इतिहास से अदृश्य स्त्रियाँ

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डॉक्टर कुसुम त्रिपाठी

महादेवी वर्मा ने ठीक ही लिखा है, “युगों के अनवरल प्रवाह में बड़े-बड़े साम्राज्य बाह गये, संस्कृतियाँ लुप्त हो गई, जातियाँ मिट गई, संसार में अनेक असम्भव परिवर्तन सम्भव हो गये। परन्तुभारतीय स्त्रियों के ललाट में विधि की वज्रलेखनी से अंकित अदृष्ट लिपि नहीं घुल सकी।”१

ज्यादातर परम्परागत इतिहासकारों ने पुरुष सत्ता के चौखट में कार्य करने वाले इतिहासकारों ने स्त्रियों के इतिहास की खोज करने की जरूरत ही महसूस नहीं की। इस जमात के इतिहासकारों ने समाज के दबे-पिछड़े पददलित मनुष्य के गुटों के इतिहास को भी अदृश्य रखा। परम्परागत तथा पुरुषों द्वारा लिखे गये इतिहास में स्त्रियाँ और दलित दोनों अदृश्य रहते है। जैसाकि प्रसिद्ध स्त्रीवादी चिंतक पुष्पा भावे ने कहा है – “यह विचार, किस विचार प्रक्रिया द्वारा आया, यह समझना आवश्यक है। हमेशा से इतिहास लेखन में कुछ अपवाद को छोड़कर, इतिहास लेखन सत्ता और सत्तातर के बीच बँट गया। जो केंद्र में सत्तारूढ़ पक्ष है, उनका इतिहास लिखा गया। इस कारण सत्ता से बाहर रहने वाले सभी सामाजिक घटकों को इतिहास में अदृश्य कर दिया गया।”२ 

जब भारत में आज से तीन हजार वर्ष पहले मनुस्मृति की रचना की गई, तब दलितों और स्त्रियों को शिक्षा के अधिकार से वंचित कर दिया गया। दोनों ही सामाजिक स्तर पर दास/दासी कहलाये। दोनों को वैदिक पाठ पढ़ने-सुनने पर पाबंदी लगाई गई और भूल से यदि कोई सुन भी ले, तो उनके कान में पीसा काँच डालने का दण्ड विधान रखा गया। दोनों जब पढ़-लिख ही नहीं सकते थे, समाज में दोयम स्तर का जीवन-जी रहे थे। उन्हें ‘मानव’ के केटेगरी में माना ही नहीं जाता था। 

१. श्रृंखला की कड़िया – महादेवी वर्मा, भारती-भंडार प्रेस, प्रयाग पृ. २१ 

२. जब स्त्रियों ने इतिहास रचा – कुसुम त्रिपाठी की पुस्तक की भूमिका, नवजागरण प्रकाशन, नागपुर, पृष्ठ – १

शिक्षा के अभाव में अनपढ़ अंधविश्वासी दोनों ही बने रहे।ऐसे में दोनों अपना इतिहास लिखते ही कैसे ? ब्राह्मणवादी मनुस्मृति पर आधारित व्यवस्था में स्त्रियों की छवि देवी सीता, सावित्री जैसी त्यागी, बलिदान, आदर्शवादी, एकनिष्ठ, पतिव्रता पत्नी के रूप में रही।

मनुस्मृति में लिखा गया – “स्त्री को बचपन, जवानी, बुढ़ापे में क्रमश: पिता, पति और पुत्र से वियुक्त (अलग रहकर स्वतंत्र) रहने की इच्छा नहीं करनी चाहिए क्योंकि उनके अभाव में स्त्री दोनों (पिता और पति) के वंशों को निन्दित कर देती है।”१ आगे लिखा है – “स्त्रियों के लिए पृथक (पति के बिना) यज्ञ नहीं है और पति की आज्ञा के बिना व्रत तथा उपवास नहीं है। पति के सेवा से ही स्त्री स्वर्ग लोक में पूजित होती है।”२ ‘मनुस्मृति’ विश्व की प्राचीनतम न्यायायिक और सामाजिक व्यवस्था है और यह इतनी ठोस है कि भारतीय संविधान और हमारी हिन्दू सामाजिक व्यवस्था आज भी इसी पर आधारित है। यही कारण है कि ब्राह्मणवादी इतिहासकारों ने स्त्रियों तथा दलितों के इतिहास को इतिहास के पन्नों से अदृश्य कर दिया।  

प्रारम्भिक भारत में स्त्रियों की स्थिति से सम्बन्धित सामग्री की गम्भीर सीमाएँ हैं। १९ वीं सदी में भारत और इंग्लैण्ड के बीच सांस्कृतिक टकराव के संदर्भ में राष्ट्रवादी इतिहास लेखन की शुरुआत हुई। इसी टकराव ने प्रारम्भिक भारत में महिलाओं की स्थिति पर लेखन की दिशा निर्धारित की थी। जेम्स मिल की कृति ‘ब्रिटिश भारत का इतिहास’ में हिंदू सभ्यता की बर्बरता को हिंदू स्त्री की दयनीय अवस्था में स्थापित किया। इसी तरह विसेंट स्मिथ सिंड्रोम की आम राय यह थी कि जो कुछ भी भारतीय है, वह खराब और निकृष्ट है। प्रसिद्ध स्त्री इतिहासकार उमा चक्रवर्ती ने कहा – “प्राचीन भारत में महिलाओं की स्थिति पर लिखने वाले इतिहासकारों ने इसी तर्क को उल्टा करके भारतीय संस्कृति की श्रेष्ठता सिद्ध करने के लिए तर्क देना शुरु किया कि तीन हजार वर्ष पहले भारतीय स्त्रियों को जैसा सम्मानजनक दर्जा मिला था वैसा दुनिया भर में कही भी नहीं दिया जाता था। 

