आत्मकथा : मेरे घर आना ज़िन्दगी (47)

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इन दिनों यूट्यूब चैनलों की बाढ़ सी आ गई है दिल्ली के ललित कुमार मिश्र का यूट्यूब चैनल वर्जिन स्टूडियो नाम से है। उन्होंने मेरी कविताएं लघुकथाएं और कहानियां मांगी ।सत्तर परसेंट रॉयल्टी की बात भी की ।रचनाएं अमेजॉन और किंडल में भी उपलब्ध रहेंगी ।उन्होंने मेरा अकाउंट खोला और “गौतम से राम तक” कविता मेरी ही आवाज में शूट कर वीडियो बनाया। फिर डिजिटल वॉयस वर्ल्ड यूट्यूब चैनल जयपुर के हरिशंकर व्यास और सुनीता राजपाल ने मेरी 8 कविताओं के अलग-अलग वीडियो बनाकर मेरी कलम और आवाज को विश्व स्तर पर पहुंचा दिया। सत्यनारायण पटेल ने भी अपने बिजूका ब्लॉग के लिए मेरी कविताएं लीं। धीरे-धीरे कविताओं की ओर मेरा रुझान बढ़ता गया और मैंने पाया कि कविताएं मेरी ऊर्जा हैं। जिनकी नसैनी पर चढ़कर मैं गद्य का फलक तैयार करती हूँ ।शायद यही वजह है कि मैं सम्मेलनों में कविताएं गजलें कम ही पढ़ पाती हूं ।मुझे लगता है अगर मैंने ऐसा किया तो श्रोताओं द्वारा उनकी पसंद की गई कुछ ही कविताओं तक सिमटकर रह जाऊंगी। जबकि गद्य के साथ ऐसा नहीं है। हमारी रचनाएं श्रोताओं द्वारा पसंद की जाती हैं। तो विस्तार भी पाती हैं। गद्य में मेरे नाम को महत्वपूर्ण मानते हुए उर्मिला शिरीष ने मुझे स्पंदन में कहानी पाठ के लिए आमंत्रित किया। ललित कलाओं के लिए समर्पित यह संस्था विभिन्न विधाओं पर ढेर सारे पुरस्कार भी देती है। इस बार का विषय था “स्त्री सृजनात्मकता एक यात्रा “इसी कार्यक्रम में बरसों बाद मेरी निर्मला भुराड़िया से मुलाकात हुई। इंदौर में दैनिक अखबार नई दुनिया में वे फीचर एडिटर हैं और जब मैं मुंबई में थी उन्होंने मुझे खूब छापा था ।इसी कार्यक्रम में शरद सिंह और इंदिरा दांगी भी आई ।मेरी कहानी “अजुध्या की लपटें” को श्रोताओं का अच्छा प्रतिसाद मिला ।एक तो कहानी सांप्रदायिक दंगों के बीच उभरती प्रेम कथा पर थी। दूसरे छोटी थी तो कम समय में खत्म हो गई।

1 अप्रैल को विदिशा में बालकवि पुष्प की पुण्यतिथि पर सम्मेलन था। भोपाल से हम चार मित्रों ने मिलकर टैक्सी ली और सुबह 7:00 बजे विदिशा के लिए रवाना हो गए। सम्मेलन दिन भर चला। 6 बजे भोपाल वापसी । 9 बजे घर पहुंचे। एग्जरशन इतना अधिक हो गया कि दूसरे ही दिन से मसल्स पेन ने धर दबोचा। लगा जैसे कोई आरी से अंदर ही अंदर मेरी दाहिनी जांघ और कूल्हे को काट रहा है। जल बिन मछली जैसी तड़पती रही ।

