IKTARA इकतारा : प्रवास – राजुल
प्रवास
हर इंसान में उसकी माँ और मातृभूमि हमेशा ज़िंदा रहते हैं। अब प्रवासी इस मानवीय नियम से कैसे अछूते रह सकते हैं! बाहर से तो वो जहाँ बसे, वहाँ के तौर तरीक़े अपनाकर वहीं के रंग में रंगे लगते हैं, लेकिन अंदर कहीं उस मिट्टी की सोंधी ख़ुश्बू… उस हवा का सहलाता स्पर्श… वहाँ की गलियाँ… नुक्कड़.. पेड़… रिक्शे… लोग… रचे – बसे रहते हैं।
कभी अपनी बोली – भाषा सुनकर, तो कभी किसी और तरीक़े से जैसे ही अपने वतन – शहर – गाँव का कोई मिल जाता है तो उल्लास का तार सप्तक गूँज उठता है।
पिछले दिनों 2 – 3 साल पहले विदेश गई परिचिता से बात हो रही थी, जो उम्र में हमसे काफ़ी छोटी है। शादी तो उसकी भारत में हुई, लेकिन उसका पहला बच्चा वहीं जन्मा।
यूँ तो बहुत बहादुर और सुलझी हुई लड़की है जो घर से दूर, काफ़ी समय तक मुंबई में, शेयरिंग फ़्लैट में रह चुकी थी. अनजानी रूममेट से पहचान बनाने से लेकर घर के लिए छोटी-छोटी चीज़ें जुटाने में अपार का धैर्य था उसमें।
कभी भीमकाय चूहों से राशन बचाती, तो कभी किचन के बरतनों के बीच छिपी छिपकली के कूदने पर अपनी चीख़ और थरथराहट को क़ाबू में करती वो।
जीवन के टोटके उसने बड़े सलीक़े से सीख लिए थे। ख़ुश होती थी अपनी आत्मनिर्भरता पर. अपना घर उसे भी याद आता लेकिन उतना ही जितना उड़ना सीखने के बाद घोंसले छोड़ उड़ जाने वाले पक्षियों को याद आता है।
जो भी हो ये सब अपने देश में ही हो रहा था, लेकिन हज़ारों मील दूर अमेरिका में तो बहुत कुछ अलग होगा, ये वो भी जानती थी।
विदेश जाने के बाद एक दिन उसका वीडियो काल आया । हालचाल पूछे और फिर वो चहक- चहककर अपनी दिनचर्या बताने लगी. फिर नई गृहस्थी का एक-एक कोना दिखाना शुरू किया. तसल्ली हुई कि भौतिक रूप से उसके पास सब चीज़ें हैं। अलग तरह का गैस स्टोव, डिश वाशर, आरामदेह फ़र्नीचर, वैक्यूम क्लीनर, घर में सजी पेंटिंग्स, बाहर लान में खिले फूल, उसका बेटा और उमंग से भरी नयी मम्मी की मासूम परेशानियों के बीच उसका एक वाक्य मन को छू गया – “आपको एक बताऊँ! यहाँ ना, आसपास सब इंडियंस हैं.”।
वाक़ई विदेश की सारी सुख सुविधाओं से कहीं ज़्यादा क़ीमती था उसका ये सुख। परदेस में अपने लोगों से मिलने का संयोग बड़ी मुश्किल से जुड़ता है। प्रवास में अनजान परिवेश और भिन्न विचारधाराओं के बीच ख़ुद को कहीं फ़िट कर पाने की जीतोड़ कोशिशों के बीच अपने परिचित परिवेश का एक वाक्य भी हृदय में गरमाहट भर देता है।
इस सुख की चाह उन्हें भी होती है जो अपने देश में ही अपने शहर से दूर चले आए हैं। उनसे बातें करते ही तीज – त्योहारों में वहाँ पड़ती ढोलक की थापें गूँजने लगती हैं. मौसम बदलता है तो वहाँ के आम – जामुन आवाज़ लगाते हैं. मेहंदी के छापे और यूनिवर्सिटी की सड़कें पुकारती हैं… लेकिन, फिर कुछ देर बाद अपना काम गुहार लगाता है और जन्मभूमि से बिछड़े आगे बढ़ जाते हैं. जन्मभूमि सदा अंदर समायी रहती है लेकिन कर्मभूमि बाहर है सामने है… और उसका परिवेश, उसकी बोली, रीति-रिवाज़ और नियम चाहे कितने ही अलग क्यूँ ना हों, उनमें ख़ुद को रचा बसा लेना ही जीवन है।
लेखिका – राजुल