संस्मरण: अलीशिर नवाई का देश और मोनालिसा का नशा

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सृजन गाथा छत्तीसगढ़ द्वारा आयोजित पांचवें अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन में मुझे साहित्य एवं पत्रकारिता के क्षेत्र में उल्लेखनीय कार्य करने हेतु अंतर्राष्ट्रीय सृजनगाथा सम्मान 2012 ताशकंद में 25 से 30 जून 2012 में आयोजित किए जाने वाले सम्मेलन में प्रदान किए जाने की घोषणा हो चुकी थी। हर बार पुरस्कार मेरे लिए चुनौती के रूप में होता है लेकिन इस बार खुशी इस बात की थी कि मैं उज्बेकिस्तान जा रही हूं जहां भारत के पूर्व प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री जी ने अंतिम सांस ली थी और मैं उस जगह की साक्षी होने वाली थी।

      ताशकंद हवाई अड्डा….. कैसे उच्चारण करूँ इसका नाम –XALQARO QAT NOVALARING KELISHI….. बहरहाल, लगेज़ लेकर हम सभी सामने सड़क पर खड़ी तीन बसों में समा गए| सभी बसें एयरकंडीशंड….. आरामदायक| हमारे गाइड रुस्तम ने हिन्दी में हमारा स्वागत किया….. मुझे तो वह बॉलीवुड के हीरो जैसा ही लग रहा था| उसकी हिन्दी भी ऐसी जैसे वह उज्बेकी नहीं बल्कि भारतीय ही हो| बस होटल ‘द पाक तुरॉन’ की ओर चलने लगी जहाँ हमें छै: दिन तक रुकना था| चूँकि पूरी रात दिल्ली के इंदिरा गाँधी अंतर्राष्ट्रीय हवाई अड्डे पर जागते गुज़री थी क्योंकि हमारी फ्लाइट उज्बेकिस्तान एयरवेज थी और तीन बजे सुबह की थी इसलिए आँखें नींद से बोझिल होने के बावजूद मैं इतना तो समझ ही रही थी कि ताशकंद का मौसम खुशनुमा है| २२ डिग्री तापमान में सुबह की धुंध पेड़ों पर ठिठकी थी| सुबह के ८:३० बजे हैं जबकि मेरी घड़ी में नौ बजे थे| आधे घंटे भारत का समय आगे है यहाँ से|हरी-भरी, रंग-बिरंगे फूलों की क्यारियों वाले डिवाइडर के आजू-बाजू सर्पीली सड़क से गुजरते हुए मैं दिल्ली का झुलसा देने वाला ४६ डिग्री तापमान भूल चुकी थी।

      होटल ग्यारह मंजिला, बेहद शानदार था| लम्बा चौड़ा रिसेप्शन….. खूबसूरत उज्बेकी लड़कियाँ लड़के रिसेप्शन में थे| कुछ सीढ़ियाँ चढ़कर सामने बड़ा सा डाईनिंग हॉल था जहाँ हमारा ब्रेक फास्ट तैयार था| मुझे भूख नहीं थी क्योंकि फ्लाइट में हमें नाश्ता सर्व किया गया था इसलिए मैं छठवें फ़्लोर पर अपने कमरे में अपनी रूम पार्टनर प्रियंका सोनी के साथ आई और पलंग पर लेटते ही नींद के आगोश में चली गई| साढ़े बारह बजे हमें लंच और सिटी टूर के लिए रिसेप्शन में इकट्ठा होना था| नहा धोकर तरोताजा हो हम नीचे उतरे और भारतीय रेस्तरां में लंच के लिये गए| रेस्तरां दो मंजिला था| नीचे खुले में छोटे-छोटे गोल टेबिल के इर्द-गिर्द कुर्सियों पर बैठे विदेशी टूरिस्ट खाना खा रहे थे| बीच में एक खूबसूरत फव्वारा चल रहा था| रात होते-होते फव्वारा इंद्रधनुषी रंगों से नहा उठता है| हम सब ऊपर की मंजिल में भोजन के लिये गए| हमारे दल में एकांत श्रीवास्तव, बुद्धिनाथ मिश्र, धनंजय सिंह, देवमणि पाण्डेय, सुधीर शर्मा, जयप्रकाश मानस, दिवाकर भट्ट, शंभू बादल, हरिसुमनविष्ट, जैसे साहित्यकार थे|कुछ चेहरे अपरिचित थे जो भारत के विभिन्न प्रांतों, शहरों से आये थे| मॉरीशस से रेशमी रामधुनी जी आईं थीं| शाकाहारी भोजन था….. गाना बज रहा था….. बोले चूड़ियाँ, बोले कंगना….. पूरा माहौल हिन्दीमय था| होटल की बाल्कनी की दीवारों पर उज्बेकिस्तान का ग्रामीण परिवेश बड़ी-बड़ी पेंटिंग्स में चित्रित था| सामने चिनार का घना जंगल….. हवा शीतल….. मानो कानों को गुदगुदाकर पूछ रही हो – “कैसा लग रहा है यहाँ?”

      हमारी बसें सबसे पहले लाल बहादुर शास्त्री स्ट्रीट स्थित शास्त्री मॉन्यूमेंट की ओर रवाना हुईं जहाँ उनकी तांबे की प्रतिमा और स्मारक पर लगे ताम्रपत्र में उनके ताशकंद आगमन, निधन का ब्यौरा था| ताशकंद की धरती पर यह हमारा महत्त्वपूर्ण, ऐतिहासिक कदम था जब हम अपने प्रिय प्रधानमंत्री को अश्रुपूरित श्रद्धांजलि दे रहे थे|१० जनवरी १९६६ को भारत के प्रधानमंत्री और पाकिस्तान के राष्ट्रपति अयूब खान के बीच ताशकंद समझौता हुआ था| रुस्तम ने बताया कि ताशकंद के लिए वह बड़ा मुश्किल भरा समय था जब उस पर शास्त्री जी की हत्या की साज़िश का इल्ज़ाम था| शहर की मुख्य सड़क पर उनकी प्रतिमा स्थापित कर ताशकंद ने उनकी शहादत को ज़िन्दा रखा है| जहाँ पर पर्यटक आकर उन्हें भावभीनी श्रद्धांजलि देते हैं| मेरे लिए वह बड़ा भावुक पल था हालांकि शास्त्री जी का निधन आज से ४७ वर्ष पूर्व हुआ था, तब मैं स्कूल में पढ़ने वाली बालिका थी। और मैंने कल्पना भी नहीं की थी कि एक दिन मैं उनके परिवार की बहू बनूँगी| वे मेरे मामा ससुर थे| हमें ताशकंद पैलेस होटल भी दिखाया गया जहाँ उनकी मृत्यु हुई थी, वो पलंग मैं देखना चाहती थी जहाँ उन्होंने अंतिम साँस ली पर ये संभव न था|