१. मनुस्मृति (हिंदी रुपांतर) – प्रस्तुति गोविंद सिंह, साहनी पब्लिकेशन, दिल्ली, पृ. ९५

२. मनुस्मृति (हिंदी रुपांतर) – प्रस्तुति गोविंद सिंह, साहनी पब्लिकेशन, दिल्ली, पृ. ९६

राजा राम मोहन रॉय, ईश्वरचंद्र विद्यासागर, स्वामी दयानंद सरस्वती और आर.जी.भंडारकर आदि सभी सुधारक पुनर्जागरणवादी, रूढ़िवादियों पर प्रहार करने के लिए संस्कृत कृतियों – शास्त्रों से जमकर उद्धरण दिया करते थे। इस तरह ब्रह्म समाज, प्रार्थना समाज, आर्य समाज ने १९ वीं सदी में ब्राह्मणवादी मॉडल के आधार पर हिंदू सभ्यता में महिलाओं की स्थिति को महिमा-मण्डित करके ब्रिटिश के सामने प्रस्तुत किया।”१ इन लोगों ने कहा – अतीत में महिलाओं की स्थिति काफी बेहतर थी। वैदिक काल में स्त्रियों की स्थिति बेहद ऊँची थी। उनका कहना था वैदिक काल के बाद विदेशी आक्रमणकारियों की घुसपैठ के कारण, महिलाओं का अपहरण होने लगा। उन्होंने विशेष रूप से इस्लाम आक्रमणकारियों का नाम लिया, जिन्होंने स्त्रियों का अपहरण करके उनको भ्रष्ट किया इसलिए परदा, सती और बालिका शिशु हत्या जैसी कुरीतियाँ पैदा हुई।

​नारीवादी इतिहासकार उमा चक्रवर्ती के अनुसार – “सातवीं सदी में हर्षवर्धन के प्रारम्भिक काल से सम्बन्धित विवरणों में सती प्रथा उच्च जाति की महिलाओं के साथ साफ-साफ जुड़ी देखी जा सकती है। महिलाओं के अधीनीकरण सुनिश्चित करने वाली संस्थाओं का ढाँचा अपने मूल रूप में मुस्लिम धर्म के उदय के भी काफी पहले अस्तित्व में आ चुका था। इस्लाम के अनुयायियों का आना तो इन तमाम उत्पीड़क कुरीतियों को वैधता देने के लिए एक आसान-सा बहाना भर है। ये तर्क उन लोगों को अधिक भाता है जो प्रारम्भिक भारत में जेंडर संबंधों को नियंत्रित करने वाली संस्थागत ढाँचे को नहीं देखना चाहते है क्योंकि मोटे तौर पर, समकालीन समाज के जेंडर संबंध भी इसी ढाँचे पर आधारित है।”२

१. अल्टकेरियन अवधारणा से परे : प्रारम्भिक भारतीय इतिहास में जेंडर संबंधो की नई समझ – उमा चक्रवर्ती, दिल्ली विश्वविद्यालय, दिल्ली, पृ. १२७

२. अल्टकेरियन अवधारणा से परे : प्रारम्भिक भारतीय इतिहास में जेंडर संबंधो की नई समझ – उमा चक्रवर्ती, दिल्ली विश्वविद्यालय, दिल्ली, पृ. १२९

​भारतीय नारीत्व के खो चुके रूतबे को वापस पाने की कोशिश में राष्ट्रवादी इतिहासकारों ने प्राचीन कृतियों के कुछ विशेष पहलुओं पर चुनिंदा फोकस रखा है। इस प्रवृति ने अक्सर ही स्त्री-पुरुष के बीच घटित घटनाओं की साफ-सुथरी तस्वीर पेश की, जिसका सबसे बड़ा उदाहरण गार्गी-याज्ञवल्क्य शास्त्रार्थ की राष्ट्रीयवादी व्याख्या है। शकुंतला राव शास्त्री ने ‘विमेन इन द स्केयरड लॉ’ (१९५९, पृ. १७२-१७३) पुस्तक में बहस के ब्योरे का सबसे महत्त्वपूर्ण बिंदू बहस को निष्कर्ष तक पहुँचाने का तरीका है। वे अंत में कहती हैं – “गार्गी के सवालों का उद्देश्य ब्राह्मण की प्रकृति के विषय में याज्ञवल्क्य की परीक्षा लेना नहीं बल्कि उनसे सीखना था।” इस तरह शकुंतला राव के विवरण में गार्गी की निर्भीकता, स्वतंत्र चेतना और एक सुविख्यात दार्शनिक से दो-दो हाथ कर सकने की क्षमता पर पानी फेर दिया।

