भोपाल की वरिष्ठ साहित्यकार संतोष श्रीवास्तव ने मंच पर एक शब्द दिया “अंतर्नाद“ , जिसके प्रवाह में सम्मिलित हुई ये सभी प्रविष्टियाँ –

***संतोष श्रीवास्तव ***

मेरी आस्था ,मेरा किनारा

तुम्ही हो चेतना का 

प्लवन मेरा 

थाम लेते हो तुम्ही 

दुर्गम पथों पर 

टूटता विश्वास मेरा

बनी जिस पल 

जिंदगी मेरी पहेली 

जग उठा अवसाद ,पीड़ा 

मान ली जिस पल पराजय

ठीक उस पल 

एक अंतर्नाद गूंजा

तुम्ही हो,तुम्ही हो

आनन्द का प्रतिरूप 

जो जीत बन भासता है

मेरे मानस मुकुर में।

विनीता राहुरीकर

अंतर्नाद…

सूखे बांस में
फूँक देता है प्राण
साँसों का अंतर्नाद
गूँज उठती है मधुर स्वरलहरी
जीवन बन समस्त सृष्टि के
कण-कण में…

ठीक वैसे ही
हृदय की धड़कन का
अंतर्नाद ऊर्जा बन
प्रवाहित होता है रगों में
गूँजता है समस्त ब्रह्मांड में
प्रेम भक्ति के रूप में जब
कृष्ण के चरणों में
समर्पित होता है…

रूपेन्द्र राज

अंतर्नाद

इच्छाओं के शहर..
अपेक्षाओं की गलियों,
आकांक्षाओं की गुहाओं में
अंतर्द्वंद ही अंतर्द्वंद हैं.

क्षण भर नहीं थमता कोलाहल
निरंतरता की दौड़ में
थके, टूटे मन की अव्यवस्थित गति
का अस्वभाविक गतिमान
नहीं गिनने देता
रात और दिन..
..अंधेरे- उजाले

आर्तनाद की तीक्ष्ण गूँज
नहीं सुनने देती अंतर्नाद.

विजय कान्त वर्मा

अंतर्नाद की पुकार

कभी-कभी जब झपकी लेता
दुनियादारी का जल्लाद
शाश्वत भाव जाग उठते हैं
जागता मन का अंतर्नाद
पूछता है क्यों स्वार्थी हूं मै
क्यों इतना झूठा ढोंगी
दिखा आईना शर्मसार कर
व्यंग भरा करता संवाद ।

पूछता है क्यों रिश्तों को
जिया नहीं सच्चे मन से
लिया सभी कुछ दिया नहीं क्यों
अपनों को सच्चा आल्हाद।

पूछता है क्यों एक भी आंसू
पोछ सका ना जीवन भर
मंझे कलाकारों की भांति क्यों
गाता रहा आडंबर राग।

पूछता है, मिट्टी पानी
हरियाली पर क्यों डाका डाला
मढ़कर दोष दूसरों पर क्यों
जीता झूठा वाद विवाद

पूछता है क्यों हवा को मैंने
बंधक अपना बना रखा
क्यों गैरों को अंजुली भी ना
खुद के लिए सारा आकाश।

है झकझोर जगाता मुझको
कहता, अंतस से गाओ फाग
होगा तब ही सच्चा नाद
जब हो, जज्बातों में आग।

आशालता ओझा
जबलपुर

अंतर्नाद


अंतर्नाद हम अपनी सुनें
और चल पड़ें उस राह पर ।
चाहे बिछे हों शूल जिस पथ
या तलवार की ही धार हो ।
हृदय की आवाज अपनी
बुलंद करना है हमें ।
जीवन की विषमताएँ
दूर करना है हमें।
अंतर्नादों के तीव्र स्वर में
सृजन की वह शक्ति भरदें !
हुँकार से ब्रम्हांड भरदें !
सारी दिशाएँ सजग करदें
फिर न वैसी भूल होवे
बदल जाये जो कलुष हो ।
नित नया स्वर्णिम सबेरा !
सुखों का हो सुंदर बसेरा !

