मणिकर्णिका का रास महोत्सव

जहाँ जलाया जा रहा था देहों को
वही सजा कर अपनी देह वो नाचती रहीं…
रातभर रतजगा कर, नृत्य कर मनाती रहीं,
अपने महाकाल को रिझाती रही.

आंखों में अश्रुधारा मन में अपार ग्लानि
जीवन जीने का नृत्य वह भी श्मशान में
मोक्ष की चाह में मीलों चलती रही.

मुर्दों की गंध जहाँ सह न सके कोई
वो स्त्री होकर वहाँ रतजगा करती रहीं.

क्यों तेरे संसार में ये दुराभाव
क्यों मिला जीवन ऐसा…सोचती रही.

लय, ताल, सुर सब व्यर्थ हैं..
मृत्यु ही सत्य…
बस ,यही रटती रही.

ये कैसी लीला है शिव तेरी
मणिकर्णिका के घाट पर यूं रातभर
एक जीवित चिता सुबह होने तक जलती रही.

1 thought on “कवयित्री: रूपेन्द्र राज

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