कहानी : बुझती आँखों का अधूरा सपना – सुधा जुगरान

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बुझती आँखों का अधूरा सपना

”चाय पीएगी?” माँ की आवाज से ईरा की तंद्रा टूटी। चिहुंक कर उसने सामने देखा। 82 साल की माँ, अभी भी बस सिर्फ माँ ही थी। अपनी वय, शारीरिक व मानसिक तकलीफ से परे, सिर्फ माँ…उसकी फिक्र में.., ”ठंड में आई है स्कूटी चलाकर…पी ले, नहीं तो कॉफी पी ले,”
”नहीं माँ, मुझे कुछ नहीं पीना है…प्लीज, बैठ जाओ तुम,” वह तनिक झुंझलाकर बोली। माँ ही जो ठहरी, किसी भी उम्र में झुंझलाने में नहीं झिझकते हैं माँ पर। माँ के चेहरे पर हल्का सा स्याह अंधेरा छाया और फिर तुरंत ही मिट गया। वे सामने रखी कुर्सी पर ही हीटर के पास बैठ गईं। वह फिर से नज़रें उठाकर बिस्तर पर असहाय लेटे पिताजी को देखने लगी।
87 साल के पिताजी पिछले कुछ महीनों से भीषण तकलीफ से गुज़र रहे थे। उन्हें प्रोस्टेट ग्लैंड का कैंसर डिटेक्ट हुआ था। वे इतने जीवट व मजबूत थे कि उनकी तकलीफ सरलता से सामने वाले तक पहुँच ही नहीं पाती थी। जानेअनजाने उन दोनों भाई बहन को भी उनकी यही जीवटता विरासत में मिल गई थी। जब तक खुद ही न छलक जाए, उनकी तकलीफ भी कोई समझ नहीं पाता था।
पिताजी का कालापीला पड़ता चेहरा, दिन प्रति दिन कमजा़ेर होता जा रहा था। माँ दिन रात उनकी सेवा में जुटी थी, इस उम्मीद में कि एक दिन पिताजी फिर से ठीक होकर, उसी तरह तैयार होकर, सुबह नाश्ता कर, ड्राइवर के साथ कार में बैठकर कोर्ट चले जाएंगे।
”माँ, पिताजी ने कुछ खाया भी है सुबह से,” ईरा आंसुवों की नमी छुपाती हुई बोली।
”नहीं…खा ही तो नहीं रहे हैं, बस थोड़ा जूस वगैरह….जब से ये टैस्ट शुरू हुए हैं, तब से बीमार ही होते जा रहे हैं। पर ठीक नहीं हो रहे….वो डॉक्टर तो ठीक है न, जिससे तेरे पिताजी का इलाज चल रहा है,” माँ उसे विश्वास में लेकर पूछती है। माँ को रोग तो पता है पिताजी का, पर कितना है, क्या है, असलियत पता नहीं।
”हां माँ…” वह द्रवित सी हो माँ के नजदीक कुर्सी खिसका कर बोली, ”भला विनय कोई भी कमी करेगा। सबसे अच्छे डॉक्टर से इलाज चल रहा है,”
”तेरे पिताजी कह रहे थे, अस्पताल में भर्ती करा दो उन्हें,” वह मतिभ्रम जैसी स्थिति में माँ को निहारने लगी…क्या जवाब दे।
पिताजी की कीमोथेरेपी चल रही थी। हर हफ्ते जाना पड़ता है। अभी तक तो विनय अकेले ही संभाल रहा था, पर अब जब पिताजी की हालत ज्यादा खराब होने लगी तो दोनों भाई बहन जाते हैं।
इस हफ्ते नहीं हो पाई कीमोथेरेपी, यूरिन इनफेक्शन के कारण, बदन में सूजन आ गई थी। जिससे इनफेक्शन की दवाइयां देनी पड़ी। तबीयत कुछ ज्यादा ही बिगड़ गई और जो खाना पीना थोड़ा बहुत चल रहा था, वह बन्द हो गया। ऐसे में कीमोथेरेपी नहीं हो सकती थी।
