दोहे और ग़ज़लें : नरेश शांडिल्य
दोहे और ग़ज़लें
जागा लाखों करवटें, भीगा अश्क हज़ार
तब जा कर मैंने किए, काग़ज काले चार.
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छोटा हूँ तो क्या हुआ, जैसे आँसू एक
सागर जैसा स्वाद है, तू चखकर तो देख.
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मैं खुश हूँ औज़ार बन, तू ही बन हथियार
वक़्त करेगा फ़ैसला, कौन हुआ बेकार.
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तू पत्थर की ऐंठ है, मैं पानी की लोच
तेरी अपनी सोच है, मेरी अपनी सोच.
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मैं ही मैं का आर है, मैं ही मैं का पार
मैं को पाना है अगर, तो इस मैं को मार.
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ख़ुद में ही जब है ख़ुदा, यहाँ-वहाँ क्यों जाय
अपनी पत्तल छोड़ कर, तू जूठन क्यों खाय
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पाप न धोने जाउँगा, मैं गंगा के तीर
मजहब अगर लकीर है, मैं क्यों बनूँ फ़क़ीर.
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सब-सा दिखना छोड़कर, ख़ुद-सा दिखना सीख
संभव है सब हों ग़लत, बस तू ही हो ठीक.
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ख़ाक जिया तू ज़िंदगी, अगर न छानी ख़ाक
काँटे बिना गुलाब की, क्या शेखी क्या धाक.
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बुझा-बुझा सीना लिए, जीना है बेकार
लोहा केवल भार है, अगर नहीं है धार.
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सोने-चाँदी से मढ़ी, रख अपनी ठकुरात
मेरे देवी-देवता, काग़ज-क़लम-दवात.
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अपनी-अपनी पीर का, अपना-अपना पीर
तुलसी की अपनी जगह, अपनी जगह कबीर.
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वो निखरा जिसने सहा, पत्थर-पानी-घाम
वन-वन अगर न छानते, राम न बनते राम.
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पिंजरे से लड़ते हुए, टूटे हैं जो पंख
यही बनेंगे एक दिन, आज़ादी के शंख.
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जुगनू बोला चाँद से, उलझ न यूँ बेकार
मैंने अपनी रौशनी, पाई नहीं उधार.
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बस मौला ज़्यादा नहीं, कर इतनी औक़ात
सर ऊँचा कर कह सकूँ, मैं मानुष की ज़ात.
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पानी में उतरें चलो, हो जाएगी माप
किस मिट्टी के हम बने, किस मिट्टी के आप.
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अपने में ज़िंदा रखो, कुछ पानी कुछ आग
बिन पानी बिन आग के, क्या जीवन का राग.
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शबरी जैसी आस रख, शबरी जैसी प्यास
चल कर आएगा कुआँ, ख़ुद ही तेरे पास.
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जो निकला परवाज़ पर, उस पर तनी गुलेल
यही जगत का क़ायदा, यही जगत का खेल.
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कटे हुए हर पेड़ से, चीखा एक कबीर
मूरख कल को आज की, आरी से मत चीर.
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भूखी-नंगी झोंपड़ी, मन ही मन हैरान
पिछवाड़े किसने लिखा, मेरा देश महान.
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हर झंडा कपड़ा फ़क़त, हर नारा इक शोर
जिसको भी परखा वही, औना-पौना चोर.
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सब कुछ पलड़े पर चढ़ा, क्या नाता क्या प्यार
घर का आँगन भी लगे, अब तो इक बाज़ार.
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हम भी औरों की तरह, अगर रहेंगे मौन
जलते प्रश्नों के कहो, उत्तर देगा कौन.
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भोगा उसको भूल जा, होगा उसे विचार
गया-गया क्या रोय है, ढूँढ नया आधार.
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लौ से लौ को जोड़कर, लौ को बना मशाल
क्या होता है देख फिर, अंधियारों का हाल.
ग़ज़ल
तुम्हारे बाद किसी की नहीं है चाह हमें
तमाम उम्र को काफ़ी है अब ये दाह हमें
तुम्हीं पे छोड़ दिया है सफ़र अब आगे का
तुम्हीं दिखाओ तो कोई दिखाओ राह हमें
तुम्हारे साथ का ऑरा* हमारे हर – सू है
लगेगी कैसे कहो अब कोई भी आह हमें
हम आंख मूंद के सोचें तुम्हें तो लगता है
ख़ुशी से चूम रही है कोई निगाह हमें
ख़ुदा ने ख़्वाब में आकर हमें ये बोल दिया
कि हैं मुआफ़ मुहब्बत में सौ गुनाह हमें
ग़ज़ल का साज़ बजे है,कभी कभी ही सही
तुम्हारी दाद मिले है, कभी कभी ही सही
अगरचे दर्द है तारी तमाम हस्ती में
जिगर में पीर हंसे है, कभी कभी ही सही
यूं पतझरों की सदाओं के बीच हैं, फिर भी
बसंत राग छिड़े है, कभी कभी ही सही
नहीं है ऐसा कि दिल का हमें पता ही नहीं
हमें भी इश्क़ रुचे है, कभी कभी ही सही
तुम्हारा हिज्र कभी वस्ल को भुला न सका
अभी भी हूक उठे है, कभी कभी ही सही
नरेश शांडिल्य
9868303565