कहानी : स्वीकृति पत्र – अलका प्रमोद
स्वीकृति पत्र
जब से आकृति ने मोबाइल पर बताया कि वो आ रही है व्ंादना की सांसें मानो थम सी गयी हैं , वह बार बार उसके कहने के ढंग से अनुमान लगाने का प्रयास कर रही है कि आकृति पर उसके मेसेज को पढ़ कर क्या प्रतिक्रिया हुई होगी। कभी उसे लगता अब उसकी बेटी बड़ी हो गयी है समझदार है वो उसकी बात को समझेगी वहीं दूसरा मन कहता, नही नही वह यह किसी स्थिति में स्वीकार नही कर सकती । आकृति बचपन से ही अपने पापा की लाड़ली बिटिया रही है । यदि रजत को घर लौटने में देर हो जाए तो वह पापा की प्रतीक्षा में जागती रहती थी ,जब तक पापा उसे गुडनाइट किस्सी न दे दें वह सोने नही जाती थी। वंदना को याद है बचपन मंे जब कभी खेल खेल में वंदना और रजत उससे पूछते कि वह मम्मा पापा में किसे अधिक प्यार करती है तो बिना सोचे उसकी उंगली पापा की ओर ही उठती थी । वो बात दूसरी है कि वंदना झूठमूठ रोने का नाटक करती तो वह उसकी गोद में बैठकर उसके आंसू पोंछती, उसे प्यार करती पर उसके बेस्ट फ्रेंड पापा ही थे। आयु के सोपान चढ़ते चढ़ते वंदना से उसके स्नेह के धागे अधिक सघन बुनते गये पर पापा का स्थान वह कभी नही पा सकी। ऐसे में आज वंदना का इतना कठोर निर्णय निश्चय ही आकृति को स्वीकार्य नही होगा और निश्चय ही वह पापा की पाली में जा खड़ी होगी। पर जो भी हो बहुत हो चुका अब वंदना को निर्णय लेना ही था।वंदना मन ही मन न जाने कितनी बार आकृति के समक्ष अपना पक्ष रखने के लिये दिये जाने वाले तर्कों को रट चुकी थी पर उसे संशय था कि आकृति में इतना धैर्य है कि वह उसकी पूरी बात सुन सके । इसीलिये तो उसने मेसेज करके सूचना दी थी कम से कम तुरंत तो सवाल जवाब की परीक्षा से बच जाएगी। पर बकरे की मां कब तक खैर मनाएगी कभी तो सामना करना ही था और आज वह घड़ी आ ही गयी थी।
अब आकृति वयस्क हो गयी है और उसे पूरी बात बतानी ही होगी भले ही उसे आघात लगे पर वंदना विवश है उसे यह आघात देने को।
कितना कठोर आघात था वह जिसने उसके घर संसार ,उसके अस्तित्व और उसके विश्वास की दीवारों को एक प्रहार में ही घ्वस्त कर दिया था। वह समझ ही न पाई कि उसके घर संसार की ऊपर से एक्रिलिक पेण्ट लगी चमचमाती दीवारेंा को विश्वासघात की दीमक अन्दर ही अन्दर खोखली कर चुकी है। वह तो विश्वास की डोर थामें 1500 किमी दूर बैठे रजत के साथ बनायी गृहस्थी में पूरी तरह से लीन हो गयी थी। वह भूल गयी कि उसने भी कालेज में न जाने किन किन प्रतियोगिताओं में कितने मेडल अपने नाम किये थे ,वह भूल गयी कि उसके पास स्नातकोत्तर की डिग्री है उसे बस याद रहा तो अपना वह छोटा सा आशियाना जिसमें वह थी, रजत थे और उसकी सांस सांस में बसी हदय का टुकड़ा आकृति थी। उसे तो बस दिखायी देता था घर के कोने कोने में बिखरा स्नेह । जब रजत ने बताया था कि उनका ट्रांसफर जोराहाट के ऐसे इलाके में हो गया है जहां न स्कूल है न कोई सुविधा तो आकृति के भविष्य को देखते हुए उन दोनो ने यही निर्णय लिया कि वह लखनऊ में ही रह कर आकृति को पढ़ाएगी और रजत माह में एक बार आ जाया करेंगे । यद्यपि वंदना के लिये यह प्रस्ताव सुखद नही था पर बेटी के भविष्य के लिये दोनो ने यह दूरी भी सह ली।
पर दोनो ने कहां, यह दूरी सहने की जिम्मेदारी भी वंदना के ही कंधों पर आन पड़ी। दो साल में ही रजत एकाकीपन बर्दाश्त नही कर पाए और उन्होने अपना एकाकीपन दूर करने के लिये वहीं एक विकल्प ढूंढ लिया। वंदना को संभवतः यह पता भी न चलता और वह बाहर के थपेड़ों से निश्चिंत अपने आशियाने में मगन रहती । पर एक बार रजत आये हुए थे और वो नहाने गये थे तभी उनके मोबाइल पर रिंग बजी। वंदना के पूछने पर कि कौन बोल रहा है उधर से जो कहा गया उसने वंदना को संज्ञा शून्य कर दिया। वंदना तो स्वयं को रजत के जीवन की धुरी माने बैठी थी वह सोच भी नही सकती थी कि उसका कोई विकल्प हो सकता है।