​इसी तरह एस.एस. अल्टेकर ने अपनी पुस्तक ‘द पोजीशन ऑफ विमेन इन हिंदू सिविलाइजेशन’ में हिंदू सभ्यता में महिलाओं की स्थिति का अध्ययन महिलाओं के विषय में किये गये अध्ययन में सर्वाधिक चर्चित सम्यक राष्ट्रवादी कृति है। यह अध्ययन मोटे तौर पर ब्राह्मणवादी स्त्रोतों पर आधारित है। यह कृति इतिहास में महिलाओं के अध्ययन विषय में हमारे पास उपलब्ध सबसे सुंदर कृति है। इस पुस्तक में महिला शिक्षा, विवाह और तलाक, विधवा की स्थिति, सार्वजनिक जीवन में महिलाएँ, स्त्रियों की सम्पत्ति अधिकार और आम समाज में स्त्रियों की स्थिति पर कानूनी निर्मताओं के तमाम दृष्टिकोणों का खुलासा किया गया है। लेकिन उनकी यह महिला प्रश्न राष्ट्रवादी समझ से ओत-प्रोत भी है। महिलाओं के बारे में उनकी सबसे ज्यादा चिंता परिवार के संदर्भ में है। जिससे ऐसा लगता है कि हिंदुओं का शारीरिक उत्थान बेहद जरूरी है। अल्टेकर महिलाओं को मूलत: एक शक्तिशाली नस्ल के उद्गम के रूप में ही देखते है। महिला शिक्षा के समर्थक तो है पर उन पर इसके लिए दबाव नहीं बनाना चाहते। उत्तराधिकार बेटे को ही दिया जाता था, इस पर बड़ी सफाई से ये निकल जाते है। अल्टेकर जैसे इतिहासकारों ने महिलाओं को एक विशेष सामाजिक संरचना के भीतर और पितृसत्तात्मक अधीनता के तहत ही देखा।

​पुरुष इतिहासकारों में जो थोड़े उदारवादी थे, उन्होंने महिला इतिहास को, आंदोलनों में उनकी भूमिका को साधारण आंदोलनों के साथ शामिल किया। सिर्फ औरत होना ही औरत की पहचान नहीं है। दरअसल वे विभिन्न वर्गों, समुदायों से आती है। इसलिए जब इतिहास के पन्नों पर हम नारी के दमन और शोषण की बात करते है, तो सिर्फ एक औरत के दमन – शोषण की बात नहीं करती, बल्कि एक किसान, मजदूर, एक दस्तकार, यहाँ तक की एक नागरिक के शोषण व दमन की बात करते है। अत: इतिहासकारों ने औरतों के इतिहास को भी साधारण इतिहास के साथ जोड़ दिया जबकि नारी आंदोलनों में हमेशा से ही पितृतंत्र के खिलाफ संघर्ष रहता ही आया है। जन-इतिहास जो उपेक्षित पड़ा है खासकर जन-इतिहास के एक हिस्से के तौर पर नारी-इतिहास भी सामंती – बूर्जुआ इतिहास की वजह से उपेक्षित रहा है। नारीवादी संदर्भों तक सीमित रहने के बावजूद यह श्रेय  नारीवादियों को दिया जाना चाहिए कि उन्होंने उस उपेक्षित इतिहास का पुनरूद्धार किया। शायद तेलंगाना आंदोलन में नारियों के संघर्ष पर स्त्री शक्ति संगठना की ‘वी.आर. मेंकिग हिस्टरी लाईफ स्टोरी ऑफ वीमेंस इन द तेलंगाना’ एक मात्र पुस्तक है। वामपंथी आंदोलनों ने पूरी तरह उपेक्षा की।

​वामपंथियों को और सुधारवादियों को यह भूल माननी होगी कि उन्होंने अपने आंदोलनों में नारी की भूमिका को ठीक तरह से रेखांकित नहीं किया जो कि आंदोलनों में नारी की भूमिका को पहचान न पाने की उनकी प्रवृत्तियों को न समझ पाने का ही दुष्परिणाम है। वामपंथी महिलाओं में १९४७ के पहले के आंदोलनों में अपनी भूमिका के बारे में ही लिखा था फिर वाम आंदोलनों में नारी की भूमिका के बारे में। उन्होंने आधुनिक भारत के इतिहास में नारी की व्यापक भूमिका के बारे में कुछ लिखने की कोशिश नहीं की। उनकी तरफ से इसे उचित परिप्रेक्ष्य में रखने की कोई कोशिश ही नहीं हुई कि अतीत की व्याख्या करते हुए वर्तमान की ओर कदम बढ़ाने में या इसे अपने समय की सामायिक क्रांति का एक हिस्सा होने के तौर पर देखा-समझा जाये।

​आंदोलनों में महिलाओं की भागीदारी को नारी शिक्षा या समाज सुधार से जोड़ने के लिए इतिहासकारों ने सिर्फ उच्च वर्ग की संभ्रान्त महिलाओं की ही भूमिका को प्रमुखता से दर्शाया और ऐसा करते हुए उन्होंने आदिवासी, किसान और मजदूर वर्ग की उन महिलाओं के योगदान को नजरअंदाज कर दिया, जिन्होंने बहुत बड़ी संख्या में, विभिन्न आंदोलनों में, संघर्षों में प्रत्यक्ष हिस्सेदारी की – इनमें घरेलू औरते हैं, माताएँ और पत्नियाँ, कई वेश्याएँ भी शामिल थी और वे महिलाएँ भी जिनके पति संघर्षों में मारे गये या जेल में बंद हो गये, उन्होंने परिवार की जिम्मेदारी अपने कंधों पर उठाकर आंदोलनों में अप्रत्यक्ष योगदान किया।