”माँ, जितनी देखभाल हम घर में कर सकते हैं, उतनी हस्पताल में नहीं हो सकती। फिर घर में तुम भी पिताजी के हर समय साथ हो…अस्पताल में तुम भी हर वक्त नहीं रह पाओगी। विनय की नौकरी भी है, सारी छुट्टियां भी खत्म हो गईं हैं उसकी। पूरी तरह से अस्पताल में, घर छोड़कर मैं भी नहीं रह पाऊँगी। फिर जरूरत भी नहीं है, घर में अपने कमरे में उन्हें ज्यादा अच्छा लगेगा,” वह माँ को दिलासा देती हुई बोली।
माँ की आंखें डबडबा आईं। उम्र कुछ भी हो पर न अपनों का मोह छूटता है और न अपने प्राणों का। पिताजी आधी नींद जैसी अवस्था में थे। उन्होंने धीरे से करवट बदली। वे हल्का हल्का कराह रहे थे।
”पिताजी कहीं दर्द हो रहा है क्या?” वह नजदीक जाकर उनके कान के पास मुंह ले जाकर बोली। जवाब में उन्होंने हाथ हिला दिया। जिसका स्पष्ट संकेत था। उनसे इस समय बात मत करो।
”अच्छा आइसक्रीम तो खाले, वैसे ही रखी है…तू काफी दिन से खा ही नहीं रही,” माँ फिर विषयान्तर करती हुई बोली।
उसका मन फिर झुंझलाने को हुआ माँ की तरफ देखा, वे आशा भरी नज़रों से उसकी तरफ देख रही थी। माँ है न, ध्यान हर वक्त बच्चों के खाने पीने पर ही लगा रहता है। पता है, वह आइसक्रीम किसी भी मौसम में खा लेती है। उसकी पसंदीदा आइसक्रीम हमेशा फ्रिज में रखी रहती है। मना करने के बावजूद, 82 साल की उम्र में भी माँ, अक्सर पैदल चलकर पास की दुकान से उसके लिये आइसक्रीम हमेशा खुद ही खरीदकर लाती है।
उसका दिल एकाएक भर आया। आंखें न चाहते हुये भी छलक गईं। भरी आंखों से माँ की तरफ देखते हुए बोली, ”अच्छा, मैं खा लूंगी…तुम आराम से बैठो,” कहकर वह किचन की तरफ चली गई।
सोचने लगी, पता नहीं कब तक और है यह दृश्य, कि माँ पूछ रही है और वह झुंझला रही है। पिताजी भी अक्सर करवट बदलते हुए बीमारी में भी पूछ लेते हैं, ”कुछ खिलाया भी है इसे, दौड़ाती रहती हो किसी न किसी काम के लिए हर वक्त,”
बीमारी से जूझ रहे पिता कब अलविदा कह जाएं और उनके जाने से टूट चुकी माँ, न जाने कब जीवन से जूझने के अपने सारे हथियार समेट ले। एकाएक अंदर से आती आरी जैसी सिहरन से उसे ठंडा पसीना छूट गया। जिंदगी के सच को भला कोई कैसे नकार सकता है। वह फ्रिज से आइसक्रीम निकालकर बाउल में डालने लगी।
जब तक बड़ों का साया सिर पर होता है, खुद को कितना छोटा व लाडला सा महसूस करते हैं न। लेकिन देखते देखते यह छतरी अब छिनने वाली है, मालूम है पर कुछ कर नहीं सकती वह।
”तू पी. एच. डी. क्यों नहीं करती…?”
”इतनी उच्चशिक्षा दिलाई थी तुझे, क्या फायदा हुआ….नौकरी भी नहीं की तूने…?”
”एक लेखन का हूनर आया था तुझ पर मेरा, वह भी तूने घर गृहस्थी में उलझकर बेकार कर दिया?.”