      सब भारी मन से बसों में बैठे| थोड़ी ही देर में चिनार के कतारबद्ध दरख़्तों वाली खूबसूरत सड़क ने जैसे दुखते मन पर फाहा रख दिया| सड़कों पर सफेद गाड़ियाँ जो टैक्सी थीं….. हॉर्न की कहीं आवाज तक नहीं….. शहर में ज़्यादा से ज़्यादा पंद्रह मजिली इमारतें हैं….. सरकारी इमारतें….. मेयर का शानदार बंगला, ऑफिस, पोलिस डिपार्टमेंट जिसमें कैमरे लगे थे जो पूरे शहर पर निगरानी रखते थे| हाईकोर्ट, स्कूल, कॉलेज, टी.वी. टावर….. हम शहीद पार्क की ओर बढ़ रहे थे|रुस्तम धारा प्रवाह बोल रहा था….. बता रहा था अपने देश उज्बेकिस्तान के बारे में कि उज्बेकिस्तान की जनसंख्या ३० मिलियन है और ताशकंद की २.२ मिलियन| पहले सोवियत संघ विश्व पटल पर एक विशाल देश के रूप में जाना जाता था| सोवियत संघ का विघटन हुआ और १९९१ में गोर्वाच्योव के शासन के दौरान वह १२ देशों में विभाजित हो गया| उज्बेकिस्तान, रूस, कजाकिस्तान, किंगिस्तान, ताजिकिस्तान,तुर्कमेनिस्तान, उक्रेन आदि| उज्बेकिस्तान में पाँच रिपब्लिक हैं….. कज़ाकि, तुर्राक आदि| उज्बेकिस्तान के चार प्रमुख शहर हैं- ताशकंद, समरकंद, बुखारा, खीरा|

      २१ वर्षों से यह आज़ाद देश है और सबसे बड़ी बात यह है कि एक ही राष्ट्रपति २१ साल से अपने पद पर कार्यरत हैं| यहाँ के राष्ट्रपति शौकत मिरज़िया हैं| इस्लामिक देश होने के बावजूद यहाँ पर्दाप्रथा नहीं है| उज्बेकी महिलाएँ सिर पर  रुमाल बाँधती हैं और उनकी मुख्य पोशाक रेशम से बनी होती है जिसे अदरस और अतलस कहते हैं|यह गले से पैर तक एक ही लम्बी पोशाक होती है| शहतूत के वृक्ष बहुतायत में होने के कारण यहाँ रेशम बहुत अधिक मात्रा में होता है जिसे निर्यात भी किया जाता है| यहाँ का कानून बेहद सख्त है| इस्लाम धर्म में चार शादियों का प्रावधान तो है पर ऐश के लिए नहीं| सौ प्रतिशत प्रेम विवाह होते हैं| अगर पहली पत्नी औलाद पैदा करने के योग्य नहीं है तो कानूनी सहमति के बिना न तो दूसरा विवाह हो सकता है न तलाक| उज्बेकिस्तान ने मात्र २१ वर्ष में भ्रष्टाचार और अपराध से पूरी तरह मुक्ति पा ली है|

      शहीद पार्क यानी इंडिपेंडेंस स्क्वायर आ गया था| रुस्तम ने आधे घंटे बाद बस में लौट आने के लिये कहा| बड़े से गेट से हम अंदर गए| शहीद पार्क….. देश की आज़ादी के लिये शहीद हुए शहीदों की स्मृति में बनाया गया है| दो बड़े ब्राउन कलर के चबूतरों पर काले अक्षरों में शहीदों के नाम, तारीख आदि लैटिन लिपि में लिखे थे| सामने चीड़ और देवदार के घने दरख्त और लचीली घास का लम्बा विस्तार था| घास के बीच में पक्की गलियाँ बनी थीं| रमेश खत्रीजी ने घास पर बैठाकर मेरी तस्वीर खींची तभी एक उज्बेकी कर्मचारी दौड़ता हुआ हमारे पास आया – “प्लीज़, घास पर मत चलिये, बैठिये भी नही| चलने के लिए रास्ते उपयोग में लाएँ|”

      हम इतने संकोच से भर उठे थे कि सामने के लम्बे गलियारे में प्रवेश की हमने अनुमति ली जबकि वहाँ पर्यटक जा सकते थे| गलियारा लम्बा था जिसकी दीवार पर बने बड़े-बड़े आलों में ताम्रपत्र किताब के पन्नों की तरह लग रहे थे जिसमें आज़ादी पाने और शहीदों का विस्तार से वर्णन था| उन ताम्र पन्नों को पुस्तक की तरह पलटा भी जा सकता है| एक आले में कई-कई पन्ने थे| सामने नीले रंग की गुंबद वाली इमारत थी| विस्तृत भूभाग में फैला था यह इंडिपेंडेंस स्क्वायर| सामने की ओर विशाल खंभे पर जहाँ पहले लेनिन की मूर्ति थी अब उज्बेकिस्तान का ग्लोब था| पीले रंग के खंभे पर चमकते सोने जैसा सुनहला ग्लोब और खंभे पर उकेरी मानक मूर्ति….. अपनी आज़ादी का जश्न मनाती सी |


      हम जब फुटपाथ से गुज़र रहे थे तो कॉलेज के विद्यार्थियों का एक झुंड हमें देखकर रुका| सब गोरे चिट्टे…. बला के खूबसूरत, नाजुक और शालीन| उन्होंने हाथ जोड़कर हमें ‘नमस्ते’ कहा| बदले में जब मैंने माथे तक हाथ ले जाकर ‘वालेकुम सलाम’ कहा तो उन्होंने अपने-अपने मोबाईल से मेरी तस्वीरें खींची, कुछ ने संग खड़े होकर भी खिंचवाईं|