प्यारेलाल साहू मरौद

अंतर्नाद

बाहर भीतर इतना शोर है,
नहीं सुनाई देता अंतर्नाद।
मनुष्य इतना संवेदन शून्य है,
सुनता न किसी का आर्तनाद।।

सोह्म सोह्म की ध्वनि।
भीतर गूंज रही है।
असीम सुख की सरिता।
भीतर बह रही है।।

आत्मा पर मन हावी है।
करता है मन मनमानी।
खुद से ही अनभिज्ञ है।
सुनता नहीं है आत्मवाणी।

घट के भीतर राम रम रहा।
बाहर करता है तलाश।
कस्तूरी खुद की नाभि में है।
मृग ढूंढ़ता फिरता वन की घास।।

भीतर आनंद का सागर है।
फिर भी मन प्यासा है।
दुख भरे जगत में ‘प्यारे’
झूठे सुख की आशा है।।

साधना वैद

मुझे अच्छा लगता है

इन दिनों
मन की खामोशियों को
रात भर गलबहियाँ डाले
गुपचुप फुसफुसाते हुए सुनना
मुझे अच्छा लगता है !

अपने हृदय प्रकोष्ठ के द्वार पर
निविड़ रात के सन्नाटों में
किसी चिर प्रतीक्षित दस्तक की
धीमी-धीमी आवाज़ों को
सुनते रहना
मुझे अच्छा लगता है !

रिक्त अंतरघट की
गहराइयों में हाथ डाल
निस्पंद उँगलियों से
सुख के भूले बिसरे
दो चार पलों को
टटोल कर ढूँढ निकालना
मुझे अच्छा लगता है !

अतीत की वीथियों में क्रमश:
धीमी होती जाती अनगिनती
जानी अनजानी ध्वनियों के
अंतर्नाद के बीच
प्राणों से भी प्रिय
और साँसों से भी अनमोल
गिनी चुनी चंद दुआओं की ध्वनि को
बड़ी एकाग्रता से सुनने की चेष्टा करना
मुझे अच्छा लगता है !

थकान के साथ
शिथिलता का होना
अनिवार्य है ,
शिथिलता के साथ
पलकों का मुँदना भी
तय है और
पलकों के मुँद जाने पर
तंद्रा का छा जाना भी
नियत है !

लेकिन सपनों से खाली
इन रातों में
थके लड़खड़ाते कदमों से
खुद को ढूँढ निकालना
और असीम दुलार से
खुद ही को निज बाहों में समेट
आश्वस्त करना
मुझे अच्छा लगता है !

अजय कुमार श्रीवास्तव


अंतर्नाद

जब से गूंजा है शब्द अंतर्नाद
बड़े किये हैं प्रयास
सुनने के
क्या कहता है मेरा अंतर्नाद

कई बार की कोशिश
बन्द की आंखे कसकर
कोई न कोई व्यवधान
बरबस तोड़ जाता साधना

कभी मुंदती आंखों के ही
याद आते ढेर सारे
विलम्बित प्रतिबद्धित काम
जो लगातार टाले जा रहे थे
कभी स्वप्निल सी झलकियां
राग-द्वेष से पूरित
चौंका जाती
कभी देवर्चना मन
करने लगता प्रार्थना

पर सुन न सका कोई नाद
अंतर, वही ग्रसित मोहमाया में

शायद त्याग के धरातल पर ही
कोई सुन सके
अपना अंतर्नाद
जो सत्यम शिवम और सुंदरम हो!!

नीलिमा मिश्रा

अंतर्नाद

जो तुम सुन लेते कभी ,
अपना अंतर्नाद,
कभी न भटकते ,
सहराओं मे,
मृगतृष्णा के पीछे।

जो तुम सुन लेते,
अपना अंतर्नाद,
अपनी ही कस्तूरी,
के मद मे न भटकते,
वन मे हिरण जैसे।

जो तुम सुन लेते ,
अपना अंतर्नाद,
तो शांति की खोज में,
कभी न भटकते,
कभी गहन कंदराओं में।

जो तुम सुन लेते,
अपना अंतर्नाद,
कभी न खोजते मन के ,
मोती को,
सिकता की सीपियों में।

हाँ ,वो आनंद,
वो सुख,वो कस्तूरी ,
की चाहना ,
तुम्हारे अंतर्नाद मे है,
कभी आत्मा की ,
तो सुनो, पाओगे तुम,
असीम शांति।


