पांच साल और … वरिष्ठ पत्रकार अशोक हमराही की कलम से

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बात निकलेगी तो …

पांच साल और

राजनीति यानि सत्ता की सीढ़ी. सत्ता पर क़ाबिज़ होने के लिए लोकतंत्र में राजनीति ही वो रास्ता है, जिस पर चलकर सत्ता के गलियारे तक पहुंचा जा सकता है.

सभी जानते हैं कि राजतंत्र में उत्तराधिकार के नियम के तहत राजा के परिवार का सदस्य ही राजसत्ता के क़रीब पहुँच सकता है या फिर राजा स्वयं अपनी मर्ज़ी से किसी को अपना उत्तराधिकारी चुनता है.

देश को आज़ादी मिली. आज़ाद भारत ने गणतंत्र को अपनाया. लोकतांत्रिक आधार पर जनता को सत्ता के अधिकार मिले और इसके लिए माध्यम बने हमारे राजनेता.

राजसत्ता गई, जनसत्ता आई. अब सत्ता में राजपरिवारों की भागीदारी राजनेताओं के रूप में होने लगी. देश का शायद ही कोई ऐसा राजपरिवार हो, जो राजनीति से दूर रहा हो. अपने दबदबे और राजघराने के रुतबे से जनता पर अपना प्रभाव डालकर सत्ता का सुख भोगने में वो सबसे आगे रहे. आज भी ये राजघराने राजनीति और सत्ता के गलियारे में अपनी पैठ बनाए हुए हैं.

राजपरिवारों के बाद देश की राजनीति और सत्ता के गलियारे में ऐसे परिवारों का वर्चस्व रहा, जिनके मुखिया ने राजनीति में अपनी पकड़ मज़बूत की. उनका परिवार उनके पदचिन्हों पर चला. ये बताने की ज़रूरत नहीं कि आज राजनीतिक परिदृश्य में कई ऐसे परिवार हैं, जो सत्ता के लिए अपनी पारिवारिक विरासत को संभाले हुए हैं.

पूर्ण स्वतंत्र गणतंत्र तो बन गया, लेकिन इसके बाद देश परिवारवाद की राजनीति के शिकंजे में जकड़ता चला गया. देश सेवा और लोकतंत्र की रक्षा का दायित्व स्वयंभू तौर पर इन परिवारों ने ले लिया.

राज परिवार और राजनीतिक घरानों के साथ-साथ देश की राजनीति में परोक्ष-अपरोक्ष रूप से दौलतमंदों का दबदबा हमेशा रहा. जिसके चलते देश सेवा का संकल्प लेकर लोकतंत्र में सत्ता के भागीदार ईमानदार लोगों की कमी खलती रही.

लेकिन देश के लोकतंत्र का एक पक्ष और भी है मूल्यों पर आधारित राजनीति करने वालों का. जो समय-समय पर राजनीतिक चिंतन और विचारों से लोकतंत्र में नई ऊर्जा और स्फूर्ति भरते रहे.

अक्सर लोगों को ये कहते हुए सुना होगा कि राजनीति में अच्छे लोगों की कमी है, अच्छे और ईमानदार लोगों को राजनीति में आगे आना चाहिए. पहली बात बहस का मुद्दा हो सकती है, लेकिन इससे कौन इंकार करेगा कि राजनीति में ईमानदार और समर्पित लोगों को आना चाहिए.

ऐसा नहीं है कि समर्पित समाज सेवी राजनीति में आये नही, आये, लेकिन राजनीति की बिसात पर ‘शह और मात’ के खेल में वो पिछड़ते रहे.

हर बार – हर चुनाव में देश टकटकी लगाकर राजनेताओं की ओर देखता है, बड़ी उम्मीद – बड़ी आशाओं के साथ; लेकिन हाथ आते हैं सिर्फ़ वादे-दिलासे. 2014 के लोकसभा चुनाव में देश को ऐसा लगा था कि अब राजनीतिक परिदृश्य बदलेगा, लेकिन हुआ क्या, ये किसी से छिपा नहीं है. पूरे समय राजनीति व्यक्तिगत मोर्चे पर सफ़लता और असफ़लता के आंकड़े जनता के सामने जोड़ती-घटाती रही.

ये लोकतंत्र है, लेकिन ‘लोक’ की किसी को फ़िक्र नहीं. सभी को ‘वोट’ की चिंता है. सभी को अपनी साख बचाने और बनाने की पड़ी है.

राजनीति में इस बात से कोई फ़र्क नहीं पड़ता कि कौन सच्चा है और कौन झूठा. लेकिन जब भरोसा टूटता है, विश्वास छलनी होता है तब बहुत फ़र्क पड़ता है.

फ़िलहाल, देश की राजनीति और देश की जनता, दोनों फिर आमने-सामने हैं. एक बार फिर वादों के तिलिस्म में जनता घिरी हुई है. देश अपने अगले पांच साल फिर इन्हीं में से किसी के हवाले करने वाला है. आगे क्या होगा, ये तो वक़्त ही बताएगा.

 

 

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