पिताजी के कुछ सवाल थे जो वे हमेशा बोलते थे और वह हमेशा सुनती थी लेकिन जवाब नहीं दे पाती थी। जब उम्र कम थी तब इन्हीं सवालों पर मन ही मन गुस्सा आ जाता था। छोटे बच्चे के साथ गृहस्थी की व्यस्त दिनचर्या में उलझी वह, उनके वक्तव्य के पीछे के मंतव्य को न समझ पाती। पिता के सामने अक्सर चुप रहती लेकिन माँ के सामने उखड़ जाती।
”तो न पढ़ाते,” वह झुंझला कर कहती, ”मैंने तो नहीं कहा था कि मेरी शादी इतनी जल्दी कर दो, अभी मैने पढ़ाई खत्म ही तो की थी। कितना कहा था, मुझे पी. एच. डी. करने दो, कुछ नही ंतो बी. एड. ही करने दो, पर तब सुनी किसी ने मेरी,?” वह पिताजी पर आया सारा गुस्सा माँ पर उतार देती।
”मैं क्या करूं बेटा, तेरे पिताजी को तुझसे बहुत उम्मीदें हैं…तू उनकी बहुत लायक बेटी, वे चाहते हैं तू खूब उन्नति करे,”
”तो शादी नहीं करनी थी न इतनी जल्दी,” उसकी आवाज़ थोड़ी ऊंची हो जाती थी।
”शादी का उन्नति से क्या संबध है?” उसकी आवाज़ बाहर बरामदे में अखबार पढ़ते पिताजी तक पहुंच जाती। थोड़े दिन के लिये मायके आयी थी पर पिताजी के उपदेश सुन सुनकर वह भन्ना गई थी।
वह फिर झंुझलाने को हुई। पर माँ आंखों ही आंखों में उसे शांत होने का इशारा कर रही थी।
”चुप हो जा, वे तेरे भले की ही तो सोचते हैं”
वह अपने ह्रदय की कशमकश थामे, पिछले बरामदे में जा बैठी। ऐसा नहीं है कि ललित से कोई शिकायत है उसे। पर अपने बारे में कुछ भी सोचना बहुत मुश्किल था ललित जैसे पति के साथ। ललित की सोच में शायद पत्नी का भविष्य उसका पति और बच्चे थे। पत्नी का अपना कुछ नहीं होता, सिवाय घर, किचन व बच्चे संभालने के। उसे गलती से उच्चशिक्षित पत्नी मिल गई थी। नहीं भी मिलती तो एक साधारण शिक्षित व गृहकार्य में दक्ष पत्नी भी उसके जीवन को संपूर्ण बना देती।
अब यदि पिता के सामने ललित के विषय में कुछ कहेगी तो ललित को ही बुरा भला कहने लगेंगे। ‘नालायक कहीं का…इतनी योग्य बीवी के लायक ही नहीं था‘ यह भी तो सहन नहीं होता उससे। वह हमेशा अजीब सी कशमकश से भर जाती है। एकतरफ पिता की उम्मीदें थी। जिन्होंने, जमाने, परिवार व रिश्तेदारों के विपरीत जाकर उसे उच्चशिक्षा दिलाई थी। एक तरफ पति की कुछ अलग तरह की उम्मीदें थीं। जहां उसकी शिक्षा सिर्फ शान का विषय थी और एक तरफ उसके खुद के सपने थे, जिन्हें कभी कोई रास्ता ही नहीं मिला।
विज्ञान विषय भले ही पसंद के न रहे हों। लेकिन अच्छे नम्बरों से प्रथम श्रेणी पाती रही। इसलिए क्योंकि मेहनत करने की काबिलियत उसमें हमेशा से रही। लेकिन अपने दिल दिमाग के झंझावतों को तब न समझ पाती थी। अपने सपने किन रंगों में ढालने हैं, उन रंगों को चयन करने की क्षमता नहीं थी 20-21 साल की उम्र में। जब वह अपने लाइब्रेरी कार्ड पर कोर्ष की किताबें लाने के बजाय, प्रसिद्व लेखकों व लेखिकाओं की किताबें लाकर गई रात तक पढ़ती रहती।
हिन्दी साहित्य के प्रति पागल…उसकी नज़रों के सामने कुछ भी आता, बस उसे पढ़ना होता। लेकिन अपने इस पागलपन को मूर्तरूप देने का आत्मविश्वास और निर्णय लेने की क्षमता ही कहां थी तब। एकाएक याद आ गया उसे वह क्षण, जब 13 साल की उम्र में पिताजी की डांट ने कलम पकड़ा दी थी।
