डर … दहशत … ख़ौफ़

 

डर … दहशत … ख़ौफ़

सिर्फ़  मन की कमज़ोरी है – कायरता है

बचपन से हमें इस कमज़ोरी से ऊपर उठना सिखाया गया है

पर, आज बड़े होकर ये कमज़ोरी ज़िन्दगी का हिस्सा बनने लगी है

 डर … दहशत … ख़ौफ़

अपनी उसी बेटी के लिए

जिसे कभी न डरने की शिक्षा दी थी

डरती हूँ रोज़

कि कहीं वो ग़लत बस पर न चढ़ जाए

कहीं शेअर ऑटो में बैठे किसी जानवर की आँख उस पर न पड़ जाए

कहीं बीच सड़क पर उसके साथ कोई दुर्घटना न घट जाए

डरती हूँ आज इसी ख़ौफ़ से

कहीं मेरी फूल सी गुड़िया स्कूल से लौटते हुए किसी दरिन्दे का शिकार न बन जाए

हर पल यही सोचती हूँ

कैसे बचाऊं बेटी को

क्या रोक लूं उसे आगे बढ़ने से

क्या छीन लूं उससे अपना आसमान ढूँढने की आज़ादी

क्या बंद कर दूं उसका घर से निकलना

पर, बेटियां तो घर में भी सुरक्षित नहीं

कैसे बचाऊँ बेटियों को इस सभ्य-परिष्कृत दुनिया में

ये डर …ये दहशत …ये ख़ौफ़

जिसके साथ अकेले मैं ही नहीं बेटियों वाली हर माँ जी रही है

अपनी जवान होती बेटियों को यही डर विरासत में दे रही है

ये डरी हुई बेटियां कल और ज़्यादा डरी हुई माएं बनेंगी

और, शायद पुरुषों की आने वाली नस्ल नपुंसकता के अभिशाप झेलेगी

क्योंकि पुरुष का पुरुषत्व माँ के गर्भ में ही आकार लेता है

पुरुष को हिम्मत और मर्दानगी का रुतबा माँ के दिल से ही मिलता है

पर आज हर माँ के दिल में सिर्फ़

डर है … दहशत है … ख़ौफ़ है …

 

  • राजुल

 


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5 thoughts on “डर … दहशत … ख़ौफ़ – राजुल

  1. सच है ये दर ये दहशत तो बनी ही रहती है दिल में, मैं भी एक बेटी की ही मां हूं..। ज्वलंत प्रश्न हैं राजुल दीदी।

  2. Yah samasya Har EK Ke Sath Hai Jiska beti Nahin Hai uski bahan hi Bahu hai Puti hai natani hai Puri Stri jaati ke liye yah bahut bada Dar Hai aur isase ham Sabko Milkar Dur karna hai

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