हम भी उल्फत मे वफाओ की रिवायत पे चले

हम भी  उल्फत  मे वफाओ की रिवायत पे चले
ज़ुल्म ताज़ा कोई  तुम ने भी तो ढाया ही नही 

उस की वहशत मे सराबो का अजब जाल सा है
दिल के जैसा भी जहाँ मे कोई सहरा ही नही

सर पे सूरज था मेरे ये न किसी ने देखा
लोग समझे कि मेरे जिस्म मे साया ही नही

अब तो वो शर्म सी आती है कि दम घुटता है
जी मे आता है कि कह दूँ उसे चाहा ही नही

बर्फ ओढे हुए इस तरह मिला वो मुझ से
यूँ कि जैसे कभी पहले मुझे देखा ही नही

 उस की रंगत कि ज्यों धूप मे सहरा चमके 
 तुम तो खालिद ये कहो दिल कभी देखा ही नही





अल्फाज की बन्दिश में फसाने नही आते

अल्फाज की बन्दिश मे फसाने नही आते

सदियो मे भी में लमहों के ज़माने की नहीं आते

जब देखो चमक उठते हैं दामन में सितारे
पलकों को अभी दीप सजाने नहीं आते

सब पर नए अहबाब का इतना तो करम है
अब याद हमें दोस्त पुराने नहीं आते

1 thought on “शायर : ख़ालिद फ़तेहपुरी

  1. बहुत खूब खालीदभाई! आपकी शायरी काबिल-ए-तारीफ है। शुभकामना!

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