आत्मकथा : मेरे घर आना ज़िन्दगी (54)

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अभी पिछ्ले दिनो किसी ने सवाल किया था “ ओह आप अकेली रहती हैं?कैसे रह लेती हैं?” अब मैं उसे क्या बताती कि मैंने अपने एकांत को रचनात्मक चैनल में डालकर मथ डाला है ।आखिर जीवन और दर्शन ने हमें यही सकारात्मक रवैया दिया है । हमारे चलने फिरने, हंसी-खुशी, काम धाम के नीचे पता नहीं कितने खंडहर छिपे होते हैं। क्या हम टटोल पाते हैं उन्हें ।

मेरे सरोकार मेरी प्रतिबद्धता जन और जीवन के प्रति है। मैं मानती हूं कि लेखन एक ऐसा सफर है जहां अतीत और भविष्य दोनों मेरे हमसफ़र हैं। मैं तमाम वैज्ञानिक प्रगति ,भूमंडलीकरण, बाजारवाद ,छिछली राजनीति, दृश्य श्रव्य मीडिया, इंटरनेट और साहित्य की चुनौतियों के सामने जिरह बख्तर बांधकर खड़ी हूं।

एक बार मुंबई से उखड़ कर पुनः मुंबई में आ बसना फिर से मुंबई से उखड़कर औरंगाबाद चले जाना,औरंगाबाद से उखड़कर भोपाल आ बसना  मात्र मेरी संकल्प शक्ति ही थी।

हालांकि घर किराए का है। सोच लिया है किराए में ही रहना है ताउम्र। घर भी खरीद लूं तो किसके लिए! मुझे तो जरूरत ही नहीं है और मेरे बाद उस घर को संभालने वाला कौन होगा यह फिर चिंता का विषय हो जाएगा। इसलिए इस ओर से किनारा कर लिया है।

पांचवी मंजिल के मेरे फ्लैट के चारों ओर हरा-भरा परिदृश्य है ।ठंडी हवाएं हैं। उगता सूरज है। डूबता सूरज है। और मैं हूं और मेरी अछोर फैली तनहाई। मैं इस तन्हाई को एंजॉय करती हूं क्योंकि जानती हूं यही जीवन की सच्चाई है ।चाहती हूं  हेमंत की यादों को और और जियूं। अपनी अतृप्ति  को तृप्ति में बदल डालूं। भले ही मुझे कदम दो दुनियाओं में एक साथ रखने पड रहे हैं। एक यथार्थ की दुनिया, दूसरी सपनों और कल्पनाओं की दुनिया। पर ………

जामे हर जर्रा है सरशारे तमन्ना मुझसे

किसका दिल हूं कि दो आलम से लगाया है मुझे।

समाप्त

लेखिका संतोष श्रीवास्तव

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