      बस हमें लेकर ‘मॉन्यूमेंट ऑफ करेज़’ के जिस लम्बे चौड़े मैदान में लाई वहाँ भागती हुई मुद्रा में एक स्त्री पुरुष की स्लेटी पत्थर की विशाल मूर्ति थी जो एक विशाल चट्टान पर स्थित थी| २६ अप्रैल १९६६ में एक शक्तिशाली भूकंप आया था जिसने पूरे ताशकंद को तहस-नहस कर डाला था| ३० लाख लोग इस भूकंप में मारे गये थे| यह विशाल मूर्ति उस समय को ताशकंद वासियों की स्मृति में हमेशा ताजा रखती है| इसी तरह ‘मॉन्यूमेंट ऑफ करेज़’ में एक औरत की भव्य विशाल मूर्ति है| लम्बे चौड़े स्क्वायर में बीचोंबीच हवन कुंड जैसी आकृति में अग्नि प्रज्ज्वलित की गई है| लपटें हमेशा निकलती रहती हैं….. मानो इस झुलसा देने वाली पीड़ा में अपनी साँसें पूरी करती माँ अपने मृत बेटे की प्रतीक्षा में है कि वह एक न एक दिन अवश्य आएगा| सब कुछ प्रतीकात्मक था लेकिन फिर भी मन भारी हो उठा| इंसान किसी भी जगह हो भावनाशून्य तो कभी हो ही नहीं सकता| भले ही विनाश के बाद सृजन की प्रक्रिया है और इसी क्रम में इस शहर का पुनर्निर्माण किया गया| १९७० तक लगभग एक लाख नए घर बनकर तैयार हो गये जिनमें से ज़्यादातर घरों में बिल्डरों के परिवार रहते हैं| लेकिन विनाश तो विनाश ही है|भारी मन लेकर हम लौट कहाँ रहे थे, जा रहे थे….. ताशकंद शहर के बीचोंबीच बने शहीद स्मारक में जो उन चौदह हज़ार बुद्धिजीवियों, विचारकों, लेखकों और कलाकारों की याद में बना है जिन्हें उज्बेकिस्तान को सोवियत रिपब्लिक का हिस्सा बनाने के जुर्म में एक साथ यहाँ लाकर कत्ल किया गया और यहीं दफना दिया गया था….. शहीद स्मारक का यह खूबसूरत समाधि स्थल मानो आज भी उस खूनी दिन को याद कर सिहर उठता है| तभी तो सिहर रहे थे दिल केआकार की बनी क्यारियों में खिले रंग-बिरंगे फूल….. सिहर रहा था सामने बने पुल के नीचे बहते बाँध का पानी जो कल हुई बारिश में मटमैला नज़र आ रहा था| मैं भी सिहरती हुई सामने हरे रंग की गुम्बद वाली मस्ज़िद की सीढ़ियों से लगी घास की ढलान पर सरपट उतर गई थी| वहीँ मिली कुछ उज्बेकी महिलाएं| उन्होंने मुझे घेरकर एक साथ कहा – “तूरिस्त….. तूरिस्त….. फोतो….. फोतो…..|” रमेश खत्री जी को मैंने कैमरा थमाया तो बोले- “आप भी अपने दुपट्टे से इन महिलाओं जैसा स्कार्फ बाँधिये|” महिलाओं ने मेरे सिर पर स्कार्फ बाँध मुझे अपनी जमात में शामिल कर लिया और वह पल मेरे कैमरे और उन महिलाओं के कैमरों में कैद हो गया| सूरज ढलने का नाम ही नहीं ले रहा था| रुस्तम ने बताया यहाँ ८:३० बजे सूर्यास्त होता है और सूर्योदय चार बजे सुबह….. यानी डिनर अच्छी खासी चमकती धूप के रहते लेना था| हम कल के बनिस्बत छोटे रेस्तरां में डिनर के लिये आये| भूख जोरों की लगी थी| हमारी मेजों पर सलाद और फल केले, सेब, आडू, खुबानी, चैरी आदि रखे थे जिन पर हम टूट पड़े| यहाँ का तरबूजा खूब लाल, रसीला और मीठा होता है| पेट तो फलों से ही भर गया था| सबका साथ देने को मैं डिनर टूँगती रही|

      लौटते हुए मैं सुधीर शर्मा वाली बस में थी| जिसकी गाइड ज़रीना थी| बेहद खूबसूरत, पच्चीस-तीस साल की लड़की| जब हम अपने होटल के लाउंज़ में थे मैंने उससे पूछा- “पढ़ती हो ज़रीना?”

      “नहीं मैम पढ़ाई तो कब की कम्पलीट कर ली| अभी यहीं ट्रैवल एजेंसी में जॉब पर हूँ|”

      “और शादी?” मैंने उसे छेड़ा|

      वह उदास हो गई….. “लव मैरिज़ थी मेरी, हस्बैंड छै: महीने पहले एक्सपायर्ड हो गया|बेटा है पाँच साल का और मदर-इन-लॉ| हम तीनों साथ में रहते हैं| उन्हें भी मुझे ही सम्हालना पड़ता है| वो ओनली सन था उनका|”

….. इस दर्द से मैं वाकिफ हूँ| मेरा हेमंत भी ओनली सन था मेरा….. मैं भी अकेली|

      मैंने ज़रीना को गले से लगा लिया….. उसने सुधीर शर्मा से कहा- “आपकी वाइफ़ बहुत ब्यूटीफुल और लवली हैं|”

      मैं कहना चाहती थी कि मैं इनकी वाइफ़ नहीं दोस्त हूँ कि सुधीर शर्मा ने होठों पर उँगली रख चुप रहने का इशारा किया| बाद में हम देर तक हँसते रहे| ज़रीना की हँसी लाउंज़ में खिली धूप सी बिखर गई|

      २६ जून का दिन पांचवें अंतर्राष्ट्रीय हिन्दी सम्मेलन की साहित्यिक गतिविधियों का दिन था| सुबह दस बजे आरम्भ हुए उद्घाटन सत्र में अध्यक्ष वरिष्ठ कवि बुद्धिनाथ मिश्रा थे| मुख्य अतिथि मॉरीशस में महात्मा गाँधी इंस्टिट्यूट में भारतीय अध्ययन शाला की प्रमुख डॉ. रेशमी रामधुनी थीं| विशिष्ट अतिथि हिन्दी अकादमी दिल्ली के अध्यक्ष हरिसुमन विष्ट, डॉ. शंभू बादल, डॉ. पीयूष गुलेरी, डॉ. धनंजय सिंह और एकांत श्रीवास्तव थे| सबसे पहले प्रतिभागियों का परिचय उन्हीं की ज़बानी दिया गया| उसके पश्चात् कथा लेखन एवं पत्रकारिता के क्षेत्र में उल्लेखनीय कार्य करने हेतु मुझे अंतर्राष्ट्रीय सृजनगाथा सम्मान २०१२ प्रदान किया गया| पुष्पगुच्छ, स्मृति चिन्ह एवं प्रमाण पत्र देकर मेरा साहित्यिक परिचय डॉ. जयप्रकाश मानस ने दिया| विदेशी धरती पर यात्रा प्रभारी विकी मल्होत्रा ने मुझे हिन्दुस्तान की बेटी और साहित्य जगत की शान कहकर मेरा जो मान बढ़ाया वो मेरी यादों में बस गया| बधाईयों की बौछारों के साथ सत्र की समाप्ति और होटल में ही लंच की व्यवस्था की घोषणा संचालक जयप्रकाश मानस ने की|