रजत गुनगुनाते हुए बाथरूम से निकला तो अवाक् बैठी वंदना को देख कर बोला ‘‘ कहां खोयी हैं मैडम आपका हीरो तो इधर है ’’।
और कोई समय होता तो वंदना भी इतरा कर कोई फिल्मी डायलाग रजत की ओर उछाल देती पर इस समय उसके अंदर जो झंझावत चल रहा था उसने उसके सम्पूर्ण अस्तित्व की नींव हिला दी थी। किसी प्रकार अपने आंसुओं पर काबू पाते हुए उसने भरसक निर्लिप्त भाव से कहा ‘‘ तुम्हारी पत्नी रूमा की कॉल थी ,चलते समय तुम्हे बुखार था इसीलिये वो पूछ रही थी कि अब तबियत कैसी है’’ ।
अब सकपकाने की बारी रजत की थी उसने बात को हवा में उड़ाने का असफल प्रयास करते हुए कहा ‘‘ वो वो कोई गलत काल होगी मुझे क्या हुआ है मैं तो बिल्कुल ठीक हूं और मेरी प्यारी पत्नी मेरे सामने साक्षात बैठी है तो कॉल कहां से आएगी’’?
कहते कहते रजत ने वंदना को बाहों के घेरे में लेने का प्रयास किया, पर वंदना ने उसे झिटक दिया। उसके समक्ष से पर्दा उठ चुका था और अब उसे बहुत कुछ स्पष्ट दिख रहा था जिसे वो देख कर भी नही देख पायी थी। रजत का कभी साड़ी तो कभी पर्स ले जाना और यह कहना कि उसके दोस्त ने अपनी पत्नी के लिये मंगाया है , आने का अंतराल बढते जाना, कॅाल करने के अन्तराल बढ़ना वगैरह वगैरह…..
अभी तक तो वंदना की अंाखों पर विश्वास का इतना मोटा चश्मा चढ़ा था कि उस पार का सच दिखायी ही नही पड़ा था, आज जब चश्मा टूटा तो उसकी आंखे उस रोशनी को बर्दाश्त नही कर पा रही थी।
उसने रजत से बस एक ही बात पूछी थी ‘‘ रजत ऐसा क्यों किया?’’
रजत समझ चुका था कि नाटक से पर्दा गिर चुका है अब और झूठ नही चलेगा अतः उसने दूसरी चाल चली उसने वंदना के समक्ष समर्पण करते हुए क्षमा की गुहार लगायी अपने एकाकीपन की दुहाई दी पर विश्वास की दीवारे इतनी खोखली हो गई थीं कि उन्हे रजत के तर्क खड़ा करने में असमर्थ थे। रजत ने भावनाओं का पांसा फेंका, कहा कि वह उसे प्यार करता है वंदना और आकृति तो उसका जीवन हैं, वो उसके बिना नही रह सकता ।
पर एक सच यह भी था कि दूर जोराहाट में भी कोई उसके नाम का सिंदूर लगाये उसकी विश्वास का चूड़ा पहने बैटी थी और अनभिज्ञ थी रजत के दोहरे जीवन से।
वंदना ने बस एक ही प्रश्न पूछा ‘‘ और क्या होगा तुम्हारी दूसरी पत्नी का,क्या उसके बिना रह पाओगे,’’
रजत की चुप्पी ने बहुत कुछ कह दिया। व्ंादना ने घर छोड़ने का निर्णय ले लिया पर अब रजत ने आखिरी दांव फेंका, उसने उसके समक्ष एक प्रश्न खड़ा कर दिया कि क्या वह आकृति को पापा का प्यार दे पाएगी, क्या वह उसे सब सुख सुविधाएं दे पाएगी।वंदना के पास इन प्रश्नों का उत्तर न था ।यह एक कटु सत्य था कि अब इस आयु में वह कितना भी प्रयास कर ले अब अपने पांव पर खड़ा होने में उसे लम्बी राह तय करनी होगी और तब तक वह आकृति को वह सुख सुविधाएं कैसे दे पाएगी जिनकी वह अभ्यस्त है और आकृति का पापा के लिये प्यार? वह कहां से दे पाएगी वंदना उसे ? आकृति के कोमल मन पर तो वह दुख का काला साया ….नही नही ,कभी नही पड़ने दे सकती।
वंदना के मन में अपने स्वाभिमान और आकृति के भविष्य और उसके सुख को ले कर द्वन्द चलता रहा । एक मां के समक्ष पत्नी हार गयी ।वह भले चिंदी चिंदी हो कर बिखर गयी थी पर आकृति के लिये उसने अपने अस्तित्व के टुकड़ों को समेटना होगा ।वही तो उसका सब कुछ है बेटी के लिये वह कुछ भी कर सकती है कुछ भी त्याग सकती है अपना अहम्, स्वाभिमान। वह जानती थी आकृति पापा के बिना नही रह पाएगी फिर उसे क्या अधिकार है उसके सिर से पिता का साया छीनने का ?
