-शाम को
यूं ही ढलते देखना
फुर्सत को कभी-कभी यूं ही बेवजह ओढ़ना
क्या अच्छा नहीं है?
हां, तब उगते सूरज को देखने का
समय मिल जाता है
हां, तब आकाश में फैली चांदनी को देखने का
समय मिल जाता है
हां, तब फूलों की पंखुड़ियों का हौले से
खुल जाना दिख जाता है
हां, तब चिड़ियों की चहचहाहट सुनाई
दे जाती है
हां, तब तुम्हारी यादें समुद्र की लहरों सी
उफनती हुई चली आती हैं
तब उस रुकी, ठहरी हुई जिंदगी का
हर कतरा मानो मेरा होता है
उन पलों को जी पाने का अधिकार मेरा होता है
पल-पल समय को सरकते देखना
तब कितने सुखद एहसास से भर जाता है
मैं…सिर्फ मैं…और मेरी ठहरी हुई जिंदगी…
न कोई अवरोध, न कुछ पाने की दौड़
न कुछ खोने का डर…
क्या ठहराव आना अच्छा नहीं है?
घर
मेरी तरह घर की दीवारें भी बूढ़ी हो रही हैं
मेरी तरह वे भी तेरे बचपन की छापों को चिपटाए,
तेरे आने की राह तक रही हैं
तेरे पैरों की थाप सुनने को बेचैन है घर का फर्श
रसोई में गैस पर चढ़ी दाल
उबल-उबल कर कब की ठंडी हो चुकी है
गर्म तेल कड़ाई में पूरियां छनने का इंतजार कर रहा है
रसोई की स्लैब पर चक्कर काट रहा है सवाल कि
कब आकर भरवां करेले भरते मेरे हाथों से
सूखे मसाले खाने की जिद करेगा
बालकनी में लटका झूला बस हलका सा कभी-कभी हिल जाता है,
उदास है—तेरी शैतानियां बहुत याद आती हैं उसे।
हर कोना,
तेरी खिलखिलाहटों, तेरे गुस्से, तेरे रूठ जाने के क्षणों को समेटे
यूं ही उदास बैठा है
हर बेजान चीज
चाहती है कि तु उसे छू भर ले
मेरे गले में बांहें डाल
अपनी बात मनवाने की तेरी स्मृतियां
यहां-वहां डोलती रहती हैं
इस कमरे से उस कमरे
उस कमरे से बालकनी तक
तेरी अंगुलियों की दस्तक सहेजे दरवाजा
बार-बार खुल जाता है विश्वास के झोंके से
कि शायद दौड़कर सीढ़ियां चढ़ता हुआ
तु उस तक पहुंच जाएगा।
याद है, तुझे डोरबेल बजाने में कितना आनंद आता था
आते-जाते बेवजह उस पर अंगुली रख देता था
अब जब भी डोरबेल बजती है
तो उम्मीद हिलोरें लेने लगती है कि
शायद तु बाहर खड़ा है।
तेरा मुझे ही नहीं,
इस घर को भी है इंतजार
भीतर-बाहर ढूंढता है तुझे घर
तेरी आहट वह भी तो पहचानता है
कितना समय बीत गया है,
तेरी अंगुलियों की थाप
तेरे आने की आहट
मुझे सुनाई नहीं दी
या तु ही भूल गया है
दौड़ना, भागना, शैतानी करना
और मेरे गले से लग
कहानी सुनाने की जिद करना।
पैर तेरे कमरे में जाकर ठिठक जाते हैं
तेरे खिलौने कुछ पूछते नहीं
बस मुझ पर नजरें गड़ा देते हैं।
रोज कमरा चमका कर
धूल की परत को हटाकर
मैं कुछ किरणें उम्मीद की बटोरने की कोशिश करती हूं
दीवाली पर ढेर सारे दीए भी लगाती हूं
फिर भी खामोशियों के अंधेरों से न मैं निकल पा रही हूं
न तेरा घर
खड़ी है तेरे आने की आस व्याकुल-सी
द्वार पर।
पल-पल इंतजार करती मैं
और तेरा घर।
ख़्वाब
ख्वाब तो बस ख्वाब होते हैं
ख्वाबों के ना कमरे होते हैं ना दरवाजे
ख्वाबों की ना खिड़कियां होती हैं ना जालियां
ख्वाबों के बस शीशे होते हैं
जो कभी धूप की तपिश सहते हैं
तो कभी बारिश की नमी
कभी हवा के थपेड़े सहते हैं
तो कभी अपनी ही चटकन की चुभन
जागती-सोती आंखों में पलते ये ख्वाब
कब सच होते हैं
ख्वाब तो बस ख्वाब होते हैं ।
प्यार है
अगर लोगों के बीच भी तुम्हें
मेरी याद आए तो समझ लेना यह प्यार है
अगर कोलाहल में भी तुम्हें
मेरी आवाज सुनाई दे तो समझ लेना यह प्यार है
अगर आईने के सामने खड़े होने पर
तुम्हें मेरा अक्स दिखाई दे
तो समझ लेना यह प्यार है.
अगर गुनगुनाते हुए मेरा नाम
तुम्हारे होंठों पर आ जाए
तो समझ लेना यह प्यार है