​हमारी साधारण पाठ्य पुस्तकें और शैक्षणिक इतिहास की पुस्तकों में अधिकतर लिंगभेद की मानसिकता का परिचय देती है। इसमें कोई आश्चर्य नहीं कि हम में से ज्यादातरों ने कई महिला नेताओं, सुधारकों के नाम तभी जानें, जब हमने नारी आंदोलनों के प्रति खास रुचि पैदा हुई और हमने कुछ अतिरिक्त किताबें पढ़ी या रिसर्च किया। क्योंकि उनके बारे में कुछ पढ़ाया ही नहीं जाता। इन पुस्तकों में वर्गों को लेकर भी पक्षपात होता है। इसलिए जब भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में महिलाओं के योगदान को दर्ज करने की बात आती है, तब सिर्फ उच्च वर्ग और ऊँची जाति और वह भी कांग्रेसी महिला नेताओं की ही चर्चा होती है, साधारण दलित, किसान, आदिवासी मजदूर महिलाओं के योगदान को पूरी तरह नजरअंदाज कर दिया जाता है। पुलिस दमन के खिलाफ उनके साहस, सामाजिक कलंक के आरोपों का सामना करने की उनकी हिम्मत और आंदोलनों में भागीदारी करने की खातिर उनकी दोहरी कठिनाइयों का जिक्र तक नहीं होता। अब यह हमारी जिम्मेदारी है कि इतिहास के अंधेरे कोनों की हम खुदाई करें और महिलाओं की बहादुरी की सही तस्वीरों को सामने लायें।

​ब्रिटिश वर्चस्व के खिलाफ १७६३-१८५७ तक सैकड़ों छोटे-मोटे विद्रोहों के अलावा ४० बड़े विद्रोह हुए। आदिवासियों के साथ १२ बड़े सशस्त्र विद्रोह देखे गयें। हाँलाकि इन विद्रोहों में औरतों की भूमिका के बारे में ज्यादा कुछ दस्तावेजी प्रमाण नहीं मिलते,लेकिन हम जानते है कि इन सभी विद्रोहों में आदिवासी-जनजाति महिलाओं की सक्रिय हिस्सेदारी थी। आदिवासी समाज में चूंकि औरतों को शुरु से ही बराबरी का दर्जा मिला हुआ था। अत: युद्धों में भी बराबर हिस्सा लेना उन समुदायों की औरतों के लिए सहज स्वाभाविक हैं। बंगाल में पहले-पहल विद्रोह का परचम लहराने वाले चुआर विद्रोही थे। बिहार और बंगाल के कुछ जिलों में यह विद्रोह हुआ। छोटा नागपुर का कोल विद्रोह, संथाल विद्रोह, खारवार विद्रोह, उलगुलान – विरसा मुंडा विद्रोह, मनयान विद्रोह, नील विद्रोह। इन सभी विद्रोहों में पुरुष ब्रिटिश पुलिस से छुपकर जब जंगलों में चले जाते थे, औरते रात को फौजी घेरे से चुपके से निकलकर जंगलों में छिपे पुरुषों को भोजन, खबरें और हथियार पहुँचाती थी। कुछ औरतें गिरफ्तार होती, फौज उन पर जुल्म करती पर वे अडिग खड़ी रहती। कहीं-कहीं तो महिलाएँ सीधे विद्रोह में शामिल थी जैसे नील विद्रोह में थालियों, ईंटों और अत्यंत मजबुत छिलके वाले बेल फलों से हथियार बनाये। हमलावरों को डराने के लिए औरतें मिट्टी की पक्की थालियों को बजाकर ऐसी आवाजें पैदा करती, जिससे नसें फट जाती थी। ‘नील दर्पण’ नाटक में नील विद्रोह में शामिल औरतों को अंग्रेजों ने कैसे सताया, अपहरण किया, अत्याचार किये, उसकी भयंकर तस्वीर प्रस्तुत की गयी।

अंग्रेजों के खिलाफ सशस्त्र संघर्ष का इतिहास दो सौ वर्षों से भी ज्यादा पुराना है। सत्ता वर्ग द्वारा प्रकाशित इतिहास पुस्तकों में सिर्फ रानियों को गौरवपूर्ण तरीके से पेश किया गया है, जबकि सच्चाई यह है कि ऐसी लड़ाइयों में साधारण वर्ग की गरीब महिलाओं ने भी बहादुरी से लड़ते हुए अपनी जान दी। ऐसी रानियों में जो कुछ प्रसिद्द हुई, उसकी जानकारी भी हमें अंग्रेजों ने कुछ अनिच्छा से लिखा, वही पता है। १८२८ में कित्तुर की रानी चैन्नम्मा, १८५७ की लड़ाई में झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई की फ़ौज में हर धर्म, जाति, वर्ग व समुदाय की औरतें शामिल थी। दलित महिलाएँ पुस्तक की भूमिका में डॉ. धर्मकीर्ति ने लिखा है – “दलित समाज की दस-वीरांगनाओं के बारे में बताया गया है जिनका अध्ययन करके दलित महिलाएँ अपने ऊपर होने वाले शोषण, उत्पीड़न, अत्याचार, अन्याय के विरुद्ध संघर्षरत होकर विकास कर सकेंगी। झलकारी बाई, लोजी, महाबीरी देवी, पन्ना, जगरानी पासी, नन्हीबाई, रानी गुडियालो, अवंती बाई, वीणादास और ऊदादेवी के जीवन-चरित्र दलित महिलाओं के लिए प्रेरणादायक सिद्ध होंगे।”१1. 

