हिन्दी

जिस पल तेरी याद सताए – कवि भारत भूषण अग्रवाल

जिस पल तेरी याद सताए जिस पल तेरी याद सताए, आधी रात नींद जग जाये ओ पाहन! इतना बतला दे उस पल किसकी बाहँ गहूँ मै अपने अपने चाँद भुजाओं में भर भर कर दुनिया सोये सारी सारी रात अकेला मैं रोऊँ या शबनम रोये करवट में दहकें अंगारे, नभ से चंदा ताना मारे प्यासे अरमानों को मन में दाबे कैसे मौन रहूँ मैं गाऊँ कैसा गीत की जिससे तेरा पत्थर मन पिघलाऊँ जाऊँ किसके द्वार जहाँ ये अपना दुखिया मन बहलाऊँ गली गली डोलूँ बौराया, बैरिन हुई स्वयं की छाया मिला नहीं कोई भी ऐसा जिससे अपनी पीर कहूं मैं टूट गया जिससे मन दर्पण किस रूपा की नजर लगी है घर घर में खिल रही चाँदनी मेरे आँगन धूप जगी है सुधियाँ नागन सी लिपटी हैं, आँसू आँसू में सिमटी हैं...

चक्की पर गेंहू लिए – कवि भारत भूषण अग्रवाल

चक्की पर गेंहू लिए चक्की पर गेंहू लिए खड़ा मैं सोच रहा उखड़ा उखड़ा क्यों दो पाटों वाली साखी बाबा कबीर को रुला गई। लेखनी मिली थी गीतव्रता प्रार्थना- पत्र लिखते बीती जर्जर उदासियों के कपड़े थक गई हँसी सीती- सीती हर चाह देर में सोकर भी दिन से पहले कुलमुला गई। कन्धों पर चढ़ अगली पीढ़ी ज़िद करती है गुब्बारों की यत्नों से कई गुनी ऊँची डाली है लाल अनारों की प्रत्येक किरण पल भर उजला काले कम्बल में सुला गई। गीतों की जन्म-कुंडली में संभावित थी ये अनहोनी मोमिया मूर्ति को पैदल ही मरुथल की दोपहरी ढोनी खंडित भी जाना पड़ा वहाँ जिन्दगी जहाँ भी बुला गई।

ये असंगति जिन्दगी के द्वार सौ-सौ बार रोई – कवि भारत भूषण अग्रवाल

ये असंगति जिन्दगी के द्वार सौ-सौ बार रोई ये असंगति जिन्दगी के द्वार सौ-सौ बार रोई  बांह में है और कोई चाह में है और कोई साँप के आलिंगनों में मौन चन्दन तन पड़े हैं सेज के सपनो भरे कुछ फूल मुर्दों पर चढ़े हैं ये विषमता भावना ने सिसकियाँ भरते समोई देह में है और कोई, नेह में है और कोई स्वप्न के शव पर खड़े हो मांग भरती हैं प्रथाएं कंगनों से तोड़ हीरा खा रहीं कितनी व्यथाएं ये कथाएं उग रही हैं नागफन जैसी अबोई सृष्टि में है और कोई, दृष्टि में है और कोई जो समर्पण ही नहीं हैं वे समर्पण भी हुए हैं देह सब जूठी पड़ी है प्राण फिर भी अनछुए हैं ये विकलता हर अधर ने कंठ के नीचे सँजोई...

अब खोजनी है आमरण – कवि भारत भूषण अग्रवाल

अब खोजनी है आमरण अब खोजनी है आमरण  कोई शरण कोई शरण गोधुली मंडित सूर्य हूँ खंडित हुआ वैदूर्य हूँ मेरा करेंगे अनुसरण किसके चरण किसके चरण अभिजात अक्षर- वंश में निर्जन हुए उर- ध्वंस में कितने सहेजूँ संस्मरण कितना स्मरण कितना स्मरण निर्वर्ण खंडहर पृष्ठ हैं अंतरकथाएं नष्ट हैं व्यक्तित्व का ये संस्करण बस आवरण बस आवरण रतियोजना से गत प्रहर हैं व्यंग्य- रत सुधि में बिखर अस्पृश्य सा अंत:करण किसका वरण किसका वरण