     लंच के बाद हम फिर ग्यारहवें फ्लोर पर स्थित हॉल में गए| विमोचन सत्र आरंभ हुआ| भारत के विभिन्न प्रदेशों से आये लेखकों की २८ कृतियों का विमोचन हुआ| मुम्बई की सुमन सारस्वत एवं देवमणि पांडे की पुस्तकों के विमोचन के बाद ही आयोजकों द्वारा अंतर्राष्ट्रीय हिन्दी सम्मेलन द्वारा आयोजित होने वाले अंतर्राष्ट्रीय आयोजन के निरंतर संचालन, समन्वय और लोकव्यापीकरण के लिये अंतर्राष्ट्रीय हिन्दी सम्मेलन के गठन का प्रस्ताव रखा| सभी ने अपनी सहमति प्रकट की| डॉ. बुद्धिनाथ मिश्र सर्वसम्मति से अध्यक्ष एवं डॉ. जयप्रकाश मानस समन्वयक के रूप में मनोनीत किये गये|भारत के प्रत्येक प्रदेश से एक-एक उपाध्यक्ष चुना गया| प्रतिभागियों को प्रमाणपत्र देने के पश्चात् रात्रि ९:३० पर सत्र की समाप्ति हुई| विकी बार-बार आकर चेता रहे थे कि जल्दी करिये वरना रेस्टॉरेंट बंद हो जायेंगे| चूँकि आज का दिन सम्मान समारोह के कारण विशेष था अतः भारतीय रेस्तरां रघु में भव्य रात्रि भोज का इंतज़ाम किया गया था| रेस्तरां मद्धिम रोशनी और लाल कार्पेट के कारण तिलिस्मी माहौल से युक्त था| उज्बेकी नर्तकियाँ हिन्दी फिल्मों पर नृत्य कर रही थीं और डिनर के साथ ही शामिल बार में शैम्पेन, वोदका, जिन मेहमानों को परोसी जा रही थी|थोड़ी देर बाद सभी मूड में आ गये| जिन्हें थिरकना था थिरके| मैंने भी जमकर नृत्य किया| जिसकी सभी ने सराहना की| एक प्रोफेशनल नृत्यांगना ने तो मेरे पास आकर यहाँ तक कहा कि- “यू आर अ वैरी गुड डांसर|” एक खुला और आत्मीय माहौल था वहाँ| 

      बस में सब तरोताजा दिख रहे थे….. रुस्तम ने गुडमॉर्निंग, नमस्ते और सलाम वालेकुम के अभिनंदन के साथ दिन की शुरुआत करते हुए बताया कि आज हम ताशकंद शहर से १२० कि.मी.दूर चिमगन पर्वत पर जायेंगे जो टिआनशान पर्वत माला से घिरा हुआ है जो बर्फीली चोटियों की वज़ह से बहुत खूबसूरत दिखता है| नवंबर से मार्च के बीच यहाँ एक से डेढ़ मीटर तक बर्फ गिर जाती है| हमें तो दूर पर्वतों पर भी बर्फ दिखनी शुरू हो गई थी| ताशकंद शहर पीछे छूटता जा रहा था और गाँव एक के बाद एक गुज़र रहे थे| रंग-बिरंगे फूलों और पकी-पकी लाल-लाल चेरी के गुच्छों से लदे पेड़ बड़े सुहावने, लुभावने लग रहे थे| हरे कच्चे फल वाले अखरोट के पेड़, चिनार जिसके पत्ते तांबई हरे थे, अंगूर के मंडप, आडू, सेब….. खुलकर प्राकृतिक संपदा बिखरी थी| वैली में भी गाँव रंग बिरंगे घरों वाले थे| तीन हज़ार वर्ष पुराना होने के बावजूद लगता था जैसे ताशकंद अभी-अभी नया बसा हो| उस जमाने में इन गाँवों के मुहल्ले में मदरसे, चायखाने और पानी की हौज हुआ करती थी| हौज का पानी पीने के काम आता था| दुकानों पर नोवचोय यानी नान, कुर्त यानी चीज़ और नास्वॉय यानी तम्बाखू चूना मिलता था जो आम उपयोग की चीजें थीं| अब तो ये चीज़ें गायब ही थीं बल्कि गाँवों की दुकानें आधुनिक वस्तुओं से सजी धजी नज़र आ रही थीं| आस-पास के पहाड़ इतने अद्भुत तरीके से कटावदार थे कि मैंने ऐसे पहाड़ पहले कभी देखे नहीं थे| जैसे मोटी-मोटी पथरीली परतों को पहाड़ की शक्ल में ढाल दिया गया हो| सिलेटी पर्वतों पर बादलों की काली छाया उन्हें और भी काला बना रही थी| बायीं तरफ स्कूल था जिसके तुरंत बाद एक तिकोनी झील थी| जिसकी सतह पर बादलों और पेड़ों का प्रतिबिम्ब झिलमिला रहा था,झील से लगे घास के मैदान में कुछ नवयुवक, नवयुवतियां फुटबॉल खेल रहे थे| रुस्तम ने बताया- “यहाँ का राष्ट्रीय खेल फुटबॉल है|”

अब चूँकि रास्ता लम्बा था इसलिए बस में बैठे-बैठे साहित्यकारों ने अपनी जिज्ञासाएँ रुस्तम से पूछना आरम्भ कर दीं| रुस्तम काफी जानकारी रखता था….. यानी आम गाइड से अधिक….. सबसे पहली जिज्ञासा शराब को लेकर…..

      “यहाँ वाइन बहुत पॉपुलर है| सबसे ज़्यादा मोनालिसा नाम की वाइन पसंद की जाती है|”

“बहुत नशीला नाम है वाइन का।”किसी ने चुटकी ली।

क्राइम?”


“नाम को नहीं| अपनी आज़ादी के इतिहास में उज्बेकिस्तान ने अब तक करप्शन और क्राइम पर पूर्णतया विजय पा ली है| चोरी, डकैती, लूट बिल्कुल नहीं| आपसी दुश्मनी में एकाध घटना कहीं घटित हो जाये….. बस उतना ही|सुन्नी बहुल बल्कि सुन्नी ही हैं यहाँ| शिया बस एक प्रतिशत ही हैं| यहाँ दो औरतों के पीछे एक मर्द का आँकड़ा है| यानी औरतें अधिक हैं| सभी पढ़ी-लिखी, आधुनिक संस्कृति से लैस|यहाँ स्कूल से लेकर कॉलेज तक पढ़ाई मुफ़्त है, सरकार मज़बूर करती है कि पढ़ो….. न पढ़ने की कोई वज़ह ही नहीं| नवमी तक स्कूल की पढ़ाई और फिर तीन साल तक कॉलेज| उसके बाद की डिग्रियाँ अपने खर्च से लेनी पड़ती है| छुट्टियाँ भी अधिक नहीं दी जातीं| सरकार कहती है- “काम करो, देश को मज़बूत बनाओ|” यहाँ २१ मार्च नववर्ष, ४ सितंबर स्वतंत्रता दिवस, ८ मार्च महिला दिवस, ९ मई विजय दिवस, (जर्मनी से रूस ने विजय पायी थी) ८ दिसंबर संविधान दिवस के रूप में मनाया जाता है| फिर बकरीद, मीठी ईद तो होती ही है| ईद में तीन दिन की छुट्टी होती है|