पदमा शर्मा को विदिशा में वचन दे आई थी कि शिवपुरी में मध्य प्रदेश साहित्य सम्मेलन द्वारा आयोजित कार्यक्रम में कहानी पाठ के लिए जरूर आऊंगी। दर्द और तड़प में भी कि एक-दो दिन में दर्द चला जाएगा मैंने बेंजामिन से कहकर बस से रिजर्वेशन भी करा लिया था। पर नियति को कुछ और मंजूर था। डेढ़ महीने बिस्तर तक ही कैद होकर रह गई। होम्योपैथी, आयुर्वेदिक दवाएं और दर्द……. असहनीय दर्द …..प्रकृति के पास भी पूरा हिसाब रहता है। मैं अपनी उम्र को भूलकर काम में जुटी रहती थी ।साहित्यिक समारोहों के आयोजन लेखन और अध्ययन……  अब क्या उम्र रही थी कि इतनी मेहनत कर पाऊं बिना आराम किए ? सो दर्द देकर आराम करा दिया प्रकृति ने ।जब किसी भी तरह दवाओं से आराम नहीं मिला तब नवोदित कवयित्री मधुलिका सक्सेना जो विश्व मैत्री मंच की सदस्य है ने फिजियोथैरेपी की सलाह दी। इलाज बहुत महंगा था ।फिजियोथैरेपिस्ट डॉ माहेश्वरी ने मधुलिका के दोनों घुटने जिनके लिए ऑपरेशन की सलाह दी गई थी ठीक कर दिए थे सो भरोसा बढ़ा ।₹600 प्रतिदिन की फीस देनी होगी। डॉ मशीनें लेकर घर आने लगे एक बड़ी मशीन तो घर में ही परमानेंट रख दी । 23 दिन इलाज चला।

शिवपुरी में मेरी तस्वीर के बैनर भी बन गए ।जाना नामुमकिन ।पदमा शर्मा जी ने उदास होकर कहा “क्या पता अगले साल मैं शिवपुरी न रहूं ।”

मेरी आवाज भी नम थी ।

“आना तो चाहा था पदमा जी पर…….”

और इस “पर “को ललित लालित्य द्वारा ग्वालियर में हो रहे पुस्तक मेले के दौरान दो दिवसीय सम्मेलन में मुझे कहानी पाठ के लिए मिले आमंत्रण के लिए ललित लालित्य से फोन पर असमर्थता के दौरान दोहराना पड़ा।  कहानी पाठ मेरे अतिरिक्त ममता कालिया, चित्रा मुद्गल और उर्मिला शिरीष का भी था ।

यूं ही कभी-कभी जिंदगी से मौके मुट्ठी में बंद रेत से फिसल जाते हैं ।जून में जाना था विद्या सिंह के पास देहरादून, आशा शैली के पास लालकुआं ,मई में वृंदावन में मेरे नाम सजलरथी साहित्य सम्मान भी घोषित किया गया पर अटेंड कहां कर पाई।

सच है वक्त अपनों की पहचान करा देता है। मेरी बीमारी पर कोई भी मेरा रिश्तेदार मुझे देखने नहीं आया ।सबके पास नौकरी से छुट्टी न मिलने का बहाना था ।यह बात मेरी समझ से परे थी ।कब किसकी जिंदगी सहज प्रवाह में चलती हैं। परेशानियां भागदौड़ हर एक के साथ हर वक्त चस्पां रहती हैं। पर उसी में से अपनों के लिए वक्त निकालना पड़ता है। पर नहीं निकाला वक्त उन लोगों ने । और वह वक्त मेरे अंतस में घाव करके चला गया। शायद में वैसी तकदीर लेकर नहीं आई इसलिए दिल के घाव को बिना मलहम के उघाडे ही रखे हूं।यही कसक तो मुझे हौसला देगी ।अब तो बाढ़ तो दूर, भीतर की चटक की आहट से भी सचेत हो जाती हूं।

हो चुकी ग़ालिब बलाएं सब तमाम  एक मर्गे नागहानि ( मृत्यु बाकी )और है।

लेकिन भोपाल कि मेरी मित्रों ने इस बीमारी में मेरा बहुत ज्यादा साथ दिया। कोई न कोई मुझे रोज देखने आता था और फल सब्जी आदि अपने साथ लाता था। दवाइयों के लिए पूछ लेता था ।मेरे घर का दरवाजा दिन भर खुला रहता था। रात को मैं किसी तरह दीवार पकड़कर दरवाजे तक जाती थी। और उसे बंद कर देती थी और सुबह खोल देती थी। जबलपुर से केशव मुझे देखने आए। केशव ने पूछा “दीदी घर का नंबर बता दें।”

 मैंने कहा ” उस बिल्डिंग में जो दरवाजा खुला मिलेगा वह तुम्हारी दीदी का घर है अब देखते हैं कैसे पहुंचते हो मुझ तक ?”