यह तो कहो किसके हुए – कवि भारत भूषण अग्रवाल

यह तो कहो किसके हुए  आधी उमर करके धुआँ यह तो कहो किसके हुए परिवार के या प्यार के या गीत के या देश के यह तो कहो किसके हुए कन्धे बदलती थक गईं सड़कें तुम्हें ढोती हुईं ऋतुएँ सभी तुमको लिए घर-घर फिरीं रोती हुईं फिर भी न टँक पाया कहीं टूटा हुआ कोई बटन अस्तित्व सब चिथड़ा हुआ गिरने लगे पग-पग जुए -- संध्या तुम्हें घर छोड़ कर दीवा जला मन्दिर गई फिर एक टूटी रोशनी कुछ साँकलों से घिर गई स्याही तुम्हें लिखती रही पढ़ती रहीं उखड़ी छतें आवाज़ से परिचित हुए गली के कुछ पहरूए --- हर दिन गया डरता किसी तड़की हुई दीवार से हर वर्ष के माथे लिखा गिरना किसी मीनार से निश्चय सभी अँकुरान में पीले पड़े मुरझा गए मन में बने साँपों भरे जालों पुरे अन्धे कुएँ यह तो कहो किसके हुए ---

मधु ऋतु की हँसती घड़ियाँ ये – कवयित्री सुमित्रा कुमारी सिन्हा

मधु ऋतु की हँसती घड़ियाँ ये  मधु ऋतु की हँसती घड़ियाँ ये, जीवन-पतझर में क्यों लाए ? ये मस्ती की फुलझड़ियाँ ले, मेरे खंडहर में क्यों आए ? छेड़ी क्यों तुमने सूने में वंशी-ध्वनि मीठी, क्यों आए ? जिसको सुन पागल-विकल हुआ यह मन मेरा, तुम क्यों आए ? रोदन के एकाकी जग में, पल एक हँसाने क्यों आए ? नाता इस पीड़ामय उर से, तुम हाय ! जोड़ने क्यों आए ? उस गीली स्मिति की छवि नयनों में तुम उलझाने क्यों आए ? मधु का प्याला आँखों में भर पल-पल छलकाने क्यों आए ? तुम पूर्ण अपरिचित मग चलते, चिर परिचित बन कर क्यों आए ? हे पथी, कहो, जाना ही था...

पल भर न हुआ जीवन प्यारा! – कवयित्री सुमित्रा कुमारी सिन्हा

पल भर न हुआ जीवन प्यारा! पल भर न हुआ जीवन प्यारा!  पूजा के मंदिर में झाँका, अर्चन की चाहों को आँका, जग ने अपराधिनि ठहराया, आजीवन खुल न सकी कारा! पल भर न हुआ जीवन प्यारा! मधु के घट रक्खे दूर-दूर, जब छूना चाहा हुए चूर, जग अंतराल से पिला सका मुझको केवल विष की धारा! पल भर न हुआ जीवन प्यारा!

मानस-मंदिर में प्रिय तुम – कवयित्री सुमित्रा कुमारी सिन्हा

मानस-मंदिर में प्रिय तुम मानस-मंदिर में प्रिय तुम, निशिदिन निवास करते हो। पर उसकी जीर्ण दशा का कुछ ध्यान नहीं रखते हो। इतने बेसुध हो तुम जब, कैसे हो मुझ को आशा ! तुम पूरी कभी करोगे मेरे मन की अभिलाषा !

खेल ज्वाला से किया है! – कवयित्री सुमित्रा कुमारी सिन्हा

खेल ज्वाला से किया है! खेल ज्वाला से किया है! शून्यता जब नयन छाई, हृदय में तृष्णा समाई, समझ कर पीयूष मैंने गरल ही अब तक पिया है। स्वप्न-उपवन में चहक कर, पींजरे में जा, बहक कर- जग भला क्या जान सकता, मूल्य मैंने क्या दिया है? इस अंधेरे देश में पल, पागलों के वेश में चल, शून्य के ही साथ मैंने वेदना-विनिमय किया है ! प्यार का पाकर निमन्त्रण, मैं गई,कितना प्रवंचन! समझ कर वरदान मैंने, शाप ही अब तक लिया है! खेल ज्वाला से किया है!

समीक्षा: अनुभूति की वारुणि छलकाता ‘‘ स्वर्ण चषक’’

लेखिका - अलका प्रमोद रचनाकार, सम्पादक, प्रकाशक, समूह-संचालक, सामाजिक कार्यकर्ता, निवेदिता श्री ने सदा के समान अपनी सद्यः प्रकाशित कृति,...