                सामने पार्केट सब्जी मार्केट था जहाँ लेटिन लिपि में लिखा था ‘पार्केट मार्केट’….. एक उज्बेकी साईकिल के कैरिअर पर अखबार लादे पैदल चल रहा था| यहाँ तुर्किस्तान, उज्बेकिस्तान, आवाज़, ताशकंद हकीकत आदि अखबार उज्बेकी भाषा के तथा अंग्रेज़ी का‘उजबेक रशन’ अखबार काफी बड़ी मात्रा में सर्कुलेट होता है| हिन्दी के अखबार की रुस्तम को जानकारी नहीं थी| साहित्य की थोड़ी बहुत थी तो बताया कि यहाँ के सबसे लोकप्रिय कवि हैं‘अलीशिर नवाई’ उन्होंने शीरी फरहाद, लैला मजनूँ काव्य रूप में लिखा है| मध्य एशिया के सबसे बड़े मध्यकालीन कवि नवाई का जन्म १४४१ में हुआ था|वे तुर्की मूल के थे और एक साथ ही राजनेता, दार्शनिक, भाषाविद्, चित्रकार और कवि थे| वे चुगताई भाषा-साहित्य के महानतम स्तम्भ थे| उनके नाम पर नवाई प्रदेश, नवाई शहर, नवाई हवाई अद्दम बैले थियेटर और ऑपेरा है| उनकी ग़ज़लें मुशायरों की शान हैं और उनकी रचनाओं का मंचन रंगकर्मियों का प्रिय विषय रहा है| आपके होटल के पास ही उनका स्मारक है जहाँ उनकी आदमकद मूर्ति है|”

      कोलकाता प्रभात वार्ता के कार्यकारी संपादक निर्भय देवांश ने मुझे जर्मन कवि बर्टेंड ब्रैख्त की नाटक और कविता की किताब लाने को कहा था| पूछने पर रुस्तम ने कहा- “नो आइडिया….. शॉपिंग के दौरान आप बुक स्टॉल पर पता कर लेना|”

यहाँ हिन्दी, उर्दू भी पढ़ाई जाती है| हिन्दी स्कूल लेवल पर मान्य है| एक उर्दू हिन्दी की यूनिवर्सिटी भी है|

      बाल्देर साई रिसॉर्ट आ गया था| जहाँ से हमें केबिल कार लेकर चित्तन पर्वत माला पर जाना था| केबिल कार तो उसे कह नहीं सकते, वो तो दो कुर्सियों वाला झूला था| जिस पर दौड़ते हुए चढ़ना था और दौड़ते हुए उतरना था| मेरे साथ आशा पांडे बैठीं|कैमरे हमने हाथ में ले लिये| झूला वैली से गुजरना था| नीचे देखने की सख्त मनाही थी….. चक्कर आ सकता है पर हमने कब हिदायतों की परवाह की है| वैली में पीले फूल खिले थे|कहीं कहीं पथरीली टेकरियाँ, कहीं झिलमिलाता पानी तो कहीं रुई की पोटलियों जैसे दिखते भेड़ों के झुंड….. पर्वत पर पहुँचे तो आसपास का कुदरती सौंदर्य देखकर मुँह से वाह-वाह निकल आया| सामने तार पर चिंदियाँ बंधी थीं….. मन्नत की चिंदियाँ| पर वहाँ न दरगाह थी, न मस्जिद फिर मन्नत किस बात की? थोड़ी देर में बारिश शुरू हो गई| एक टिन के शेड में कहाँ इतने लोग समाने थे| मैं छाता ले गई थी| मेरे छाते में एकांत श्रीवास्तव, रमेश खत्री, देवमणि पांडे….. जो भी आता छाता अपनी ओर झुका लेता| थोड़ी देर में बारिश बंद हो गई| इस बार झूले से उतरते हुए हम गाने लगे….. “चली, चली रे पतंग मेरी चली रे|’

      नीचे आने पर कुछ घोड़े वाले और बाइक वाले नज़दीक आये….. “मैडम हॉर्स राइडिंग? बाइकिंग?”

      बादल घिरे थे, हवा ठंडी….. हमने जैकेट, स्वेटर आदि पहन लिये| चारवाक् रिसॉर्ट पहुँचकर पहले होटल पिरामिड में लंच किया| बिल्कुल पिरामिड की शक्ल का हरा-सफेद होटल….. बेहद खूबसूरत| एक नहीं बल्कि चार पाँच होटलों का समूह| लंच के बाद बाँध देखने गए| बस से बाँध नीला और सिलेटी दिखा था, लेकिन पास जाने पर अद्भुत….. यह बाँध चिरचिक दरिया पर 170 मीटर ऊँचा है जिसका निर्माण कार्य 1977 से 1985 तक चला|दरिया का रुख ‘सिर’ नामक दरिया की ओर जाता है| उज्बेकिस्तान में इस तरह के 8 बाँध हैं जिनसे बिजली पैदा की जाती है| सामने पहाड़ की तलहटी में चारवाक् झील सतरंगी नज़र आ रही थी| हरा, नीला रंग उभरकर दिखाई दे रहा है| झील के किनारे रेतीले होने की वज़ह से इसे ‘चारवाक सी’ भी कहा जाता है| सीढ़ियाँ होटल के बाजू से झील तक जाती हैं जिनके दोनों बाजुओं पर रंग-बिरंगे फूलों और ऊँचे-ऊँचे घने दरख़्तों, लताओं वाले उद्यान हैं| कुछ लोग तैराकी कर रहे थे| यहाँ स्पीड बोटिंग, बॉलिंग, शूटिंग, पेंटवॉल, सौना आदि का आनंद भी उठाया जा सकता है|

      लौटते हुए दिन ढल रहा था| ढलती सुनहली धूप में घास की ढलान पर कुछ कज़ाकी एक बाड़े में घोड़ों को बाँध रहे थे|

“कज़ाकी और किरकिज़ लोग घोड़ी का दूध पीते हैं, घोड़ी के दूध में नशा होता है|”रुस्तम ने बताया- “वैसे उज्बेकिस्तान में गाय का दूध ही होता है भैंस यहाँ नहीं होतीं|”

हम भी थकान के नशे में थे इसीलिये समय गुज़ारने को अपने-अपने प्रदेश के लोकगीत गाते रहे| ताशकंद आते ही डिनर, फिर होटल वापिसी| वापिसी के दौरान बस में चर्चा छिड़ी कि पहले उज्बेक भाषा का नाम ‘चगताई’ था जो चंगेज खां के बेटे के नाम पर था| मुझे इस्मत आपा (चुगताई) याद आई| क्या पता उनका सम्बन्ध उसी वंश से हो|

