हकीकत नहीं हम वादे और कसमें बेचते हैं,

दुश्मनी नहीं हम प्यार की रसमें बेचते हैं,

पत्थर को पिघला देने की हममें है कूबत,

क्योंकि अंधों के शहर में हम चश्में बेचते हैं।

सूखी नदियों में अब किनारा कहाँ होता है,

अपनों में दर्द का बंटवारा अब कहाँ होता है,

अपनी अपनी दुनिया में मस्त हैं अपने लोग,

बेसहारों का कोई अब सहारा कहाँ होता है।

अपनों की मोहब्बत खोने वाले बड़े बदनसीब होते हैं,

कीमत पता नहीं होती उनकी जब वह करीब होते हैं,

लाख इकट्ठा कर लें दौलत शोहरत नेमत और इज्जत‌

पर बेबाक बेतकल्लुफ़ बेइंतेहा चाहत से गरीब होते हैं।

जिंदगी की गणित में हालात सिफर हो गए,

बूटा-बूटा कर जोड़ा, सब तितर-बितर हो गए,

कल तलक थे जो अजीज़ से भी अजीज़तर,

वक्त की आँधियों में सब इधर-उधर हो गए।

उम्र काबिलियत की मोहताज़ नहीं होती,

वक्त की लाठी में कभी आवाज नहीं होती,

जुबाँ से निकल जाएँगी जब इश्क की बातें,

वह बातें आम हैं फिर कभी राज़ नहीं होतीं।

तेरी हिम्मत तेरे हौसले पर हम नाज़ करते हैं,

कूबत हो तभी तो परिंदे बलंद परवाज़ करते हैं,

जिक्र माज़ी का और न फिक्र कल की कभी,

इरादा आसमाँ छूने का ऐसे जाँबाज़ करते हैं।

खुद ही धरती क्षितिज और आकाश हो तुम।

पूरी हो जाए जहाँ तलाश वह तलाश हो तुम।

बेशक फैले हैं हर तरफ अंधेरे और मायूसियाँ,

तोड़ दे चाँद की चाँदनी ऐसा विश्वास हो तुम।

हकीकत से रूबरू होने में कतराने लगे हैं लोग,

आयने से अपनी शक्ल को बचाने लगे हैं लोग,

खुशबू कहाँ देंगे कम्बख्त ये कागज़ के फूल,

चिंगारियों के करीब इन्हें सजाने लगे हैं लोग।

जब से हम ज़ेर और वह ज़बर हो गए,

हम तो अपने आप से ही बेखबर हो गए,

नज़र को अब आता नहीं कुछ भी नज़र,

हम ही क़ाफिया-रदीफ़ और बहर हो गए।

तेरी हर आह पे जाना कि दर्द की इंतेहाई क्या होती है,

सूना घर सूनी राहें सूखे आँसू की तनहाई क्या होती है,

ना कोई ख़त ना कोई पैगाम ना कोई हाल-ओ-ख़बर तेरी,

बाद मुद्दत के समझा कि अपनों की जुदाई क्या होती है।

या ख़ुदा बस इतनी तौफीक दे,

इनायत कर या मुझे भीख दे,

ग़ुम होने लगूँ जब खुद से कभी,

वक्त पे सलाह बस ठीक ठीक दे।

हाइकु

कैसा है नाता

वर्गफुट में बिकें

धरती माता।

बचा लो पानी

वरना पीना होगा

आँखों का पानी।

हे कोलम्बस

ढूढो नई दुनिया

जहाँ हो पानी।

सुंधर धरा

कभी अयोध्या सहे

कभी गोधरा।

आँखों के नूर

बुढापे की हैं लाठी

हाथों से दूर।

बख्श दो मुझे

मैं तेरा वजूद हूँ

जीने दो इसे।

यह क़लम 

उठे तो शमसीर

चले तो तीर।

पराय़ा धन

ढूढे अपनों में ही

अपनापन।

वे निराले हैं

अपनी आस्तीनों में 

साँप पाले हैं।

हमने देखा 

अमीरों की अपनी

गरीबी रेखा।

कब सो गई

खाली हाँडी के संग

चूल्हे की आग।

माटी ना छोड़ी 

माटी माटी हो गए

माटी के लाल।

हैं मजबूर

दिहाड़ी मजदूर

रोटी से दूर।

रैन बसेरा

कहाँ कटेंगे दिन

चिंता ने घेरा।

बोझ मनो का

जीवन है जबकि

चार दिनों का।

कोरोना भी है

कुछ रोजी के लिए

करना भी है।

क्यों ना सुस्ताती

फड़फड़ाती बाती

कपालभाती।

अब तो चेतो

पशु – पक्षी – नदियाँ

पेड़ सहेजो।

माँ की है आस

बेटा कब आएगा

बहू के साथ।

गठबंधन

मतलब का साथ

पानी चंदन।

कर्णधार

मोटे शीशे की दवात में 

कपड़े के टुकड़े के साथ

भीग रही

काली स्याही की टिक्की।

सेठे की तराशी हुई क़लम

मुल्तानी मिट्टी से 

चँघीटी हुई पट्टी।

पुराने कपड़े से बना झोला,

“वह शक्ति हमें दो दयानिधे”

प्रार्थना का तीव्र स्वर में गायन,

घने पेड़ का चबूतरा,

चारों ओर फैली 

अलग-अलग कक्षाएँ।

नाखूनों से 

मिट्टी पर बनती अल्पनाएँ।

पुरानी टाट – पट्टी

ठी.. ठी … ठी …. फुस –फुस कर बातें,

आँखों – आँखों में ही ललकारें।

रह – रहकर मास्टर साहब की 

ऊँघती हुँकारें।

जैसे चरवाहों का जानवरों को चराना।

पेड़ के सहारे टिका

खुरदुरा सा 

लकड़ी का बोर्ड पुराना।

कभी रामलाल

कभी शामलाल के 

पुराने अँगौछे का डस्टर,

उर्दू के मुंशी मुक्ताप्रसाद

संस्कृत के अब्दुल रहीम।

खाँ साहब

लफ्जों को चबा-चबाकर पढाते 

जमा – ज़रब – तकसीम।

दोपहर के लंच में 

ना पीज़ा, ना बर्गर, न ब्रेड – बटर जैम मलाई,

पुराने कपड़े में बँधी

गुड़ – चबैना और लाई।

अरहर की हरी छड़ी से 

अक्सर पीठ पर बनते 

निशान तिरछे – आड़े,

इसीलिए शायद 

अब तक याद हैं

पूरे तेईस तक पहाड़े।

पट्टी – क़लम – दवात – छोटा बस्ता,

हिंदी – ज्योग्राफी – बायोलोजी – फिजिक्स

केमिस्ट्री-अंग्रेजी

इनसे कोई नहीं वास्ता।

जैसी मिट्टी – वैसा पौधा,

छोटी उम्र – थोड़ा बोझा।

नई कोपलें फल – फूल रही हैं,

बस्तों के बोझ से 

नाजुक टहनियाँ झूल रही हैं।

होमवर्क की दहशत

अनावश्यक अनुशासन

बेवजह की सहूलियें

उच्छ्रंखल होते पौधे,

व्यस्त माली

देश के भावी कर्णधार

बोझ उठाने से पहले ही

कहीं गिर ना जाएँ औंधे।

1 thought on “कवि: पवन कुमार जैन

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