लुप्त-सुप्त-व-नूतन विधाओं की महिमा

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हिंदी दिवस विशेष





प्रकाशक के मंच पर हिंदी दिवस विशेष के उपलक्ष्य में हिंदी सेवी और सुप्रसिद्ध रचनाकार सुश्री महिमा श्रीवास्तव वर्मा द्वारा एक नए कॉलम का श्रीगणेश हो रहा है जिसका नाम है “लुप्त-सुप्त-व -नूतन विधाओं की महिमा” प्रकाशक परिवार में उनका स्वागत करते हुए , उनके इस शुभ प्रयास के लिए उन्हें बधाई ! उल्लेखनीय है कि विश्व मैत्री मंच पर आयोजित एक कार्यशाला में “छन्न पकैया” सिखाती हुई महिमा जी से परिचय हुआ और कॉलम का आरम्भ इसी विधा से हो रहा है –

मानव की वाणी को वरदान स्वरूप शब्दों की सौगात मिली और शब्दों से भाषा के जन्म के साथ ही किस्सागोई के रूप में कथा-कहानियों यानि गद्य लेखन और संवेदनशील मन की अभिव्यक्ति के लिये काव्य यानि पद्य लेखन का जन्म हुआ होगा।

प्राचीन काल से आज तक गद्य और पद्य की कई विधाएँ अस्तिव में आती रही हैं। कुछ विधाएँ जो सनातन काल से चली आ रही हैं, सुप्त होकर लुप्त होने की कगार तक जा पहुँची है। वहीं कुछ विधाएँ ऐसी हैं,जो समय परिवर्तन के साथ अस्तित्व में आयीं, पर इनके बारे में या इन विधाओं के विधान के बारे में कुछ ही गुणीजन जानते हैं।
विदेश से आयातित भी कुछ विधाएँ हैं, जो बेहद खूबसूरत हैं,पर इनके भी जानकार कम ही नज़र आते हैं।

इस कॉलम का उद्देश्य ऐसी ही सुप्त-लुप्त- सनातन विधाओं और नई और कम प्रचलित विधाओं से सभी का परिचय करवाना है।

आज की विधा है-

छन्न पकैया


टीवी के सबसे पुराने और मील का पत्थर बन चुके धारवाहिक हम लोग में सूत्रधार बने दादा मुनि अशोक कुमार छन्न पकैया के साथ कुछ पँक्तियाँ बोलते हुए प्रारम्भ करते थे। यह ‘सार छन्द’ है, तो आइये, आज हम इस  छन्द के बारे में जानते हैं।


सार छंद “विधान”


सार छंद चार चरणों (दोहे की ही तरह)  का एक अत्यंत सरल, गीतात्मक, लोकप्रिय एवं समपाद मात्रिक छंद है।
इसके हर पद के विषम या प्रथम चरण की कुल मात्रा 16  (दोहे में 13)तथा सम या दूसरे चरण की कुल मात्रा 12  (दोहे में 11)होती है। अर्थात कुल मात्राएँ 28 (दोहे में 24 ) एवं  पदों की 16-12(दोहे में 13-11) पर यति होती है।
पदों के दोनों चरणान्त गुरु-गुरु ( 22) या गुरु-लघु-लघु (211) या लघु-लघु-गुरु (112) या लघु-लघु-लघु-लघु (1111) से होते हैं। गेयता के हिसाब से गुरु-गुरु से हुआ चरणान्त अत्युत्तम माना जाता है लेकिन ऐसी होना  अनिवार्य नहीं है।

सार छंद का अत्यंत लोकप्रिय और बेहद रोचक प्रारूप है जो कभी लोक-समाज में अत्यंत लोकप्रिय हुआ करता था।छंद के इस प्रारूप को ’छन्न पकैया’ के नाम से जानते हैं। 

छन्न पकैया का विधान


छन्न पकैया का विधान पूर्णतः  सार छंद  के ही समान है। बस इसके प्रथम चरण में ’छन्न-पकैया छन्न-पकैया’ लिखा जाता है और आगे छंद के सारे नियम पूर्ववत निभाये जाते हैं। छन्न पकैया -छन्न पकैया एक तरह से टेक हुआ करती है, जो उस छंद की कहन के प्रति श्रोता-पाठक का ध्यान आकर्षित करती हुई एक मनमोहक माहौल बनाती है। इस टेक का उपयोग करके सहज में ही बड़ी से बड़ी और गहरी बातें  छंद के माध्यम से कह दी जाती हैं। 

उदाहरण
सार छन्द

भोला सा बचपन था अपना, पीछे छूटा  जाये 

 खेल खिलौने गुड़ियाँ सखियाँ,याद बहुत ही आये  

भोली बातें न्यारी रातें ,  वो अपना-सा सपना 

गगन भरे तारों  में अपना ,चंदा मामा दिखना 
वो नादानी -वो शैतानी , वो तितली -सा उड़ना 