रात बड़ी मनमोहक थी। होटल से दूर शहर की रोशनी बड़ी तिलस्मी लग रही थी।

सुबह नाश्ते के बाद कथा सत्र आरंभ हुआ जिसका संचालन मैंने किया| लंच का समय हो गया था लेकिन कथाओं के जादू ने लोगों को भूख का अहसास नहीं होने दिया| फिर भी रेस्तरां की समय सीमा भी ध्यान में रखनी थी लिहाज़ा कथाएँ जल्दी-जल्दी पढ़ी गईं और ब्रह्मा रेस्टॉरेंट में लंच के लिये गये| लंच के बाद मेगा प्लेनेट लोकल मार्केट में हमें शॉपिंग के लिये जाना था लेकिन उसके पहले हज़रत इमाम परिसर देखना था| रुस्तम ने बताया कि उज्बेकिस्तान के लोग ताशकंद को स्थानीय भाषा में तोशकेंट कहते हैं| बस में बैठे लोग दोहराने लगे- तोशकेंट….. तोशकेंट….. हज़रत इमाम परिसर बहुत अधिक विशाल, भव्य, ऊँची-ऊँची कार्विंग की गई मीनारों और विशाल दरवाजों वाला था| जूते बाहर उतारने पड़े क्योंकि अंदर इस्लाम धर्म की कुरान शरीफ रखी थी|सातवीं शताब्दी में ख़लीफ़ा ओथमन के द्वारा लिखी कुरान श़रीफ़ की मुख्य पांडुलिपि संगमरमर के चबूतरे पर लकड़ी की चौरासी पर खुली रखी थी| यह पांडुलिपि ओथमन ने हिरन की खाल पर लिखी थी| अंदर के कमरों में अलग-अलग समय की और भिन्न-भिन्न आकार-प्रकार की कुरान की कई प्रतियाँ रखी थीं| यहीं १९वीं सदी का अब्दुल काज़िम का मदरसा भी दर्शनीय है|जहाँ इस्लाम और शरीयत की शिक्षा लेने कज़ाक, किरगिज़, तातार तथा अन्य सीमावर्ती देशों के बच्चे पढ़ने आते थे|

शॉपिंग में मेरी ज़रा भी रूचि नहीं थी| मुझे भारतीय दूतावास जाकर अधिकारियों से मिलना था| जब भी कोई विदेशी भारतीय दूतावास जाता है तो वहाँ के मुख्य रजिस्टर में उसका नाम पता लिखकर फोटो चिपकाई जाती है| वहाँ के कल्चरल विभाग में कत्थक नृत्य सिखाया जाता है| दिल्ली की कत्थक नृत्यांगना समीक्षा कत्थक सिखाती हैं| उनके पचास विद्यार्थी हैं| दो सौ हिन्दी के विद्यार्थी हैं जिन्हें भारतीय दूतावास प्रशिक्षित करता है| शास्त्री स्कूल में हिन्दी पढ़ाई जाती है|

मॉल में घूमते हुए मैंने ताशकंद, समरकंद के दर्शनीय स्थलों की एक सी.डी. खरीदी और यूँ ही दुकानों में सामान देखते रहे| कुछ भी ऐसा नहीं दिखा जिसे खरीदा जाये| सब कुछ तो मुम्बई में मिलता है| रुस्तम हाफ डे करके घर चला गया था| अब हमारी बस का गाइड मिर्जा था| उसको दिये तयशुदा समय में हम ,मॉल से बाहर निकले तो न बस दिखाई दी और न हमारे अन्य साथी| अब क्या हो?मोबाइल फोन काम नहीं कर रहे थे और होटल का पूरा पता भी पास में नहीं था| टैक्सी वाले होटल तक जाने के 5 हज़ार सूम माँग रहे थे| वहाँ खड़े एक अंग्रेजी जानकार उज्बेकी ने हमारी मदद की थी और होटल का नाम बताने पर उसने पूरा पता भी हमें बता दिया….. उसी ने फिर चार हज़ार सूम में हमारे लिये टैक्सी तय करा दी थी| होटल लौटे तो पता चला कि ग्यारहवें फ्लोर पर कवि सम्मेलन चल रहा है| बड़ी कोफ़्त हुई कि हमने उसे मिस किया| विकी का आग्रह था कि डिनर के लिये आधे घंटे में तैयार हो जाओ और आज फिर विशेष रेस्टॉरेंट में रशियन डांस शो आदि के साथ डिनर का आयोजन किया गया है|

रात पूरे शबाब पर थी| ताशकंद की सड़कों पर कुछ उज्बेकी जोड़े चहलकदमी कर रहे थे|डिनर के बाद हम बस के इंतज़ार में होटल की सीढ़ियों पर बैठे थे ।अमूमन रातें ठंडी होती हैं यहाँ| एक उज्बेकी महिला गले की माला, ब्रेसलेट आदि बेच रही थी| काले क्रिस्टल स्टोन की माला जिसमें सफेद जगमगाता लॉकेट था,मैंने खरीदी।

      आज हमें उज्बेकिस्तान के महत्त्वपूर्ण शहर समरकंद जाना है| समरकंद मेरे लिये इसलिये और अधिक महत्त्वपूर्ण है क्योंकि बाबर यहीं का था और मध्यकालीन इतिहास में एम.ए. करने के कारण बाबर के बारे में मैंने विस्तार से पढ़ा था| समरकंद प्राचीन सभ्यता वाला शहर है| ‘सिल्क रोड’ के रूप में इस शहर की खास पहचान है| सन् 2001 में यूनेस्को ने इसे वर्ल्ड हैरिटेज़ की सूची में शामिल किया था| १४वीं सदी में समरकंद आमिर तैमूर की राजधानी हुआ करता था| यह २७५० साल पुराना शहर है| पहले इसका नाम अफ्रीसयाव था|

बाबर के पहले रहा होगा यह नाम क्योंकि बाबर के साथ तो समरकंद ही जुड़ा है| ताशकंद से समरकंद तीन सौ कि. मी. दूर है और हमें वहाँ जाने के लिये ‘रेगिस्तान’ नामक ट्रेन लेनी थी| हम नाश्ते के फौरन बाद स्टेशन आये| ट्रेन ने हमें ३.५० घंटे में बिना कहीं रुके समरकंद पहुँचा दिया| नॉन स्टॉप ट्रेन की बहुत फास्ट स्पीड थी|

      स्टेशन के बाहर बसें हमारा इंतज़ार कर रही थीं| बेतहाशा गर्मी और तीखी तेज धूप में समरकंद का स्थापत्य झिलमिल जाल सा बुन रहा था| जैसे अरेबियन नाइट्स का लुक होता है कुछ वैसा ही….. तीन मिलियन आबादी वाले इस शहर में ईरानी भाषा भी बोली जाती है| और भी भाषाएँ होंगी क्योंकि यहाँ उस्मानी, तुर्की सभी आये….. यानी कि मिलीजुली संस्कृति है यहाँ की| फुटबॉल स्टेडियम, कार फैक्ट्री आदि देखते हुए हम आमिर तैमूर के मक़बरे की ओर बढ़ रहे थे| समरकंद ऐतिहासिक महत्व रखता है|यहाँ के रहन-सहन में स्थानीय प्रभाव स्पष्ट दिखाई देता है| आमिर तैमूर का मकबरा जो ६५० साल पहले निर्मित हुआ था बहुत ही भव्य, विशाल है| यह काले, नीले और भूरे पत्थरों से बना है| इसके विशाल गेट पर नक्शा बना है जो विभिन्न कब्रों की जानकारी देता है| अन्दर कब्रें हैं….. काली कब्र तैमूर की….. उसके ऊपर उसके गुरु की कब्र संगमरमर से बनी है| आजू-बाजू पोतों की कब्रें हैं जिनकी मृत्यु तैमूर के जीवनकाल में ही हो गई थी| मकबरे की छत पर १४ किलो सोने से कार्विंग की गई है जो देखते ही बनती है| तैमूर की पाँच बीवियाँ थीं जिसमें उसकी सबसे प्रिय बीवी….. बीवी ख़ानम थी जो चिंगिस्तान की थी| मैंने एक बात गौर की….. यहाँ की औरतें ताशकंद की औरतों से ज़्यादा खूबसूरत थीं| मकबरे में खड़ी एक खूबसूरत औरत ने मेरे साथ तस्वीर खिंचवाई| रमेश खत्री जी कहाँ रुकने वाले थे उनकी भी तस्वीर खींचनी पड़ी| फिर हम रेजिस्टन स्क्वायर आये जहाँ १५वीं से १७वीं सदी के बीच बने तीन मदरसे हैं….. काफी लम्बे चौड़े मैदान में ये मदरसे बने हैं|