पढ़ाई पर डांट खा रहे वे भाई बहन सिटपिटाए से अपने कमरे में बैठे, किताबें फैलाए पढ़ने का नाटक कर रहे थे और पिताजी दहाड़ रहे थे।
”दूसरे बच्चों को देखो, कितना कुछ करते हैं वे और एक तुम हो…सिर्फ पढ़ाई, और इस लड़की से यह भी नहीं होता कि कुछ लिखकर अपने स्कूल की पत्रिका में दे दे,”
पिता की दहाड़ व बड़बड़ाहट के बीच…एक अंकुर फूटा दिल में, ‘क्या वाकई, मैं भी लिख सकती हूं…कोशिश तो कर ही सकती हूं‘ सोचकर छुपछुपा कर एक कहानी लिख डाली थी। नाम दिया ”कोई ऐसा घर” और डरते डरते हिन्दी विभाग की हेड को पकड़ा दी। क्योंकि उम्मीद नहीं थी, इसलिए पता भी नहीं किया। लेकिन आश्चर्य चकित रह गई थी, जब कहानी स्कूल पत्रिका ‘गुंजन‘ के हिन्दी कॉलम में प्रकाशित हुई। लेकिन पिताजी पढ़कर पता नहीं क्या क्या कहेंगे और कितनी गलतियां निकालेंगे। इसलिए भाईयों को दिखाकर पत्रिका छिपा दी।
लेकिन एक दिन पिता की डांट फिर पढ़ाई पर, और तीनों भाई बहन सिटपिटाए से कमरे में। छोटे भाई ने कहानी छपने की शिकायत कर डाली।
”इधर लाओ पत्रिका” पिता का गुस्सा एकाएक शांत हो गया। कोई चारा नहीं था। पत्रिका देकर वह कमरे में छिप गई। पिताजी ने जोर जोर से कहानी पढ़ी और आलोचना का इंतजार कर रही उसे ढेर सारी शाबाशी दे डाली। डांट खाते खाते कितनी अच्छी लगी थी उस दिन वह शाबाशी। उस कहानी और पिता की उस दिन की तारीफ ने जीवन की धारा ही मोड़ दी थी। मन में एक नया सपना अंगड़ाई ले बैठा था, लेखिका बनने का, और वह अपने उस अल्हड़ सपने में रंग भरने की असफल कोशिश करने लगी थी।
कॉलेज की पढ़ाई खत्म करते करते छिट पुट लिख भी रही थी। जो स्थानीय पत्र पत्रिकाओं में छपता रहता था। लेकिन पढ़ाई खत्म करते ही शादी, आखिरी पेपर के एक हफ्ते बाद ही शादी की डेट थी।
”अरे, इतनी देर से खड़ी क्या सोच रही है” माँ उसके सामने खड़ी थी। वह चिहुंक गई। पता नहीं वह कितनी देर से ऐसे ही खड़ी थी। आइसक्रीम की ब्रिक फ्रिज में रख वह आइसक्रीम खाने लगी।
”माँ, अब अटैंडेंट की जरूरत है, पिताजी 1-2 बार गिर भी गए हैं। पैर कमजो़र हो गये हैं, तुमसे नहीं संभल पाएगा अब, सुबह शाम को तो विनय रहता है पर,”
”तेरे पिताजी ठीक तो हो जाएंगे न,?” माँ की आवाज फिर भर्रा गई। वह माँ का चेहरा पढ़ने लगी। दिल भर आया था। दिल किया माँ को गले लगा ले पर उन्हें कमजोर नहीं करना चाहती थी और न खुद होना चाहती थी। इसलिए बोली,
”देखते हैं माँ, इलाज तो सही चल रहा है। कोशिश पूरी हो रही है” माँ का चेहरा अविश्वास की गर्त से भरकर धुंआधुआं सा हो गया। पर वह झूठी दिलासा नहीं देना चाहती थी, माँ वस्तुस्थिति स्वीकार कर ले, यही ठीक है।
आइसक्रीम खातेखाते वह कमरे में पिताजी को झांक कर देख आयी और पिछले बरामदे की अपनी प्रिय जगह पर जाकर कुर्सी पर बैठ गई। यादों का कारवां फिर बहने लगा। जिसमें कुछ टूटे सपने थे, कुछ मीठी यादें, कुछ छूटा हुआ, सोचा हुआ, अप्राप्य सा, अनभोगा हुआ अब अतीत हो चुका भविष्य था।
