कवयित्री: रूपेन्द्र राज
प्रेम! मैं भी चाहती हूँ करना
किसी की आँख के समंदर में
डूबना मैं भी चाहती हूँ
तन की ग्रीष्म के दहकते पलाशों को
चटखाना चाहती हूँ किसी के वक्ष पर।
चाहती हूँ चाँद पर ले जाने वाला
आसमान से तारों को चुरा ले
कोई तो मुझे भी अपना बना ले।
प्रेम की सुंदर अनुभूति से
मन महकाना चाहती हूँ।
लहरों को अपनी ओर आते देख
सोचती हूँ आकर्षण बचा है मुझमें अभी।
बारिश मुझ पर जब झरती है
हवा मेरा आँचल हिलाती है
कुनकुनी धूप मुझे सहलाती है
तो लगता है एहसासों का आभास
मुझ में ज़िंदा है अभी।
आँखों देखा महसूसती हूँ
दिल की गहराई तक।
पर आइना देखने से डरती हूँ
काश! नहीं मरते मेरे एहसास
जो एसिड से मेरी आँखे भी चली जातीं।