सुरेन्द्र कुमार सिंह चांस

अंतर्नाद एक शब्द भी
और उससे जुड़ी
भावनाओं का एक शब्द संसार भी।
शायद ये अपने अंदर से
निकलती हुयी आवाज को
सुननेऔर समझने की
जिज्ञासा पैदा करने वाला
एक शब्द है
सचमुच बहुत विस्तृत
भंडार है अंतर्नाद का।
कभी किसी की सुनी हुयी
बात से भिन्न
उसमें विश्वास के साथ
कि अंतर्नाद सा कुछ है
मेरे अंदर और फिर
लग जाना उसे सुनने के यतन में
सुन कर समझ कर
उसे शब्द में पुनः स्थापित कर
देखना
फिर पाना एक सिलसिला
अंतर्नाद का
जैसे गुजरते हुये समय से
उतपन्न हो रही कोई ध्वनि है
जैसे कायनात की क्रियाशीलता
से उतपन्न हो रही
अनगिनत आवाजों का
सम्मिलन है एक आवाज में
और जिसके सन्दर्भ
बदलते रहते है प्रतिपल
और ये सन्दर्भ कुछ और नहीं
रिश्ता है कायनात से जीवन का
जीवन का कायनात से
और अगर आप अंतर्नाद
सुनने की प्रक्रिया में
कभी गये हों
या कभी सुने हों कोई
ये ब्रितान्त
या न सुने हों
पर ये है जितनी जरूरत
जीवन को कायनात की है
उतनी ही जरूरी कायनात की
जीवन से है
और कायनात बोलती है
जीवन की भाषा
और अंतर्नाद
इसी रिश्ते को
अक्षुण बनाये रखने
रखने की एक पुकार है

डा. साधना तोमर

अन्तर्नाद

अध्यात्म के तारों से
हृदय-वीणा जब झंकृत होती है,
नये-नये सुरों के बीज
अन्तर्मन की धरा पर बोती है।
आत्मिक आनंद के स्रोत
अन्तर में बहते हैं,
मधुर मधुर स्वर में अनकहे
छिपे रहस्यों को कहते हैं।
अनुभूति के सागर में
तरंगें उठने लगती हैं,
अव्यक्त सत्ता को पाने की
उमंगें मचलने लगती हैं।
अन्तर्नाद हिय को
अभिभूत कर देता है,
अलौकिक छवि से मिलन
वशीभूत कर लेता है।
शब्दों में व्यक्त कर पाना
सहज नहीं रसानुभूति को,
अन्तर्मन ही समझ सके
दिव्य आनंदानुभूति को।
यह तो एक मधुर अहसास है,
हृदय का अटूट विश्वास है।

नूतन सिन्हा
अंतर्नाद

जब भी देखती है
मेरी आँखें
अपने चारों ओर
सब नज़र आते हैं
पर वो
नज़र नहीं आता मुझे
क्यों खोजती है
मेरी आँखें उसे
अचानक सुनाई देती है
मेरे मन की आवाज़
वह तो
मेरे दिल के अंदर है
फिर क्यों खोजती है
मेरी आँखें
अपने चारों ओर
ये कैसा अंतर्नाद है
काश मैं समझ पाती !

सुनीता माहेश्वरी

अंतर्नाद


बंद आँखों से
देखती हूँ छवि
तुम्हारी प्रभु,
सहेज लेती हूँ
एक विश्वास,
एक आस |

बिना कानों के
सुनती हूँ अंतर्नाद ,
आनंद मग्न जाती हूँ
उसकी गूँज में |

मुक्त हो जाती हूँ
बुराइयों से ,
निराशा से |
समाजाती है
एक नई ऊर्जा,
नई चेतना
मेरे अंग -अंग में |

प्रभु तुम्हारी यह
अलौकिक गूँज ,
यह अंतर्नाद
ही तो मेरा पथ- प्रदर्शक है |
मेरी पहचान है |
मेरी शक्ति है |
मेरी अस्मिता है |

जनार्दन शर्मा
अंतर्नाद

रोज सुबह उठ कर,जब देखता हूं बाहर 

नजर आते हैं मुझे मेरे शहर के कामगार

तेज,बारिश,हो,बर्फिला सा जाड़ा,या हो गरमी  ,

न,रूकते,हैं,न,थकते हैं,करते हैं,कर्म लगातार,

तब *अंतर्नाद* होता हैं,उन्हे देख कर हर बार,

हे सलाम,तुम्हे, तुम्हारे जज्बे को,इस शहर का साफ रख जिताते,विजय दिलवाते हो हर बार,
क्या तुम,नहीं,घबराते, कभी एसे मौसम हरबार,
क्या थकते नहीं कभी, रोज के एसे जीवनसे
पर दुसरो खुशीयो का,कितना ख्याल रखते हो

