पांचवा बेटा – बबिता बसाक
पांचवा बेटा
‘ये रख लो गुन्चा, बिटिया की पढ़ाई में तुम्हारे काम आयेंगे।’
लेकिन बाबूजी … हम गरीब इतना पैसा लेकर …’ कहते कहते गुन्चा की आंखें नम हो गई।
अगर तुम उस दिन सही समय पर हमें अस्पताल नहीं लाते, तो आज मैं अपने परिवार के साथ हंसता खेलता नहीं होता और ये रक्त विला निःशब्द रह जाता। मैं और मेरा परिवार सही व़क्त पर किये तुम्हारे उपकार के लिए हमेशा आभारी रहेंगे।’
इतना कहकर कर्नल साहब रुपये उसके हाथों में थमाकर आगे बढ़ जाते हैं और गुन्चा…। कौन है ये गुन्चा ? और ये रक्त विला..!
गुन्चा जूते-चप्पल मरम्मत करने वाला गरीब मोची, जो अपनी पांच साल की बिटिया के साथ रक्त विला के समीप ही रहता था। गुन्चा भले ही ऊंची जाति का न हो, परंतु वह मानव के दुःख-दर्द को अच्छे से समझता था इतना ही नहीं, वक्त पर अपना काम काज छोड़कर वे उनकी मदद भी करता था।
दूसरी ओर, रक्त विला, एक शानदार हवेली जिसमें कर्नल साहब अपनी पत्नी ईश्वरी देवी चार बेटे, बहुओं और पोते-पोतियों के साथ रहते थे। कहने को तो कर्नल रमाकांत घर के बडे़ थे, परंतु ईश्वरी देवी, उन्हें तो अपने रक्त विला केे शानदार ऊंचे महल में अपनी संकीर्ण सोच और कड़क अनुशासन के साथ ही रहना पसंद था। अमीर-गरीब, जात-पात, ऊंच-नीच ये समस्त हीन भावनाएं उनकी संकीर्ण सोच को दर्शाते थे। अपने कड़क अनुशासन के चलते परिवार के लोगों का बाहरी मेल मिलाप, उठना बैठना, उनसे बातचीत ये सभी उन्हें नापसंद था। इतना ही नहीं, कोई बाहरी उनके परिवार के बीच हस्तक्षेप करें इसके भी वे सख्त खिलाफ थीं। लेकिन वे नहीं जानती कि घर के बाहर भी एक दुनिया होती है, और ये जीवन…वो तो हर पल हम सभी का इम्तिहान लेती है, जिसका सामना हम सभी को कभी न कभी, किस वक्त किस मोड़ पर किस रुप में करना पड़ेगा ? हममें से शायद ये कोई नहीं जानता या यों कहें कोई बता भी नहीं सकता।
रोजाना की तरह सुबह होते ही कर्नल साहब वॉक पर जाते और गुन्चा का हालचाल पूछते ? भई, किसी भी चीज की जरुरत हो, तो बेहिचक हमें बताना गुन्चा। तुमने …। ’
लेकिन गुन्चा उन्हें प्रणाम कर रोज की तरह अपने काम में व्यस्त हो जाता।
एक दिन रात के भोजन के बाद सभी अपने कमरे में सोने को चले गये । कर्नल साहब अपनी पत्नी ईश्वरी देवी के साथ बातें कर रहे थे और कॉफी का भी आनंद ले रहे थे कि अचानक…अचानक ईश्वरी देवी की तबियत खराब होने लगी। पत्नी की ऐसी हालत देखकर उन्होंने अपने बेटों को आवाज लगाई, सभी फौरन अपने कमरों से निकलकर नीचे आये और ईश्वरी देवी को अस्पताल ले गये।
‘आपलोग…..प्लीज बाहर बैठिये हमें पेसेंट देखने दीजिए’।
‘आप में से ए-बी ब्लड गु्रप किसका है ? हरी अप! सिस्टर ने उनके परिवार को देखते हुए कहा …मरीज को तुरंत इस ग्रुप की जरुरत है प्लीज जरा जल्दी कीजिएगा वरना …’
‘आप मेरा ले लीजिए आप मेरा ले लीजिए’
और इस प्रकार एक एक करके ईश्वरी देवी के चारों बेटों ने अपना ब्लड चैक करवाया लेकिन ….किसी का भी ब्लड ईश्वरी देवी के काम न आ सका।
गुन्चा ये सब देखकर स्वयं को रोक ना सका। उस समय उसकी आंखों के सामने ऊंचे विचारों वाली ईश्वरी देवी नहीं, बल्कि इन्सानियत दिख रही थी जो उससे उसका कर्तव्य याद दिला रही थी।