दलित महिलाएँ- संकलन-डॉ. मंजू सुमन, संपादन – ज्ञानेंद्र रावल,सम्यक प्रकाशन, नयी दिल्ली, पृष्ठ ७.

लक्ष्मीबाई के साथ उनकी हमशकल झलकारी बाई को इतिहास से अदृश्य किया गया। मंगल पांडे को फांसी लगी, तब लाजो नामक दलित स्त्री अपने पति मातादीन के साथ कंधे से कंधा भिड़ाकर लड़ी और शहीद हुई। वे १८५७ स्वतंत्रता संग्राम की प्रथम चिंगारी थी। मुजफ्फरनगर उत्तर प्रदेश की महाबीरी देवी अंग्रेजों के साथ सशस्त्र संघर्ष की उनकी टोली में कुछ २३ औरतें थी, सभी मारी गई। पर भंगी जाति की होने के कारण इनका इतिहास नहीं लिखा गया। बेगम हजरत महल के साथ लड़ने वाली पासी महिला जगरानी पासी थी, अंग्रेजों को मरने के बाद पता चला कि वे पुरुष नहीं महिला थी। नागालैंड के उत्तरी कछार की रानी गुडियालो १३ वर्ष की उम्र में ही स्वतंत्रता संग्राम में शामिल हुई। पूर्वी सीमांत क्षेत्र में वे “हीरो” की तरह याद की जाती है। पर यह दुखद है स्वतंत्रता संग्राम की जानकारी देने वाली हमारी पुस्तकें और पाठ्यपुस्तकों में उनका उल्लेख नहीं मिलता। ये सभी हमारी राजनीतिक विरासत का महत्त्वपूर्ण हिस्सा है। इन सभी के अपूर्व शौर्य, साहस और बलिदान को भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के इतिहास में स्वर्णाक्षरों में लिखा जाना चाहिए।  

दूसरे तमाम आन्दोलनों की तरह समाज-सुधार आन्दोलनों में भी महिला समाज सुधारिकाओं के बारे में बहुत ही कम जानकारी मिलती है लेकिन चूँकि इन आन्दोलनों का थोड़ा लेखा-जोखा रखा गया था, इसलिए पिछले इतिहासों की तरह इन आन्दोलनों में महिलाओं की भूमिका के बारे में सूचनाएँ हासिल करना असंभव नहीं। यह वह समय था जब महिलाओं ने लिखना शुरू कर दिया था। अतः उनके युग, कार्यो और नजरिये के बारे में महत्त्वपूर्ण जानकारियाँ खुद उनके लिखित अनुभवों में मिल जाती है। फिर भी यदि इन्होंने नारीवादी दृष्टिकोण से और अधिक इतिहास का मूल्यांकन किया होता, तो ये पता चलता कि ताराबाई शिंदे ने ‘स्त्री-पुरुष तुलना’ ये पुस्तक क्यों लिखी। बाल गंगाधर तिलक जो राष्ट्रीय स्वतंत्रता आंदोलन के युग पुरुष थे, उनकी औरतें के बारे में क्या राय थी?

ताराबाई दो घटनाओं से विक्षिप्त हो गई थी और “स्त्री-पुरुष तुलना” पुस्तक की रचना की। यह घटना है – ‘द टाइम्स ऑफ़ इंडिया” में २६ मई १८८१, सत्यमित्र में २७ मई १८८१ तथा इंदुप्रकाश में १२ जून १८८१ में एक खबर छपी। विजयलक्ष्मी नाम की एक २५ वर्षीय ब्राह्मण विधवा थी, जिसे १८८० में पता चला वह गर्भवती है। उसके गर्भवती होने की घटना को कोर्ट में घसीटा गया। कोर्ट से आदेश आया, बच्चे की भ्रूणहत्या न की जाये, पर विजयलक्ष्मी ने कोर्ट के आदेश का पालन न करते हुए बच्चे की भ्रूणहत्या कर दी, इस पर मजिस्ट्रेट ने विजयलक्ष्मी को फांसी की सजा सुनाई। इस केस से ताराबाई के मन पर बहुत बड़ा आघात लगा। वे विचलित होने लगी। उनकी कलम से तभी आग उगलने लगी। 

दूसरी घटना रखमाबाई की है। बचपन में उनका विवाह कर दिया गया। विवाह के पश्चात वे पढ़-लिख ली और अपने अनपढ़ पति के साथ ससुराल जाने से मना कर दी। उनके पति दादाजी भीकाजी ने अदालत में वैवाहिक अधिकारों की प्रतिष्ठान का दावा दायर किया। जिला अदालत में रखमाबाई जीत गई, पर बम्बई हाईकोर्ट में पति जीत गया। फिर भी रखमाबाई ने कोर्ट के सामने चुनौती देते हुए कहा – “चाहे तो मुझे फाँसी पर लटका दो पर मैं इस आदमी के साथ ससुराल नहीं जाऊँगी।” इस पर तिलक ने ‘केसरी में लिखा, स्त्री शिक्षा आंदोलन के बहाने रखमाबाई की आड़ में हमारे पुरातन धर्म पर आक्रमण का प्रयास किया जा रहा है। ऐसा प्रतीत होता है कि अंग्रेजों की नीयत हमारे अनन्त धर्म को बाँझ बनाने की है।” तिलक जैसे राष्ट्रीय युग पुरुष नेता के ऐसे व्यक्तव्य से ताराबाई बौखला गई। इन दोनों घटनाओं से आहत होकर उन्होंने स्त्री-पुरुष तुलना की रचना की।  