इकलौती बेटी के लिए पिताजी के सपने बेटों से भी बड़े थे। लेकिन उस समय के रीत रिवाज…शादियां समय से हो जानी चाहिए, इसके पक्षधर भी थे। लेकिन शादी के बाद उसने चाहे खुद के लिए सपने देखना बंद कर दिया था पर उनकी आंखों ने उसके लिए सपना देखना न छोड़ा कभी।
वे उसमें अपनी प्रतिछाया देखते थे। वह हूनर जो लेखनी के रूप में उसे उनसे मिला था। वह दृढ इच्छा शक्ति, जो कुछ भी नया करने व सीखनेे के प्रति उनमें थी। वह दिमाग जो उसने उनसे विरासत में पाया था। उदार ह्रदय, हमेशा दूसरों की सहायता करने के लिए तत्पर, रिश्तों को हर हाल में निभाने व संभालने की जद्दोजहद, उम्र को कहीं पीछे धकेल कर, कुछ भी कर देने की अदम्य इच्छा जो उनमें थी, वही सब एक पालक की नज़र से वे अपनी पालिका में देखते थे।
लेकिन भला पति, पिता की नज़र कहां से लाते। उनको उसका गुणवान होना तो दिखता पर होनवार होना न दिखता। उसे कभी कोई शिकायत नहीं हुई ललित से, उनके नज़रिए से। पत्नी घर बसाने व जिंदगी खूबसूरत बनाने के लिए होती है। उनकी सोच बस इतनी ही थी। वह तो शायद कलम का साथ भी कब का छोड़ चुकी होती अगर पिताजी की डांट डपट, ताने उलाहने, अक्सर उसे छलनी न कर देते।
और फिर वर्षों बाद पिताजी की डांट डपट ने एक बार फिर कलम अनाड़ी से हो चुके हाथों में दोबारा थमा ही दी। कुछ किस्मत, कुछ विरासत में मिला हूनर, सफलता हमेशा पहले प्रयास व पहले कदम पर मिली उसे, और उत्साह से एक बार फिर चलना शुरू कर दिया।
पत्रिकाओं में निरंतर छपती रचनाओं, पत्रों व समीक्षाओं की ओजपूर्ण भाषा चाहे दूसरों को भले ही पसंद आती हो, पर उसे संपादक महोदय की अस्वीकृति से अधिक डर, पिताजी का रहता था, जो उसकी एक एक रचना का इतना महीन पोस्टमार्टम करते कि वह अपनी ही रचना को पराए सृजन की तरह देखती और सोचती, ‘उसने क्यों लिखा‘? अगली बार कुछ और कोशिश करनी पड़ेगी।
रचनाएं तो छपने लगीं थीं, पर लाख टके का सवाल अभी भी बाकी था, जबकि उसका बेटा कॉलेज में आ गया था।
”तू पी. एच. डी. क्यों नहीं करती?”
बस इस एक सवाल पर आकर उसके सारे किन्तु परन्तु दगा दे जाते। आगे रास्ते बंद थे और फिर खाई थी एक कदम आगे बढ़ाया और खाई में गिरी। वह हमेशा मन ही मन भन्ना कर संवाद खत्म कर उठ खड़ी होती।
भाई भाभी भी पी. एच. डी. थे और पिताजी ने 75 साल की उम्र में पी. एच. डी. की थी। उनकी उत्तराखण्ड की मूलभूत समस्याओं पर आधारित विषय पर लगभग 400 पेज की थिसिस उसने ही टाइप की थी। उस समय उसने पहली बार उनकी खूब प्रसंशा पाई थी। लेकिन डॉक्टरेट की उपाधि मिलते ही सवाल अपनी जगह पर फिर हाजिर था, पर थोड़ा बदल गया था,
”अब तू भी पी. एच. डी. कर ले,” घर में वह और माँ ही अब अनपढ़ रह गए थे उनकी नज़रों में।
”माँ, मेरा विषय ऐसा नहीं है कि इतने सालों बाद पी. एच. डी. हो सके” एक दिन वह फिर अपना सारा गुस्सा माँ पर उंडेलते हुए बोली, ”कल मेरी बहू भी आ जाएगी, पर पिताजी मेरे पी. एच. डी. करने की रट नहीं छोड़ेंगे,”
”वे तो तुझे कब से कह रहे हैं, तूने तब से भी तो नहीं की, पी. एच. डी,” माँ को भी आज पिता की भाषा बोलते देख वह विस्फारित नेत्रों से उन्हें निहारने लगी।
