स्त्री : रोज़ भरती है हौसलों की उड़ान – राजुल
स्त्री : रोज़ भरती है हौसलों की उड़ान
रोज़ आंगन में वो जगा देती है सुबह को
और उम्मीदों की पगडंडी पर निकल पड़ती है
धूप की कतरनों को जमा करती है सारा दिन
शाम के आंचल को सलीक़े से रफ़ू करती है
ज़ुबानी याद हैं क़ायदे कंगन बिंदिया के
रोशनदानों की बंदिशें भी पता हैं उसे
पर बंद दरवाज़ों की भाषा नहीं समझती वो
खोल देती है अंधेरों की सांकल को
बुला लेती है ताज़ा हवाओं को
उसके दिल में पनपते हैं
आशाओं के अनगिनित जुगनूं
जिसकी रोशनी में वो
रोज़ भरती है
हौसलों की उड़ान
राजुल
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Well expressed thoughts
Khoobsoorat vichar … khoobsoorat abhivyakti…
Beautiful thoughts 👌
उत्तम रचना उत्तम शब्द संयोजन
बहुत सुंदर राजुल दीदी… 💐
Bohot khub!!
Bahut khoob