२० वीं सदी के पूर्वार्द्ध में महात्मा गाँधी के नेतृत्व में भारी संख्या में औरतें सड़कों पर उतरी। गांधीजी ने पर्दे में रहने वाली औरतों, अनपढ़ गंवार कही जाने वाली औरतों, शहरी, गांवों, कस्बों की औरतों, पढ़ी-लिखी औरतों सभी को, चाहे वे बुद्धिजीवी हो या हथकरधा पर काम करने वाली सभी को, स्वतंत्रता की लड़ाई का हिस्सा बनाया। इतिहास में इसके पहले औरतों की इतनी भरी संख्या नहीं दिखी थी। जैसा कि लता सिंह लिखती है – “गांधीजी आंदोलनों में महिलाओं की भागादारी के पूर्ण पक्षधर थे। वे महिलाओं की सभाओं में अपने भाषणों में, आन्दोलनों में उनकी भागीदारी अनिवार्य बताते थे और साथ ही उन्हें यह कहकर प्रेरित करते थे कि देवियों और वीरांगनाओं की तरह उनकी अपनी अलग भूमिका है। ……..उन्होंने महिला नेताओं को सीता, द्रोपदी और दमयंती की तरह सात्विक, दृढ़ और नियंत्रित होना चाहिए, तभी वे स्त्रियों के भीतर पुरुषों के साथ बराबरी का भाव जगा सकेंगी और अपने अधिकारों के प्रति सचेत तथा स्वतंत्रता के प्रति जाग्रत रह सकेंगी।”१

इतिहास में गांधीजी का सबसे महत्त्वपूर्ण योगदान यह था कि उन्होंने सार्वजनिक गतिविधियों में महिलाओं की सहभागिता के औचित्य को सिद्ध करते हुए उसे विस्तार दिया। ताकि वे वर्ग एवं सांस्कृतिक बंधनों को तोड़कर आगे बढ़ें। नारीवादी इतिहासकार राधाकुमार कहती है – “इसी समय महिलाओं के स्वभाव और भूमिका के बारे में गाँधी की परिभाषा हिन्दू पितृसत्ता से गहराई से जुड़ी नजर आई और अक्सर उनका झुकाव महिला आंदोलन को आगे बढ़ाने के बजाए उन्हें सीमित करने की ओर रहा।”२कांग्रेसी महिलाओं ने भी अपने पुरुष साथियों तथा गांधीजी के पितृसत्तात्मक दृष्टिकोण के खिलाफ जो संघर्ष किया, कुछ हद तक उसे सामने रखा।

१९४७ के पहले के आंदोलनों में औरतों की भूमिका पर लिखते हुए डॉ. बाबासाहेब आम्बेडकर के नेतृत्व में हुए जातिवाद विरोधी आंदोलन में दलित महिलाओं की भूमिका की इतिहासकारों ने अनदेखी की। आंबेडकर के आंदोलन में औरतों की भूमिका पर उर्मिला पवार और मीनाक्षी मून की लिखी पुस्तक”आम्ही ही इतिहास घडवल” है जो सबसे अच्छी पुस्तकों में से एक है। 

इसी तरह अल्पसंख्यक मुस्लिम और ईसाई महिलाओं की भूमिका भी ठीक से दर्ज नहीं। जब तक मुस्लिम महिलाएँ अखिल भारतीय महिला कांग्रेस में रही तब तक उनका इतिहास दर्ज किया गया, पर जब वे मुस्लिम लीग बना उसके बाद की जानकारी इतिहास में दर्ज नहीं। भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के शुरुआती दिनों में कुछ विदेशी ईसाई महिलाओं की भूमिका बहुत ही महत्त्वपूर्ण रही। भारतीय महिलाओं की अलग संगठनों की स्थापना में भी उनका बड़ा योगदान रहा। 

१. “राष्ट्रीय आंदोलन में महिलाएँ – भूमिका के सवाल – लता सिंह, नारीवादी राजनीति: संघर्ष एवं मुद्दे, दिल्ली विश्वविद्यालय, दिल्ली, पृष्ठ १५७

२. स्त्री संघर्ष का इतिहास – ‘राधा कुमार’, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, पृष्ठ – १७५               

राष्ट्रीय क्रन्तिकारी आंदोलन में महिलाओं के योगदान के बारे में कुछ साहित्य जरूर लिखा गया, लेकिन आसानी से उपलब्ध नहीं। ऐसे साहित्य पुनर्मुद्रित नहीं हुए। कुछ साहित्य बांग्ला में लिखे गये, लेकिन चूँकि उनका संघर्ष मुख्यत: ब्रिटिश सरकार के खिलाफ था और कुछ सीमा तक उसे दर्ज किया गया। चूँकि इन महिलाओं ने सशस्त्र संघर्ष किया, इसीलिए पाठ्यपुस्तकों में उन्हें महत्त्व नहीं दिया गया। कुछ पुस्तकों में तो उनकी चर्चा भी नहीं है। भगतसिंह ने चूँकि अपने विचारों से तथा शहादत से देशवासियों के दिलों में अमिट छाप छोड़ी इसलिए उनकी चर्चा अनिच्छा और बेदिली से की जाती है किन्तु महिला क्रांतिकारियों को आसानी से नजरअंदाज किया जाता है। सुभाषचंद्र बोस के आजाद हिन्द फ़ौज में सिर्फ कैप्टन लक्ष्मी का नाम लिया जाता है। उन एक हजार औरतों का इतिहास उपलब्ध नहीं, जो झाँसी की रानी रेजिमेंट का हिस्सा थी।     