”माँ…?” वह घोर आश्चर्य से बोली, ”पी. एच. डी. का इतना भूत क्यों सवार रहता है पिताजी को, जब पता है कि ललित को नौकरी करना पसंद नहीं…जितनी मेहनत विज्ञान-विषय में पी. एच. डी. करने में करूंगी, उतनी मेहनत अगर हिन्दी साहित्य की सेवा करने में करूंगी तो शायद कुछ अपने मन का कर लूंगी,”
”तेरे पिताजी कह रहे थे, उसमें भी क्या किया तूने। अभी तक एक भी किताब नहीं छपी,” माँ बिल्कुल पिताजी वाले अंदाज़ में आंखें सिकोड़ कर बोली।
”उफ्फ!” उसने भन्ना कर अपनी स्कूटी स्टार्ट की और घर चली आई। माँ पीछे से आवाज देती रह गई थी।
उसकी उम्र बढ़ रही थी पर पिताजी का अपनी इकलौती बेटी के लिए देखा, सपने का आकार छोटा न हो पा रहा था। उसने चाहे अपने सपने और यथार्त के बीच का फासला तयकर समझौता करना सीख लिया था पर पिताजी इस सच्चाई को बरदाश्त न कर पा रहे थे। वे जब तब ललित को कोषते रहते।
”नालायक कहीं का, वह लायक ही नहीं था ऐसी लड़की के। सारा टेलेंट खत्म कर दिया इसका,”
पिताजी का तो सुन लेती वह, पर माँ पर बरस पड़ती, ”माँ, पिताजी अनाप शनाप क्यों बोलते हैं ललित को…क्या उन्होंने, ऐसा कोई वादा किया था शादी से पहले, और कौन सा कष्ट दिया ललित ने मुझे। गलती तो तुम्हारी है, तुमने मेरी शादी करने में जल्दबाजी क्यों की,?”
उसके सपनों और उसके यथार्त के बीच उसकी नज़रों में उसकी जल्दी शादी ज़िम्मेदार थी और पिताजी की नज़रों में ललित। जिंदगी भर उन बाप बेटी के बीच यही कशमकश चलती रही। उसका बेटा बड़ा हो गया। नौकरी पर आ गया, शादी हो गई। बेटे को लेकर देखा उसका हर सपना पूरा हो गया। पति रिटायर हो गए। पर उसके पिता की नज़रों में अपनी होनहार बेटी के लिए देखा सपना अभी अधूरा था और वे उसे किसी न किसी रूप में पूरा करना चाहते थे।
पी. एच. डी करने की बात वे अब कुछ धीमे स्वर में कहते। क्योंकि इस टॉपिक के आते ही वह अपनी जगह से उठ खड़ी होती। वह भी अब उनकी बेटी कम बच्चों की माँ व सास अधिक थी। भूमिकाएं बदल गईं थी और बढ़ भी गईं थी। हालांकि लिख तो लगातार रही थी और छप भी लगातार रही थी पर पिताजी को संतोष कहां था। किताब तो अभी तक एक भी नहीं छपी थीं इसलिए अब एक नया सवाल उत्पन्न हो गया था जो वे माँ की मार्फत उस तक पहुंचाते थे।
”तू अपना कहानी संग्रह क्यों नहीं छपवाती?” पिताजी के ऐसे ‘क्यों‘ का उसके पास कोई जवाब कभी नहीं रहा था। क्योंकि वह हमेशा से दो अलग परिवारों के सर्वथा दो भिन्न माहौल में रही थी। बस एक बात दोनों परिवारों की समान रूप से सत्य थी कि प्यार दोनों परिवारों से मिला था। पर इस ‘क्यों ‘ के पीछे एक लंबा अतीत, ऊंचे सवाल व गहरी सोच थी। कई पहाड़ व खाईयां थी। जिन्हें उसने हमेशा दबाए ढके रखा। क्योंकि कुछ बातों का कभी सीधा जवाब नहीं होता।
”हां सोचती हूं पिताजी” उसने संक्षिप्त सा जवाब दिया।
”तू हमेशा सोचती ही रहती है” पिताजी बड़बड़ा कर बोले, ”तुम लोग मेहनत करना नहीं जानते हो, ऐसे घर में बैठकर थोड़े ही नहीं काम चलता है। सारी जिंदगी क्या किया तूने, सारी पढ़ाई लिखाई भी बेकार कर दी। एक किताब भी नहीं प्रकाशित हुई अभी तक,” पिताजी फिर शुरू हो गए।