‘क्या हमहूं अपन खून दे सकत है ?’ गुन्चा ने धीमे परंतु आत्मविश्वास भरे स्वर में सबके सामने अपनी बात कही।
गुन्चा तुम…….हां, ‘बाबूजी हम अछूत जरुर होवे परंतु इस बखत मालकिन की हालत हमसे देखत नाहीं जात,
डॉक्टर साहब ! आप हमहूं को चैक करवा कर देख लो …..शायद भगवान हमरी मालकिन को…….।’
चलिए……थोड़ी देर बाद डॉक्टर साहब के बाहर आते ही ईश्वरी देवी का पूरा परिवार डाक्टर साहब की ओर तेजी से दौड़ पड़ा।
परफैक्ट! …….आज इस व्यक्ति ने सही समय पर ईश्वरी देवी की जान बचाई है। वैल, नाव श़ी इज़ आउट ऑफ डेन्जर इतना कहकर डॉक्टर साहब अन्य मरीजों को देखने चले गये।
गुन्चा का रक्त जब ईश्वरी देवी के शरीर में दौड़ने लगा वो ठीक होने लगी और सप्ताह बाद सपरिवार अपने रक्त विला मंे वे वापस आ गई और रक्त विला की खुशियां जो कुछ दिनों से उदास थी फिर से गुन्जायमय हो गई।
‘बहुत कमजोर लग रही हो ईश्वरी। अभी आराम करो कर्नल साहब ने ईश्वरी देवी की ओर देखते हुए कहा’।
‘हां, क्योें नहीं ताकि तुम सब मनमानी करना शुरु कर दो। देखो जी, मैं कहे देती हूं। आज तक रक्त विला में कोई भी मेरे अनुशासन के विरुद्ध न गया है, ना जायेगा आप भी नहीं कर्नल साहब, समझे…..’। थोड़ी धीमी आवाज में ईश्वरी देवी ने कहा।
ईश्वरी देवी के ये सब कहने पर कर्नल साहब ने उस समय चुप रहना ही श्रेयकर समझा। लेकिन गुन्चा के रक्त दान की बात ज्यादा दिनों तक वे चुपचाप सह नहीं पा रहे थे क्योंकि गुन्चा ने एक नहीं दो दो बार बिना किसी प्रलोभन के उनके परिवार की जान बचाई थी।
आखिर एक दिन ईश्वरी देवी पूजा पाठ करने के बाद चाय पीते-पीते कर्नल साहब से बोली – ‘सुनिए जी, एक बात बताइए, हमें क्या हो गया था उस दिन ? अचानक मैं…….।’
‘सुन सकोगी’ – कर्नल साहब ने पहली बार ऊंची आवाज में बोला था। ‘आज से पहले आपने इतनी ऊंची आवाज मंे बात नहीं की तो आज ….।’ ईश्वरी देवी ने कर्नल साहब की ओर देखते हुए कहा।
‘ईश्वरी, तुम्हें नहीं मालूम। आज जो तुम्हारे शरीर में रक्त दौड़ रहा है वो गुन्चा का है’।
‘गुन्चा!’
‘वो ….!’ शायद ईश्वरी देवी सही समझ रही थी
‘तुम ठीक समझ रही हो, वही गुन्चा।’
‘क्या?’
‘हां वो, जिसे तुम अछूत कहती हो। अगर सही समय पर वो तुम्हें रक्त न देता तो आज तुम ….., कहते-कहते कर्नल साहब खामोश हो गये।
ईश्वरी देवी स्तब्ध रह गई यह सब सुनकर। कर्नल साहब का हाथ पकड़कर तुरंत गुन्चा के घर की ओर चल पड़ी ऐसा प्रतीत हो रहा था जैसे अभी कोई फैसला लेने वाली हैं।
उनको अचानक वहां देखकर गुन्चा खड़ा हो गया।
‘तुम मेरे पांचवे बेटे हो……..ईश्वरी देवी ने गुन्चा के पास जाकर बड़े स्नेह से कहा, ऐसा प्रतीत हो रहा था जैसे कोई मां अपने बेटे से यह सब कह रही हो….।’
‘का कह रही हैं मालकिन ?’
‘आज से तुम और तुम्हारी बेटी यहां नहीं, मेरे साथ मेरे रक्त विला में रहेगें।
‘लेकिन मालकिन हम तो ……।’
‘कहा न कुछ नहीं।’
उनकी बातें सुन कर गुन्चा ईश्वरी देवी के चरणों में गिर पड़ा।
ईश्वरी देवी ने भी उसे गले से लगा लिया।
फिर क्या, गुन्चा ने भी अपनी मां की आज्ञा मानकर अपने घर रक्त विला की ओर अपना पहला कदम बढ़ा दिया।
- बबिता बसाक
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