कम्युनिस्टों के नेतृत्व में जो सशस्त्र संघर्ष हुए तेलंगाना, तेभागा आंदोलन, उसमें दलितों, किसानों, अल्पसंख्यकों और आदिवासियों की महिलाओं की भूमिका के बारे में काफी हद तक लिखा गया। मजदूर संघों की कुछ महिला नेताओं के बारे में काफी हदतक जानकारियाँ उपलब्ध है। लेकिन मजदूर संघों के संघर्षों में मजदूर महिलाओं की भूमिका के बारे में यहाँ-वहाँ छपे कुछ लेखों के अलावा विस्तृत सूचनाएँ उपलब्ध नहीं। वामपथियों और सुधारवादियों द्वारा लिखी गयी मजदूर-संघर्ष के इतिहास की पुस्तकों में भी मजदूर महिलाओं के संघर्षों का जिक्र नहीं मिलता। कुछ कारखानों में उनकी दुर्दशा के बारे में कुछेक अध्याय लिखे गये। हाँलाकि इन्हीं आंदोलनों से कुछ महिला नेताओं का उदय हुआ। 

डॉ. आशा शुक्ला और कुसुम त्रिपाठी की पुस्तक की भूमिका में उन्होंने लिखा है – “किसान आंदोलनों में भी महिलाओं में साम्राज्यवाद के खिलाफ संघर्ष के दौरान पितृसत्तात्मक आंदोलन में हिस्सा लेने वाली महिलाओं की गवाहियाँ इस बात की बेहतर सबूत है कि पितृसत्तात्मक दृष्टिकोण की वजह से उन्हें कैसी-कैसी समस्याओं से गुजरना पड़ा।”१

 1. उपनिवेशवाद, राष्ट्रवाद और जेंडर – प्रो. आशा शुक्ला, कुसुम त्रिपाठी, बरकतउला विश्वविद्यालय, भोपाल, पृष्ठ – ९

देश के कई भागों में सामंती व राजकीय दमन के विरुद्ध सशस्त्र-विद्रोह आयोजित हुए। बंगाल, बिहार, आंध्रप्रदेश, केरल, पंजाब के संघर्ष उल्लेखनीय है। वायनाड संघर्ष के बारे में अजिता ने पार्टी ढांचों के भीतर महिलाओं के सवाल पर लिखा तो श्रीकाकुलम संघर्ष पर विंध्या ने लिखा कि गिरिजन संघम् में महिलाओं के यौन-जीवन और मातृत्व के मसालों को सही ढंग से हाथ में ले पाने में असमर्थ रहा।

ईलीना सेन के अनुसार – “महिलाएँ सभी प्रकार की राजनीतिक कार्यवाइयों धरने, घेराव, पिकेटिन आदि में शामिल रही। …….चिपको आंदोलन, मुंबई का गिरणी कपड़ा मिलों के कामगार आंदोलन, केरल के मछुआरों का आंदोलन, नशाखोरी विरोधी आंदोलन, बिहार का बोधगया आंदोलन, असम आंदोलनसे संबंधित अख़बारों की रिपोर्टों तथा फोटोग्राफों से पता चलता है कि प्रदर्शन और बैठकों में बड़ी संख्या में महिलाओं ने भाग लिया। पर वह सांगठनिक अनुभव कहीं भी पर्याप्त रूप से अभिलिखित नहीं है।”१

स्वायत्त महिला आंदोलन (ऑटोनॉमस विमेंस मूवमेंट) अनेक छोटे-छोटे समूहों को संगठित करके स्थापित किया गया। मैं भी इस आंदोलन में सक्रिय थी। १९८० में देश के विभिन्न हिस्सों से राष्ट्रीय स्तर के बड़े आंदोलन अभियानों में सक्रिय होने के साथ-साथ स्थानीय स्तर पर महिलाओं से संबंधित समस्याओं और मुद्दों को उठाते रहते थे। ऐसी गतिविधियों की अनेक रिपोर्ट विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में भरे पड़े है। अधिवेशनों में पढ़े गये परचे बिखरे पड़े है। इन्होंने कुछ किताबें भी लिखी। वे सभी सुरक्षित हैं। दस्तावेजीकरण की वजह से कोई छोटा-सा आंदोलन भी शोधकर्मियों को उपलब्ध हो जाता है जबकि बड़ा आंदोलन रेकॉर्ड न रखे जाने की वजह से अनदेखा-अनजाना रह जाता है। 

८० के दशक के बाद जब नारीवादी आंदोलनों की शुरुआत हुई, तब विश्व स्तर पर नारीवादी महिलाओं ने महसूस किया कि इतिहास के पन्नों से नारियों के इतिहास को उपेक्षित किया है। सामंतवादी, बुर्जुआ, ब्राह्मणवादी इतिहासकारों की वजह से नारी इतिहास को इतिहास के पन्नों में शामिल नहीं किया गया। 