बारिश की बूँदो में घुलकर , अल्हड़पन का बहना

 हल्ला गुल्ला वही शोखियाँ ,जो था खुशी-खज़ाना 

फिर से कोई तो लौटा दे , वो रंगीन ज़माना
रोकर हँसना, लड़ना भिड़ना, वो  मासूम अदायें 

भोला-सा बचपन था अपना, क्यों वापस ना आये

-महिमा श्रीवास्तव वर्मा

सार छन्द- छन्न पकैया रूप में

छन्न पकैया छन्न पकैया, देखो सरपट दौड़ा
 कहीं न रुकता न ही ठहरता,पागल मन का घोड़ा


छन्न पकैया छन्न पकैया, गुलमोहर है झूमा 

खड़ा अकड़कर कड़ी धूप में, सूरज का सिर घूमा 


छन्न पकैया छन्न पकैया,कैसा है बौराया 

पीली फुनगी सिर पर साजे , अमलतास इठलाया 


छन्न पकैया छन्न पकैया, रवि अब तक था ऐंठा

बारिश से गल जाये जैसे, बादल में छुप बैठा 


छन्न पकैया-छन्न पकैया, दुःख हुआ बंजारा
 घर-घर देखो भटक रहा है, बनकर के आवारा 


छन्न पकैया छन्न पकैया, लो न ख़ुशी से पंगा 

हर विपदा को दूर भगा दो, मन को रखकर चंगा


छन्न पकैया छन्न पकैया, देखो ज़रा नज़ारा 

गुजर रहे हैं बिना काज के, दिवस हुए आवारा 


छन्न पकैया छन्न पकैया, सुन लो मेरा कहना 

झूठी बातें सुनो कभी तो, देखो चुप मत रहना

  • महिमा श्रीवास्तव वर्मा

छन्न पकैया एक टेक की तरह है, जिसको आधार बनाकर छन्द लिखा जाता है। दरअसल विवाह के दौरान रोचक और मनोरंजक तुकबंदियाँ करके  रचनाएँ गाये जाने का रिवाज  रहा है। तुक और लय मिलाने के ख्याल से इन रचनाओं को अपनी इच्छानुसार तोड़-मरोड़ लिया जाता है, जिससे भावनाओं का आवेग तो पूरे प्रवाह से प्रकट हो जाता है, पर छन्द के विधान गड़बड़ा जाते हैं।मात्राएँ सही नहीं होतीं। मगर लोक- जीवन  में छन्द विधान नहीं , रोचकता के साथ  भावनाओं की मधुर अभिव्यक्ति महत्वपूर्ण होती है।कुछ उदाहरण दे रहे हैं । 
शादी की विभिन्न रस्मों के दौरान गाये जाने वाली रोचक  तुकबंदियाँ :

1. छन्द पकाऊँ, छन्द पकाऊँ छन्द के ऊपर बरफी।
दूजा छन्द जब कहूं, जब सलहज दे अशरफी।।


2. छन्न पकाई छन्न पकाई, छन्न पके का खुरमा।

आपकी बेटी को ऐसे रक्खूं, जैसे आँख का सुरमा।।


3. छन्न पकाई छन्न पकाई, छन्न पके की डाली।

सासूजी, प्यारी लागे हमको छोटी साली।।


4. छन्न पकाई छन्न पकाई, छन्न पके की हल्दी।

फेरे तो अब हो चुके, विदा कीजिये जल्दी।।

5. छन्न पकाई छन्न पकाई, छन्न पके का लोटा।

ऐसों के हम ब्याने आए, जहाँ पानी का भी टोटा।


6. छन्न पकाई छन्न पकाई, छन्न पके की सेम।

ससुर हमारे लाट साहब, सास हमारी मेम।।

2 thoughts on “लुप्त-सुप्त-व-नूतन विधाओं की महिमा

  1. अति सुंदर सटीक और सार्थक,
    आज के भौतिक युग में जहां हम अपने सांस्कृतिक और नैतिक मूल्यों का पतन के साथ समाज में प्रचलित हास परिहास के माध्यम भी लुप्त होते जा रहे है।
    ऐसे में श्रीमती महिमा जी द्वारा प्राचीन हास परिहास के लुप्त विधाओं के बारे में सटीक जानकारी देना एक देवदुर्लभ कार्य है, जिसके लिए श्रीमती महिमा जी बधाई की पात्र है।

  2. अत्यंत ज्ञानवर्धक जानकारी से ओतप्रोत
    सामग्री हेतु साधुवाद।प्रिय महिमा जी का हार्दिक आभार।इस प्रकार लुप्त सुप्त व नवीन विधाओं की जानकारी से लेखकों व रचनाकारों को अपने लेखन को उत्कृष्ट बनाने में सहायता मिलेगी,साथ ही इन विधाओं का संरक्षण संवर्धन भी होगा।

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