कथाकार : डॉक्टर कीर्ति अवस्थी

ऑफिस से छुट्टी का समय और इतनी तेज बारिश, मुझे कभी भी अच्छी नहीं लगती। सभी लोग उतरकर नीचे आए तो पार्किंग तक जाने की हिम्मत नहीं पड़ी किसी की। जो कार से थे, वे निकल गए पर हममें से ज़्यादातर टू व्हीलर वाले थे तो मजबूरी में वहीं रुकना पड़ा।

ऊष्मा नें कहा, ‘चलो कैंटीन चलते हैं। वही बैठेंगे।’

मेरा मन नहीं था लेकिन ऊष्मा और संयोग के कहने पर मुझे जाना पड़ा। तीनों ग्लास-पार्टीशन से बाहर बारिश देख रहे थे। उसी समय ऊष्मा के मोबाइल पर बॉस का फोन आया कि एक ज़रूरी फाइल उन्हें तुरंत चाहिए। अगर वह घर के लिए न निकली हो तो उन्हें आकर दे दे।

‘ओ.के. सर’ इतना कहकर उसने मोबाइल काटा और बोली, ‘यार बॉस ने परसों फाइल कंप्लीट करने को कहा था और मैं आलस में रही। कुछ किया ही नहीं अभी नहीं गई हूं तो पंद्रह-बीस मिनट में काम खत्म करके आई। तुम लोग तब तक चाय पियो।’

इतना कहकर उष्मा चली गई। मैं शीशे से बाहर बारिश से भीगी सड़क और उस पर दौड़ रहे वाहनों को ध्यान से देख रही थी।

‘मौसम बड़ा रोमांटिक हो गया है न?’ संयोग बोला

‘हाँ’ मैं बाहर देखते हुए बोली।

‘ऐसे में किसी के साथ भीगने को मिले तो कितना मज़ा आए!’  उसने मेरे कान के पास आकर कहा।

‘तो भिगो न जाकर, किसी ने पकड़ा है क्या?’ मैंने बेरुखी से कहा।

‘तो चलो न साथ में भीगते हैं।’ इतना कहकर उसने मुझे आंँख मारी।

‘अपना यह बेहूदा मज़ाक अपने पास रखो।’ मैं खीझ गई।

‘अरे! तुम तो नाराज़ हो गई। मैं तो यूं ही कह रहा था। सॉरी अगर तुम्हें बुरा लगा।’ उसने कान पकड़े।

‘असल में आज घर जल्दी जाना था। बॉस ने तो आधे दिन की छुट्टी भी दे दी थी पर मेरा ही काम खत्म नहीं हुआ, तो मैंने छुट्टी कैंसिल करा ली। सोचा था थोड़ा पहले निकल लूँगी तो दवा और कुछ जरूरी सामान लेकर ही घर जाऊंँगी पर इस बारिश ने सब काम बिगाड़ दिया।’ मैं परेशान होकर बोली।

‘दवा, किसकी दवा? हस्बैंड बीमार है क्या?’

‘नहीं; किया की तबीयत खराब है। सुबह दवा दी थी लेकिन अब शाम की डोज़ नहीं है।’

‘तो अपने हस्बैंड से बोल दो, वह ले आएंगे इसमें इतना कौन सा पहाड़ टूट रहा है?’

‘हाँ; यही करना पड़ेगा, अभी फोन करती हूँ।’ मैंने पर्स से फोन निकाला और अपने पति का नंबर मिलाया।

‘हांँ, सुनिए मैं बोल रही हूँ। उधर भी बारिश हो रही है क्या?…… नहीं हो रही है….. अरे यहाँ तो पूछो मत, केवल बाढ़ की कमी है बाकी मौसम में तो बारिश की भरमार है। मैं तो कैंटीन में हूँ, संयोग के साथ। ऊष्मा आई थी पर किसी काम से फिर ऊपर चली गई।…..हाँ-हाँ उसी के इंतजार कर रहे हैं।  नहीं-नहीं, आप मत आइए बारिश कम होगी तो मैं खुद आ जाऊँगी, बस एक काम कीजिएगा, किया के लिए पेरासिटामॉल सिरप ले आइएगा।’ इतना कहकर मैंने फोन काटा।