१. संघर्ष के बीच : संघर्ष के बीज, इलीना सेन, सारांश प्रकाशन, दिल्ली, पृष्ठ – १७        

इसलिए हम नारियों को स्वयं अपने इतिहास को पुनर्लेखन करना होगा, तब इतिहास की “री-राइटिंग” शुरू की गयी। हमारे देश में नारी देसाई, मीना मेनन, उमा चक्रवर्ती, उर्वशी बुटालिया,कमला भसीन, राधा कुमार, मधु किश्वर, सुशीला गोखले जैसे कुछ नारीवादी इतिहासकारों ने इतिहास के पन्नों से नारीवादी दृष्टिकोण से इतिहास लेखन शुरू किया। 

जैसा कि गौरी लंकेश ने लिखा है – “मनुवादियों ने बहुजनों तथा महिलाओं के समृद्ध सांस्कृतिक इतिहास को अपने हिसाब से तोडा-मरोड़ा। हमें इतिहास पर पड़े धूल-धक्कड को झाडना पड़ेगा, पौराणिक झूठों का पर्दाफाश करना पड़ेगा और अपने लोगों तथा अपने बच्चों को सच्चाई बतानी पड़ेगी। यही एकमात्र रास्ता है, जिस पर चलकर हम अपने सच्चे इतिहास के दावेदार बन सकते हैं।”१

१. गौरी लंकेश का लेख – “हमारा माहिषासुर, २९ फरवरी २०१६, वेब पार्टल बैंगलोर मिरर में प्रकाशित    

15 thoughts on “इतिहास से अदृश्य स्त्रियाँ

    1. आदिवासी जनजाति महिलाओं का यह गौरव इतिहास पढ़ाया और बताया ही नहीं जाता है। किसी भी सरकार ने पाठ्यक्रम में दिया ही नहीं है। तुम्हारा यह लेख पाठ्यक्रम में लगना चाहिए।

  1. बहुत अच्छा लिखा है कुसुम त्रिपाठी जी बधाई

  2. बहुत शोधपरक और सारगर्भित आलेख। इसे अनिवार्य रूप से एक व्यापक विमर्श का अंग बनना चाहिए, एक बहस शुरू होनी चाहिए इन मुद्दों पर।

  3. बहुत अच्छा मैम, बहुत ही सरलता से सभी बातों को रखा है।

  4. दीदी, आप का लेख बहुत ही महत्वपूर्ण एवं चिंतनीय है. धन्यवाद.

  5. मैम बहुत ही महत्वपूर्ण लेख लिखा है. बहुत-बहुत बधाई आपको. इस लेख में बहुत सी महत्वपूर्ण जानकारियों को शामिल किया गया है . यह लेख स्त्री संघर्ष के नए आयाम को दर्ज करता है .

  6. मैम बहुत ही महत्वपूर्ण लेख लिखा है. बहुत-बहुत बधाई आपको. इस लेख में बहुत सी महत्वपूर्ण जानकारियों को शामिल किया गया है. यह लेख स्त्री संघर्ष के नए आयाम को दर्ज करता है .

  7. गंभीर लेख, लेकिन बिल्कुल सहज भाषा में।
    आपको बहुत बहुत बधाई।

  8. बहुत अच्छा एवं ज्ञान वर्धक जानकारियां मिली, आगे भी हम आपसे ऐसे ही इतिहास की कुछ अनदेखी अनसुनी जानकारी बटोरना चाहेंगे मैम ,आपके इस महत्वपूर्ण एवं महत्वकांक्षी लेख से हमारा आत्म विश्वास बढ़ता है।

  9. बहुत ही ज्ञानवर्धक लेख है ,धन्यवाद मैडम।

  10. बहुत ही महत्वपूर्ण जानकारी मैम आपने लेख के माध्यम से दी…💐💐💐💐

  11. डॉक्टर कुसुम त्रिपाठी का लिखा’ इतिहास में अदृश्य औरतें’ एक अद्वितीय लेख है।आपने बिल्कुल सही चित्रण किया है कि भारत मे इतिहास लेखन ब्रिटिश साम्राज्यवाद ,सामंतवाद और पितृसत्तात्मक सोच से प्रभावित रहा है।इसीलिए दलितों, आदिवासियों, महिलाओं और शोषितों के बीच प्रतिरोध के स्वरों को न तो ज्यादा लिखा गया और न ही प्रचारित किया गया।आज के मौजूदा दौर में आपका लेख कहीं ज्यादा प्रासंगिक है।आज देशी विदेशी कॉरपोरेट ताकतों के दलाल आरएसएस के मार्गदर्शन में जनता की दुश्मन नम्बर एक बीजेपी ,धन्ना सेठों का हिन्दुराष्ट्र बनाने के लिए घोर दलित, स्त्री,आदिवासी, अल्पसंख्यक व गरीब विरोधी बर्बर अमानवीय धर्मशास्त्र मनुस्मृति को लागू कर रही है।आज आरएसएस नवफ़ासीवाद के वैचारिक आधार मनुवादी हिंदुत्व के खिलाफ संघर्ष करने के लिए आपका लेख और आपकी किताब वैचारिक संबल का काम करेंगी।बधाई

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