दादी बनने की उम्र में उसे पिताजी से यह सब सुनना पड़ रहा था।
”ला अपनी कुछ कहानियां मुझे दे, मैं कोशिश करता हूं तेरी किताब छपवाने की। तुम लोगों से तो कुछ होने वाला नहीं,” तुम लोगों का मतलब अच्छी तरह समझ आता था उसे। बेचारे ललित, अनायास ही पिताजी के क्रोध का भाजन बन जाते थें
अब पी. एच. डी. करने का सवाल कुछ भूलने से लगे थे। लेकिन उसके कहानी संग्रह छपवाने का सपना अभी भी धुमिल न पड़ा था। उसे अब अपना सपना अपना नहीं लगता बल्कि पिताजी का लगता और सोचती काश वह उनके सपनों में रंग भर पाती।
शायद पुरूष का स्त्री के साथ यही एक रिश्ता ऐसा है जिसमें वह उसके लिए सपने देखता है। उसको आगे बढ़ाने के लिए प्रयासरत रहता है। यह सपने देखना किसी दूसरे रिश्ते में अपवाद स्वरूप ही रहता हैं। पिताजी भी उसके कहानी संग्रह छपवाने की दिशा में प्रयासरत हो गए। उसने भी अपनी कहानियां इकट्ठी की। लेकिन उनकी आंखों का सपना आकार न ले पाया।
तब तक उनका प्रोस्टेट ग्लैंड का कैंसर डिटेक्ट हो गया और फिर शुरू हुआ डॉक्टर, अस्पताल, लंबे टेस्ट, एक्सरे और 1-2 छोटे ऑपरेशन का दौर। वह तो अपना सपना कब का भूल चुकी थी। पर पिताजी की बीमारी ने उन दोनों भाई बहन को अंदर से तोड़ डाला। लेकिन इतने भयानक रोग का पता चलने पर भी पिताजी ने हिम्मत नहीं हारी। वे उस हालत में भी अपनी पूरी दिनचर्या में रहते और जब ठीक महसूस करते तो सूट बूट पहनकर, कार में बैठकर, ड्राइवर के साथ कोर्ट चले जाते।
उनको इस उम्र में इतनी जीवटता से कैंसर से लड़ते देख अन्दर से हिम्मत आती। वह पीछे के बरामदे में बैठी हुई अपनी सोचों में गुम थी कि तभी माँ की पुकार सुनाई दी।
”हां माँ…” वह माँ की आवाज की दिशा में दौड़ती हुई चली गई। पिताजी न जाने कब धीरे धीरे चलकर सामने वाले बरामदे में रखे सोफे पर लेट गए थे और अब फिर उठकर अन्दर जाने के लिए प्रयासरत थे। लेकिन सोफे से उठ नहीं पा रहे थे। माँ भ्रमित सी खड़ी उन्हें देख रही थी।
”अरे पिताजी बाहर कब आ गए” वह उनको सहारा देने की कोशिश करने लगी। लेकिन लंबे ऊंचे पिताजी को उठाना उसके बस की बात नहीं थी। वह कुछ कुछ बोल रही थी पर वे सुन नहीं रहे थे। सुनना तो उनका पहले ही कम हो गया था। उन्होंने बोलना भी अब बहुत कम कर दिया था।
”मुझे नीचे बिठा दे, मैं बरामदे से पैर नीचे लटका कर दीवार के सहारे सीढ़ी से ऊपर चढ़ जाऊंगा” पिताजी किसी तरह बुदबुदाते हुए अस्पष्ट स्वर में बोले।
”नहीं नहीं पिताजी, कहीं मैं आपको नहीं संभाल पाई तो आप गिर जाएंगे” पर पिताजी नहीं माने और नीचे खिसकने की कवायद शुरू कर दी। मजबूरी में उसने किसी तरह उन्हें सहारा देकर नीचे बिठा दिया। वे धीरे धीरे खिसकखिसक कर सीढ़ी की तरफ जाने की कोशिश करने लगे।
वह अपने मजबूत, हिम्मती, दृढ़, और हर वक्त उपदेश देते, लगभग दहाड़ते पिता को इतना कमजो़र देखकर, टुकड़े टुकड़े हुए दिल को किसी तरह संभाल रही थी। इतना कमजो़र तो उसने उन्हें तब भी नहीं देखा था, जब उन्होंने अपना छोटा बेटा 24, 25 साल की उम्र में मात्र 2 दिन की बीमारी में खो दिया था।