‘बड़े प्यार से बात करती हो अपने हस्बैंड से।’ संयोग ने चुटकी ली।

‘क्यों ना करूँ? आखिर पति है वह मेरे। इस दुनिया में सबसे ज़्यादा प्यार करते हैं ,मेरा ध्यान रखते हैं और क्या चाहिए मुझे?’

‘क्या वाकई तुम्हें और कुछ नहीं चाहिए?’ उसने गंभीर होकर पूछा।

‘नहीं मुझे मेरी ज़रूरत से ज्यादा मिला है, इतना कि शायद मैं उसके काबिल नहीं।’ मैंने कहा

‘तो फिर तुम्हारी आँखें क्यों बुझी-बुझी सी रहती हैं? क्यों इनमें वह चमक नहीं, जो होनी चाहिए?’

‘बड़ा पहचानने लगे हो तुम आँखें आजकल, बात क्या है? मैंने मुस्कुराने की कोशिश की।

‘बस कोशिश करता रहता हूँ, शायद तुम्हें तरस आ जाए।’

‘किस बात पर?’

‘मेरी हालत पर’

‘किसलिए?’

‘शायद तुम भी मुझसे प्यार कर लो।’

‘अच्छा! तुम मुझसे प्यार करते हो?’

‘बिलकुल’

‘यह जानते हुए भी कि मैं शादीशुदा हूँ। एक बच्चे की माँ हूँ, फिर भी?’

‘हाँ, फिर भी।’

‘फालतू बातें बहुत करने लगे हो।’

‘इसमें गलत क्या है?’

‘गलत है, मैं उन्हें धोखा नहीं दे सकती।’ मेरा स्वर तेज़ हो गया।

‘अरे! चिल्ला क्यों रही हो? यहाँ आस-पास लोग बैठे हैं।’ संयोग डर-सा गया।

‘तो तुम्हारी फालतू की बात पर चिल्लाऊँ नहीं तो और क्या करूँ?’

‘अरे! तो फिर तुम इतना झल्लाई क्यों जा रही हो? इससे तो यही लग रहा है कि तुम अपनी शादीशुदा जिंदगी से खुश नहीं हो।’

‘मिस्टर संयोग, मैं ख़ुश नहीं बहुत ख़ुश हूँ। मेरे पति जैसा इस दुनिया में कोई नहीं। उनकी जितनी तारीफ करूँ, कम है। मुझे मेरी बेटी इस बात का एहसास दिलाती है कि माँ बनकर मैंने पूरी औरत होने का सुख भी पाया। मुझे किस बात की कमी है?’ मैं एक साँस में बोलती चली गई।

संयोग हँसने लगा, ‘मान गया भाई तुमको, शेरनी जैसा दहाड़ने लगती हो। जानता हूँ कि जो तुम कह रही हो, वह सब सही है पर नाराज़ न हो, मैंने कौन-सा तुमसे तुम्हारा शरीर माँग लिया है पर हाँ तुम्हारा मन चाहता हूँ।’

‘मन माँगने वाले को तन माँगते कितनी देर लगेगी?’

