स्त्री : रोज़ भरती है हौसलों की उड़ान

 

रोज़ आंगन में वो जगा देती है सुबह को

और उम्मीदों की पगडंडी पर निकल पड़ती है

धूप की कतरनों को जमा करती है सारा दिन

शाम के आंचल को सलीक़े से रफ़ू करती है

ज़ुबानी याद हैं क़ायदे कंगन बिंदिया के

रोशनदानों की बंदिशें भी पता हैं उसे

पर बंद दरवाज़ों की भाषा नहीं समझती वो

खोल देती है अंधेरों की सांकल को

बुला लेती है ताज़ा हवाओं को

उसके दिल में पनपते हैं

आशाओं के अनगिनित जुगनूं

जिसकी रोशनी में वो

रोज़ भरती है

हौसलों की उड़ान

राजुल


 

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