      लंचका समय हो चुका था| तभी रुस्तम ने घोषणा की कि आज आपका लंच ‘बीवी मुबारक’ के घर पर है| यानी पूरा शाकाहारी उज्बेकी खाना| बीवी मुबारक के घर जाते हुए हम जिन गलियों से गुज़र रहे थे उनके दोनों ओर मकान थे| मकान के अहाते में फलों के बाग थे| अखरोट, शहतूत, चैरी, आडू, सेब, नाशपाती के पेड़ फलों से लदे थे|पूरी गली अंगूर की लताओं के मंडप से आच्छादित थी| हरे-हरे कच्चे अंगूरों के गुच्छे लगे थे| बीवी मुबारक के घर के गेट में प्रवेश करते ही हमने आडू तोड़ कर खाए| घर बहुत सुन्दर दो मंजिला था|चिड़ियों का बहुत बड़ा पिंजड़ा था जिसमें रंग बिरंगी चिड़िया फुदक रही थीं| मैं उनके साफ सुथरे किचन में आ गई| वहाँ जो औरतें खाना बना रही थीं उन्होंने मेरे साथ तस्वीरें खिंचवाईं| अज़ीब क्रेज है तस्वीरों का| हमें ऊपर की मंजिल की बाल्कनी में खाना परोसा गया| विशाल मेजों पर जैसे ५६ भोग सजे थे| चावल और दाल का मिक्स सूप मैंने पहली बार चखा था| रोटियाँ भी कई किस्म की….. सब्जियाँ….. जिनमें नाम मात्र को मिर्च मसाला था| छिलके सहित रोस्टेड नमकीन बादाम….. सूखे मेवे की अद्भुत पेशकश….. फलों से भरी डलियाँ दालें,चटनियाँ, सलाद, मीठे पकवान की खुशबूदार तश्तरियाँ….. लज़ीज़….. लाज़वाब….. यम्मी….. चखते चखते पेट भर गया|समय कम था| हमने बीवी मुबारक को शुक्रिया, फिर मिलेंगे कहा और सीधे ड्राई फ्रूट्स मार्केट आ गये| धूप काफी तेज थी| मेरे छाते को सब ललचाई नज़रों से देख रहे थे| मार्केट से लगा हुआ बीवी ख़ानम का मकबरा था|इतना बड़ा सूखे मेवों का बाजार मैंने पहली बार देखा| समरकंद के सूखे मेवे विश्व प्रसिद्ध हैं| काला द्राक्ष, किशमिश, अखरोट, चिलगोज़े, बादाम तो हमें मुट्ठी भर कर चखने को दिये जा रहे थे| विक्रेता औरतें खुश हो-होकर फोटो खिंचवा रही थीं| मैं तो मेवों से अधिक उन औरतों की खूबसूरती पर लट्टू थी|लगभग सभी के सामने के चार दाँत सोने से मढ़े थे| पूछने पर पता चला कि यह भी औरतों के श्रृंगार का एक हिस्सा है|वे हमारे साथआई औरतों की चूड़ियाँ छू-छूकर देख रही थीं|मेरे माथे की बिंदी उनके आकर्षण का केन्द्र थी| मैंने अपनी बिन्दी निकालकर उनके माथे पर लगा दी| उन्होंने अपना स्कार्फ मेरे माथे पर बाँधकर फोटो खिंचवाई| एक दूसरे की भाषा से अनभिज्ञ इस तरह हमारे दिलों का मिलना मीठा अहसास करा गया| लेकिन तभी अखरोट खरीद चुकने के बाद जब मैंने मूल्य चुकाने को बैग में हाथ डाला तो पासपोर्ट और रुपये (जोकि सौ डॉलर देने पर ढाई लाख सूम मिले थे) वाला छोटा पर्स गायब था| मेरे तो होश उड़ गए| शायद बस में छूट गया हो सोचकर मैं रमेश खत्री जी के साथ बस की ओर भागी लेकिन बसें बंद थीं और ड्राइवर का कहीं अता-पता न था| जंगल की आग की तरह मेरे सहयात्रियों तक पासपोर्ट गुम होने की खबर फैल गई| मेरा उतरा हुआ चेहरा देखकर मिसेस निर्मोही ने कहा- “आपका पासपोर्ट मिल जायेगा| शायद आप कहीं रखकर भूल गई हैं|” तभी ललित लालित्य जी बोले- “एक गिलास शहतूत का जूस लें और तरोताजा हो जायें| आप उदास अच्छी नहीं लगतीं| पासपोर्ट बस में या होटल में मिल जायेगा| हम आपके लिये दुआ करेंगे पर आपसे ट्रीट भी लेंगे|”

सहयात्रियों की सांत्वना ने मन को धीरज दिया|अखरोट तो क्या खरीदते, हाँ शहतूत का शर्बत रमेश जी ने पिलाया और पूरे बाज़ार का चक्कर लगाते हुए उन्होंने मुझे चॉकलेट भी खरीदकर दिये| पाँच हजार सूम की मैं उनकी कर्ज़दार हो गई| बस में लौटे पर सीट पर पासपोर्ट बैग नहीं था| बस में चर्चा का विषय मेरा पासपोर्ट ही था| किसी ने कहा- “आप तो गणपति का ध्यान कर एक नारियल की मन्नत बोल दो| पासपोर्ट मिल जायेगा आपको|”

      इस वक़्त मैं अपने संग हुए इस पासपोर्ट प्रसंग को भूल जाना चाहती थी| समरकंद आना दुबारा तो होगा नहीं इसलिए मैंने खुद पर काबू रखा| मैंने देखा सामने ऊँची पहाड़ी पर कुछ कब्रें बनी थीं जो मुझे फिर से उदास करने लगीं| यहाँ अंतिम संस्कार के लिये सरकार से भूमि खरीदनी पड़ती है| पूरी पहाड़ी कब्रों से भरी पड़ी थी| इंच-इंच भूमि का आबंटन ज़िंदगी की समाप्ति पर….. उफ|