संयोग मेरा मुँह देखता रह गया फिर धीरे से बोला, ‘मैं माफ़ी चाहता हूँ मुझे गलत मत समझना। कभी यह न मान लेना कि मैं तुम्हारे शरीर का भूखा हूँ। तुम्हें दोस्त मानता हूँ पर शायद उस सीमा का अतिक्रमण कर दिया। मैंने कहा न कि मैं केवल मन चाहता हूँ, शरीर नहीं।’

‘इसका क्या मतलब है?’ मैंने पूछा।

‘तुम्हारे हँसते चेहरे के पीछे कुछ तो है, जो मुझे रह-रहकर सताता है। कुछ कमी तो है मुझे लगा कि शायद मैं वह दूर कर सकूँ।’ संयोग एकदम से गंभीर हो गया।

‘मुझे कोई कमी नहीं है। सब कुछ है मेरे पास, एक प्यार करने वाला पति, एक प्यारी बेटी, अच्छा घर, रहन-सहन सब कुछ पर।’

‘पर क्या?’

‘पर मन उड़ना चाहता है, दूर आसमानों में जहाँ कोई बंधन न हो।’

‘बंधन, कैसा बंधन?’

‘पता नहीं पर कुछ तो है, जो दिखाई नहीं देता, लेकिन है।’

‘यह कैसी अजीब बातें कर रही हो? कुछ है, दिखाई नहीं देता भूत-प्रेत हैं क्या?’

‘नहीं, लेकिन मन में कुछ खाली-खाली सा है, जो मेरे पैरों को बाँधे है।’

‘क्या पति से उठ गई हो?’

‘नहीं’

‘बेटी की कोई चिंता?’

‘नहीं’

‘घर की कोई समस्या।’

‘अरे नहीं’

‘तो फिर क्या है?’

‘पता नहीं।’

‘घर छोड़ना चाहती हो?’

‘नहीं’

मुझे तो पूरी तरह से लग रहा है कि तुम अपनी शादी से ख़ुश नहीं हो वरना कोई भी औरत इस तरह से नहीं रह सकती कि उसे परेशानी न होने पर भी वह परेशान रहे।’

‘पता नहीं।’

‘नहीं, पता नहीं, नहीं, पता नहीं इसके अलावा भी है कुछ तुम्हारे पास बोलने के लिए?’

मैं बाहर देखने लगी फिर उससे बोली, ‘तुम्हें क्या लगता है? मुझे प्यार चाहिए, किसी का साथ चाहिए, रोने के लिए किसी की बाहें चाहिए, अगर इनकी कमी होती तो कब की पूरी हो चुकी है। सच यह है कि मेरा शरीर बंधन में है पर मन उससे उसके साथ नहीं बंध पाता। शादी शरीर में की, घर शरीर संभालता है, जिम्मेदारियाँ शरीर निभाता है, पर मन की भागीदारी जाने क्यों नहीं होती? पति को देखती हूँ, तो उनके प्यार और समर्पण के कारण उन्हें छोड़ नहीं सकती। बेटी की जिम्मेदारी है, उसे भी नहीं छोड़ सकती। सभी कुछ, सभी लोग साथ हैं, सिवाय एक मेरे मन के।’

इतना कहने के बाद मैंने देखा बारिश बंद हो चुकी थी। मैंने ऊष्मा को फोन किया,

‘ऊष्मा जल्दी नीचे आओ, बारिश बंद हो गई है।’

‘मैं नहीं आ सकती यार, अभी काम खत्म नहीं हुआ है। तुम लोग जाओ।’ इतना कहकर उसने फोन रख दिया।

मैंने देखा संयोग मेरी ही तरफ देख रहा था।

‘ऐसे क्या देख रहे हो?’

‘कुछ नहीं सोच रहा था, तुम्हारा मन कितना अजीब है!’

‘हाँ, वह तो है। जब मैं आज तक अपने मन को नहीं समझ पाई, तो कोई और क्या समझेगा?’

इतना कहकर मैं उठ खड़ी हुई।

‘एक बात कहूँ, बुरा तो नहीं मानोगी?’ सहयोग ने पूछा।

‘नहीं, बोलो।’

‘तुम बड़ी अजीब औरत हो।’

मुझे हँसी आ गई, मैंने कहा, ‘मेरे पति भी यही कहते हैं।’

इतना कह कर मैं उठ कर चल दी।

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