पिताजी किसी तरह दीवार का सहारा लेकर खड़े हुए और उसके व माँ के प्रयास से अन्दर चले गए। वह फिर टूट कर पीछे वाले बरामदे में बैठ गई। पिताजी की खिसकती हुई मजबूर आकृति, आंखों के सामने से हट नहीं पा रही थी। उसके पर्स में पत्रिका रखी हुई थी, जिसमें उसकी पुरस्कृत कहानी छपी थी पर वह पिताजी तो क्या माँ को भी नहीं दिखा पा रही थी। आज यह दिन भी आ गया था कि उसकी एक एक रचना की चीर फाड़ करने वाले उसके पिता, उसकी पुरस्कृत रचना के बारे में जानने और पढ़ने में असमर्थ थे। उसके आंसू निर्बाध बह रहे थे।
पिताजी जिंदगी भर उसे कुछ न कुछ करने के लिए उकसाते रहे। वे अपनी प्रतिछाया अपनी बेटी में देखते थे। जानते थे शायद कि उन्हीं की तरह उनकी बेटी में भी उतनी ही क्षमताएं हैं पर परिस्थितियों का शिकार बन रही है।
जानती है वह कि बात सिर्फ उसके पी. एच. डी. करने या किताब छपवाने की नहीं थी, बल्कि यह तो एक सपना था एक पिता का, अपनी होनहार बेटी के लिए, जो वे कभी कभी माँ से कहते और माँ से उस तक पहुंच जाता। उनकी नज़रों में उनकी बेटी सर्वगुण संपन्न थी पर उसे सुनकर कभी विश्वास नहीं हुआ। क्योंकि वह तो उनसे हमेशा आलोचना ही सुनने की आदी थी, ठीक उस चित्रकार की तरह, जिसके पिता ने कभी उसकी किसी कृति की प्रंसशा नहीं की थी, और हर बार और अच्छा बनाने के प्रयास में वह अपने जीवन की सबसे उत्तम कलाकृति, अपना ‘मास्टर पीस‘ बना पाया था।
पर शायद ईरा वह चित्रकार बन पाती, उससे पहले ही पिताजी की आंखें बुझने लगीं थीं और उनमें कैद उसके लिये संजोया उनका सपना भी। कल अगर वे नहीं रहे तब वह उनका सपना पूरा कर भी पाए तो क्या, उनकी बुझती आंखों में बंद वह सपना तो अधूरा ही रह गया न।
वह अचानक फूट फूट कर रोने लगी। तभी माँ बाहर आ गई। उसे रोते देख घबरा गई।
”तू इतनी बुरी तरह क्यों रो रही है, तेरे पिताजी ठीक तो हो जाएंगे न,?”
”हां माँ, मैं तो बस ऐसे ही,” उसे अपनी भूल का अहसास हुवा। उसने अपना बैग कंधे पर डाला। आंसू पोंछते हुए बोली, ”मैं चलती हूं…कल आऊंगी”
”पर तूने कुछ खाया भी नहीं,”
”माँ तुम अब मेरे खाने पीने की फिक्र करना बंद करो,” अपने आंसुवों के वेग को रोकते हुई उसने हेलमेट बंाधा, स्कूटी स्टार्ट की, और तेजी से गेट खोलती हुई बाहर निकल गई।
माँ की चिंता, पिताजी की मजबूर व करूण आकृति पूरी रात आंखों में डेरा जमाए रही। सुबह के समय आंख लगी ही थी कि मोबाइल ने जोर जोर से चिल्ला कर पिताजी के जाने की सूचना दे डाली। उसने झपट का मोबाइल उठाया। फोन पर विनय था।
”जल्दी आ जाओ,” विनय बिना किसी भूमिका के बोला।
”क्या बुझ गई आंखें,” अनायास ही उसके मुंह से निकला।
”हां…बस, अभी अभी,” एक निःश्वास सा छोड़ विनय ने फोन रख दिया। ललित प्रश्नवाचक नजरों से उसे देख रहे थे।
”बुझ गई उनकी आंखें, और उनके सपने भी अधूरे रह गए ललित,” कहकर ईरा ललित के कंधे से लग कर फफक पड़ी। ललित बिना उसकी बात की गहराई समझे उसे सहलाने लगे थे।

लेखिका-सुधा जुगरान

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