और केशव सचमुच खुले दरवाजे से अंदर आए और बोले “लो दीदी मैं आ गया”

यही मित्र मेरे लिए संजीवनी का काम करते हैं और इन्हीं के सहारे में रफ्ता रफ्ता ज़िन्दगी की राह पर हूं।

मेरी बीमारी के दौरान भोपाल के कार्यक्रमों में हिस्सा लेने मुंबई से सुलभा कोरे आई, हरीश पाठक आए, पटना से सतीश राज पुष्करणा आए, सूर्यबालाजी मुंबई से आई और यह सभी मुझसे मिलने मेरे घर आए।

सुलभा ने मुझे अपना कविता संग्रह “तासीर” भेंट किया जिसकी भूमिका पुष्पिता अवस्थी ने लिखी थी। सुलभा के संग वक्त का पता ही नहीं चला ।उस दौरान दर्द भी कम महसूस हुआ। ढेरों बातें, मुंबई का साथ गुजरा अतीत ……मेरी छोटी छोटी खुशियां इन्हीं के संग तो जुड़ी हैं।

हरीश पाठक ने बताया कि लखनऊ में कार्यक्रम के बाद गेट टूगेदर में प्रियदर्शन ने खूब नमक मिर्च लगाकर वह सामान और सम्मान की गाथा बयान की। सच है दूसरों का दर्द बयां करने वाले लेखक भी वक्त आने पर कैसे अपनी पर उतर आते हैं ।मगर हम तो हर फिक्र को धुएं में उड़ा देने का जज्बा रखते हैं तो मुस्कुरा कर कह दिया “चलिए इस बहाने चर्चा तो हुई हमारी।”

डॉ सतीश राज पुष्करणा जिन्हें मैं दादा कहती हूं कल्पना के संग आए। कल्पना भट्ट को वे बेटी मानते हैं। वो उन्हें बाबा कहती है। पुष्करणा दादा ने कल्पना से कहा  “संतोष मेरी बहन है तुम इसे बुआ कहा करो कल्पना।”

तब से मैं कल्पना की बुआ हो गई। लंच हमने साथ लिया। उन्हें इंदौर लघुकथा सम्मेलन में जाना था ।वही से वे पटना के लिए निकल गए। बता रही थी कल्पना कि रास्ते भर वे मेरे ही लिए चिंतित दिखे। कैसे रहती हैं अकेली संतोष ।कठिन है उनका जीवन ।भोपाल में कोई रिश्तेदार नहीं उनका। तुम उनसे बीच-बीच में फोन करके हालचाल पूछती रहना। वैसे भी सेल्फमेड है, जुझारू ,आयरन लेडी।” और यही बात सूर्यबालाजी ने कही कि “तुम्हारी हिम्मत की दाद देती हूं संतोष।”

बस यही वाक्य तो मेरा हौसला बढ़ाते हैं। इसी हौसले की वजह से न चल फिर सकने की स्थिति में भी लगभग 35 लोगों की घर में ही मौजूदगी में हेमंत जयंती का आयोजन कर डाला ।अजय श्रीवास्तव बड़ा सा फूलों का बुके लेकर आए। हेमंत की पसंद के लाल गुलाब। उन्होंने मेरे द्वारा आयोजित होने वाले कार्यक्रमों के लिए हबीबगंज स्टेशन के सामने नर्मदा क्लब में जगह ऑफर की ।अजय जी कवि हैं और बांसुरी भी बजाते हैं।

जया और नेहा किचन में।  3 किलो भजिए और 3 किलो जलेबीयां  मंगवाई थीं। वे प्लेटों में सबके लिए परोस रही थीं। उसके पहले  23 मई को जीजाजी बड़ा सा केक लेकर आए थे ।जिस पर हेमंत लिखा था। मधुलिका बेसन के लड्डू । न जाने कैसे सब हेमंत की पसंद की चीजें अपने आप जुटती जाती हैं। लोग भी जुड़ जाते हैं….. महफिल में सब के द्वारा उसकी कविताएं पढ़ना ,उसे स्मरण करना, लगता है जैसे कोई अद्वितीय शै है या दैवी वरदान ।नहीं रह कर भी हर वक्त मेरे साथ है।

हॉल खचाखच भर गया ।कुर्सियां कम पड़ गईं तो चादर बिछ गई ।दूसरे ही दिन दैनिक भास्कर, हरी भूमि ,नव दुनिया ,पत्रिका आदि अखबारों में समाचार छपा ।मुंबई से मित्रों के फोन आए ।कैसा रहा समारोह? क्या किया? बताओ ……

बताऊं कि हेमंत तो पूरी दुनिया का हो गया। पूरी दुनिया उसकी हो गई। अब बताने को रह ही क्या गया।

क्रमशः

लेखिका संतोष श्रीवास्तव

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