अंतर्नाद से कभी तो स्वर निकलता होगा,
हम भी आपकि तरह,इंसान हैं,जो जीने कि चाह
अरमान सभ्य समाज की तरह हम में भी बसते,

पर हमे भी भान हैं,अपने कर्तव्य का ज्ञान है।
मेरा शहर,ही जहां का में हूँ, मेरा अभिमान हैं ।
जिससे इसे मिला आज,दुनिया में सम्मान है।
हमारे अंर्तनाद से बस यहीं निकलता है।
शहर से हम और, हमारी दुनिया में पहचान है।
हमारी दुनिया में पहचान है।

गीता भट्टाचार्या

अंतर्नाद


मन उलझा रहता नित नूतन झंझावतों में,
सुन नहीं पाता मन का अंतर्नाद।
अपनी ढपली अपना राग बजाता रहता।
सुनता नहीं भीतर का आर्तनाद।
क्रन्दन करते मन की तीव्र अवहेलना कर बैठता।
झंकृत हो उठते जब मन वीणा के तार,
तब सहसा खुलती मन की आँखे,
जाग उठता मन का अंतर्नाद
भूल पथ पकड़ लिया था,दिग्भ्रमित हो गया था।
अब से सुनूँगा मन का अंतर्नाद।
दिव्यपथ का अनुसरण करू्ँगा लिया मन में ठान।

डॉ मंजुला हर्ष श्रीवास्तव “मंजुल

हृदय अंर्तनाद करता


प्रेम में आकंठ डूबा
आज है वह वीतरागी
नर्म दिल पर चोट भीषण
प्रीत मन को छोड़ भागी

जोश में बाली उमरिया
प्रेममय संसार सारा
छोड़ निज संबंध सारे
उसने मधु प्रिय को निहारा

पल सभी जादूभरे थे
लग रही दुनिया सुहागी

धन बना रोड़ा हथौड़ा
प्रेम की मजबूरियाँ हैं
याद हैं लाचार आँखें
बिकी वह ,अब दूरियाँ हैं

पूछता हर पात से वह
छोड़ कर क्यों आस भागी

बावरा फिरता गली में
गीत में प्रभु को पुकारे
दर्द से भीगे हुए स्वर
रात दिन करुणित गुहारें

हृदय अंर्तनाद करता
फिर भ्रमित सी पीर जागी’

अनुपमा झा

अंतर्नाद
(१)

फिर कुछ चिर परिचित सा
विकट विकल किए
उच्छवासित हो रहा है
पहुंचा रहा‌ है मुझे
छूटी हुई अन्तरंग सी यादों में
और चातक सी तरस रही हूं मैं
उन रुपहली किरणों की जीजीविषा में
भटकती है रूह मेरी
बदहाल सी कभी कभी
गुम हो जाना चाहती है
ममता की उस छांव में
मगर मिलता है सिर्फ एक अंतर्नाद
जो मेरा मन कर रहा होता है।

(२)

कारण अकारण,सत्य असत्य
झांझावत सा
मृदुल मोहक पुलक तिरोहित
प्रतुल सा
मन ये देखो कैसा मधुर क्षणिक
अंतर्नाद सा
तंतुओं को खेंच कर ध्वनियां
सहेजता सा
मृदंग ताल से मन और मनुज
पालता सा
सपन सुहाने घिर गये नैनन
प्रथम पहर‌ सा
ऊहा‌पोह में दिन गये थे रीत
वितान सा
चल पड़ा था वो शशी आभ
ले नया सा
था क्या फिरती हवा में मद
प्रणय का
सुवासित सी निकली वह भोर
रंग ले नया जीवन का।


3 thoughts on “एक शब्द भाव अनेक

  1. बहुत बढ़िया राजुल जी, सचमुच सभी कविताएं बहुत ही शानदार लिखी गई है और शब्द भी बहुत कम उपयोग में लाया जाता है इसलिए और भी आकर्षक बन पड़ी है ।आपका आभार

  2. अरे वाह । सुखद अनुभूति से भर गया मन । हार्दिक धन्यवाद एवं आभार मेरी भी रचना को सम्मिलित करने के लिये ।

  3. वाकई शानदार सृजन.. एक शब्द पर अनेक भाव पढ़ने का अवसर मिला..इन्हें संकलित करना एक सार्थक उपक्रम राजुल जी…

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