विवश हो उसने अपने स्वाभिमान का गला घोंट दिया ।बस इसी बात में रजत ने उसका सहयोग किया कि वंदना के कहने पर वंदना के उससे नाता तोड़ने का बावजूद वह पहले के समान आता रहा और आकृति की हर आवश्यकता पूरी करता रहा। रजत और वंदना के कुशल अभिनय ने आकृति को उनके मध्य आयी दरार की भनक भी न लगने दी।
अब जब आकृति एमबीए करके मल्टीनेशनल कम्पनी में जाब करने लगी और अचिन्त्य का हाथ जीवन भर के लिये थाम लिया तो वंदना की सजा समाप्त हुयी ,वह मुक्ति के लिये छटपटा उठी। उसे विश्वास था कि आकृति का आंचल इतनी उपलब्धियों और खुशियों से भर चुका है कि वह इस आघात के दर्द को उन खुशियों के मलहम से सह सकेगी।इसी लिये वंदना ने मेल से आकृति को पूरी बात लिखते हुए रजत से अपने अलग होने का निर्णय लिख भेजा।
यद्यपि वह जानती थी कि आकृति कहेगी कि जब इतना जीवन काट दिया तो अब ऐसे ही रहती रहिये । वह पापा को जस्टीफाई करने के तर्क अवश्य ढूंढ लेगी पर अब वंदना नही रुकेगी कोई भी शक्ति उसे नही रोक सकती चाहे वह उसकी अपनी बेटी क्यंो न हो।इतने वर्षों में तो उम्र कैद में भी रिहाई मिल जाती है।
कालबेल का आवाज ने वंदना को वर्तमान की कठोर धरती पर ला पटका उसका हदय ऐसे धड़कने लगा जैसे किसी परीक्षार्थी का हृदय परीक्षक के समक्ष जवाब देने से पहले धड़कता है।दरवाजा खेलने जाना भी उसक लियेे दुष्कर हो रहा था, पांव उसका साथ ही नही दे रहे थे।
आकृति ने आ कर अपने चिरपरिचित बिंदास अंदाज में कहा ‘‘ मम्मा जल्दी से अपने हाथ की कड़क चाय बनाइये बहुत थक गई हूं ’’
वंदना परेशान हो गई उसकी सांसे रुकी जा रही थीं परिणाम जानने के लिये और इस लड़की को चाय की पड़ी है।
पर फिर भी वह चाय और नमकीन ले कर आयी । संभवतः आकृति भी चाय के बहाने कुछ समय चाह रही थी वह कहने का साहस जुटाने के लिये जिसे कहने आयी थी दोनो मां बेटी पहली बार एक दूसरे से दृष्टि चुरा रही थीं।
अचानक आकृति वंदना के पास आ कर उसके गले लग कर बोली ‘‘ मम्मा आय एम वेरी सारी ’’।
‘‘पर बेटी मैं अब नही रुकूंगी’’ वंदना ने दृढ़ स्वर में कहा।
‘‘मम्मा मैं आप को कब रोक रही हूं ,बल्कि मैं तो यह कह रही हूं कि आय एम सॅारी कि मेरे कारण आपने इतने सालों तक अपने स्वाभिमान को कुचला और घुट घुट कर जीती रहीं। मुझे पता है मम्मा आप जैसी स्वाभिमनी स्त्री के लिये यह सब कितना कठिन रहा होगा पर सिर्फ मुझे पूर्णता देने के लिये, मेरे मन में पापा की छवि न खराब हो, मेरा बचपन कुंठित न हो, इसके लिये आप मन ही मन सुलगती रहीं ’’ और आकृति फफक फफक कर रो पड़ी।
वंदना की जान में जान आयी अब उसे किसी बात का मलाल नही था। मां बेटी जब गले लग आंसुओं में अपना दुख संताप आक्रोश बहा चुकीं तो आकृति ने वंदना और रजत के तलाक के कागज वंदना के समक्ष हस्ताक्षर हेतु रख दिये। वंदना ने आगे बढ़ कर अपने स्वाभिमान का स्वीकृति पत्र हस्ताक्षर करने में क्षण भर भी नही लगाया।
- अलका प्रमोद