      ‘ग्रेट सिल्क रोड’ जापान, इंडोनेशिया और यूरोप तक है| तैमूर जो बाबर का दादा था इसी रोड से भारत गया था| वह ऊँट पर सवार होकर गया था| उज्बेकिस्तान के लिये तैमूर फ़रिश्ता था पर मेरे देश के लिये तो वह लुटेरा ही था| मैं देख रही थी ग्रेट सिल्क रोड को….. जैसे तैमूर का ऊँटों का काफिला चला जा रहा हो, जिन पर लदा है भारत का बेशकीमती खज़ाना….. सोना, चाँदी, हीरे, जवाहरात, खूबसूरत, कमसिन लड़कियाँ जिनके भाई, पिता, पति को कत्लेआम में मौत के घाट उतार दिया गया था| तभी सामने चौराहे के बीचोंबीच तैमूर की बड़ी सी पत्थर से बनी मूर्ति दिखी जिसे बस में बैठे ही हमने चारों ओर से देखा|भावनाओं की आँधी ने जैसे आँखों पर परदा सा डाल दिया| फिर और कुछ देखा न गया|

      हम रेलवे स्टेशन की ओर बढ़ रहे थे| एक मस्ज़िद के सामने मुसलमानों का हुजूम नमाज़ के लिये खड़ा था| वे सफेद पायज़ामे, सिलेटी कुर्ते और सफेद जालीदार टोपी लगाये था| सड़कों पर पीले रंग की टैक्सियाँ दौड़ रही थीं|

      रेलवे स्टेशन से हमने वही नॉनस्टॉप ट्रेन ली और ताशकंद की ओर रवाना हो गए| अब सिर्फ कल का दिन शेष था और मुझे एम्बेसी, कल्चरल विभाग और तैमूर म्यूज़ियम देखना था| कल रात को ही भारत वापिसी थी|मैंने होटल पहुँचकर रिसेप्शन में पता किया| म्यूज़ियम तो कल खुला है लेकिन एम्बेसी और कल्चरल विभाग शनिवार के कारण बंद रहेगा| कमरे में लौटी तो पासपोर्ट पलंग पर रखा मिला|

      सुबह नाश्ते के बाद हम पाँच मित्र टैक्सी लेकर म्यूज़ियम की ओर रवाना हुए| म्यूज़ियम के बाद हमें चियर्स पब में मिलना था| जो इस देश में हमारा अंतिम सफर होगा| मैंने अपना सूटकेस रिसेप्शन में रखवा दिया| हरे गुम्बद और सफेद स्थापत्य का आलीशान म्यूज़ियम बेमिसाल था| लंबे चौड़े प्रांगण में दीवार से सटे फूलों के उद्यान और सामने एक बड़े से सफेद नीले रंग के बोर्ड पर आमिर तैमूर का आदमकद चित्र जिसमें अंग्रेजी व लेटिन भाषा में उसका नाम, मृत्यु की तिथि आदि अंकित थी| प्रवेश टिकट एक हज़ार सूम और  कैमरे के भी एक हज़ार सूम| हमने अपने-अपने कैमरे जमा कर दिये और तय हुआ कि आशा पांडे के कैमरे की ही टिकट लें क्योंकि वे अच्छी फोटोग्राफर हैं| जब हम टिकट ले चुके तो टिकट काउंटर पर बैठी महिला ने राजकपूर का स्केच दिखाया और कहा कि मैं उस पर अपने हस्ताक्षर करूँ| सोवियत संघ के लोग राजकपूर और नर्गिस के दीवाने हैं जिनकी फिल्मों का युवा पीढ़ी तक में क्रेज़ है| मैंने उसे बाहर आने को कहा|वह पचास वर्षीय सौम्य महिला थी जिसका नाम जुल कुमार था| वह धाराप्रवाह हिंदी बोल रही थी ।उसने बताया कि उसने ये स्केच २० मई १९७८ में ताशकंद फिल्म फेस्टिवल के दौरान होटल ग्रेंड प्लाज़ा में बनाया था और राजकपूर एक घंटे तक मूर्ति के समान उसके सामने बैठे रहे थे| जुल कुमार अपने पिता की बारहवीं औलाद हैं और उसके सामने के चार दाँत सोने से मढ़े हैं और वह राजकपूर की फिल्मों के गाने गाने लगी….. मेरा जूता है जापानी….. आवारा हूँ….. वगैरह| सच है बॉलीवुड की फिल्में पूरे विश्व में भारतीय संस्कृति की वाहक हैं| जुलकुमार ने हाथ जोड़कर हमें नमस्ते कहा|

      बदले में हमने सलाम वालेकुम कहा तो हँसकर बोली- “दसविदानिया”

“यानी”

“फिर मिलेंगे….. अलविदा|”

      म्यूज़ियम एक मंजिला था। जिसमें समरकंद के दर्शनीय स्थलों के मॉडल के साथ ताजमहल का मॉडल भी था और तमाम चीजें आमिर तैमूर की और उसके वंशजों की थीं| जो विशेष चीज़ थी वह थी तैमूर की पलकों के बाल जो एक पारदर्शी डिबिया में थे| अद्भुत….. कैसी चीज़ें सँजो कर रखते हैं?

      हम जल्दी से म्यूज़ियम देखकर फुरसत हो गये इसलिए वापिस होटल में ही आ गये| लंच के बाद शॉपिंग का प्रोग्राम था टिकुम मॉल और अलाईस्काई मार्केट में लोगों ने जम कर शॉपिंग की| मैंने सखी-सहेलियों के लिये उपहार खरीदे और चियर्स पब की ओर चल दिये जहाँ हमारा आखिरी सफर था| समोसे, आलू की रसेदार सब्जी और सैंडविच खाते हुए गाला नृत्य देखना मेरे लिये बेहद रोमांचक था| 

ताशकंद पत्थरों का नगर कहा जाता है जहाँ कोमल, नाजुक भावनाओं वाला क़स्बा है ‘गज़लकंद’ यानी ग़ज़लों की नगरी….. जहाँ हवाएँ शेरो शायरी गुनगुनाती हैं….. लेकिन जहाँ ज़मीन के नीचे….. चप्पे-चप्पे पर पेट्रोल के कुएँ हैं….. क्या कॉम्बिनेशन है…..और यह भी कि पेट्रोल १६०० सूम प्रति लीटर है और एक लीटर मिनरल वॉटर की कीमत दो हज़ार सूम|

      एयरपोर्ट आते हुए रास्ते में रुस्तम ने कहा- “आप दिल्ली जाएँ तो दिल्ली को मेरा सलाम कहना| दिल्ली में दो साल रहकर मैंने हिन्दी की पढ़ाई की थी|” मैं अभिभूत थी| सरहदें कभी भावनाओं को नहीं बाँट सकतीं|

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