कवयित्री: संतोष श्रीवास्तव
आत्म निरीक्षण
अकेलापन अकाट्य ,अभेद्य अंतरात्मा की गहराई से
अनुभव किया उसने
सब कुछ के बावजूद
सब कुछ की समाप्ति के बाद उसका मुस्कुराते रहना
जैसे कांटों में खिला गुलाब
अपने विराट दुख में से
सांस रोककर ,खींचतान कर
थोड़ा सा सुख निकालना
दुख की विशाल मूर्ति के
कोनों से कुरेद कुरेद कर
थोड़ी सी मिट्टी निकाल
सुखों के छोटे-छोटे
गुड्डे गुड़िया गढ़ना
दुख की परिभाषा
बदल डालना
नंगे पांव
धधकते अंगारों पर चलना
जिंदगी भर
अग्निपरीक्षा के दांव ही तो
खेलती रही वह
भले ही पाँसे दगा देते रहे
पर बाजी अंत तक खेली उसने
शुक्रिया राजुल जी मेरी कविता को प्रकाशक के पेज पर स्थान देने के लिए