कथाकार: सुधा जुगरान

               

पीहू के कॉलेज की छुट्टी थी. छुट्टी के दिन पढ़ाई करके, अलसा कर वह शाम को ही नहाती थी. इस समय भी वह नहा कर निकली और बालों में ब्रश करते हुये अपने कमरे की पीछे की तरफ खुलने वाली खिड़की के सामने जाकर खड़ी हो गईं. पीछे की तरफ एक सरकारी कॉलोनी बनी थी जो उसके प्रथम तल पर बने बेडरूम की खिड़की से दिखाई देती थी.

 कॉलोनी के प्रत्येक परिवार के पास दो कमरे किचन का सेट था पर हर घर में 5, 6 या 7 लोग भी मजे से रहते थे. किसी घर में बच्चे ज्यादा थे तो कहीं बुजुर्ग माता पिता थे. अंदर से ज्यादा समय घर के सभी सदस्यों का बाहर व्यतीत होता था. खटिया, कुर्सी, दरी सब बाहर पड़ी रहती. वहीं बैठ कर खाते पीते, बच्चे पढ़ाई करते, बाहर ही खेलते, महिलायें सब्जी भी काटती और बतियाती भी. देर रात तक बातों की चुनचुनाहट सुनाई देती. पीहू जब से खिड़की से बाहर झांकने लायक लंबी हुई, तब से वहां के छोटे घरों की ज़िंदगी व अपने बड़े घर की खामोशी को अपने अंदर साथ साथ जीती चली आई है.

वह हमेशा उन्हें हसरत से देखती और सोचती रहती कि 2, 4 भाई बहन के साथ रहना कैसा लगता होगा. आज भी उन्हें देखते हुये अचानक वह बहुत अकेलापन महसूस करने लगी. अगर इस समय उसका कोई भाई बहन उसके साथ कमरे में होता तो कैसा लगता उसे. इस कमी को उसने बचपन से सिद्वत से महसूस किया था. मम्मी पापा की व्यस्त नौकरियां थी. दादी के साथ आखिर कितना समय बिताये. मम्मी पापा जब तब कहते रहते हैं, ‘अकेला बच्चा होना कोई समस्या नहीं है, बल्कि सौभाग्य है‘ हम भी तो अपने घर के अकेले बच्चे थे, यहां तक कि तेरी दादी भी अकेली हीं थीं.

उसे आश्चर्य हुआ था इस बात पर, दादी के जमाने में जहां 8, 10 बच्चे मामूली बात थी, दादी अकेली कैसे रह गईं. तब दादी ने बताया था कि उनके पिताजी की मृत्यू विवाह के 3 साल के अंदर ही हो गई थी. इसलिये दादी अपनी मां के साथ अकेली रह गई थी.

कारण चाहे जो भी रहे हों पर उसकी तीसरी पीढ़ी तक परिवार सिमटते सिमटते छोटा व अकेलापन बढ़ते बढ़ते विराट हो गया था. तभी उसे गेट खुलने की आवाज के साथ नीचे कुछ हलचल सुनाई दी. वह सामने वाली खिड़की पर आकर गेट की तरफ झांकने लगी. गेट पर एक कार खड़ी थी और एक बुजुर्ग व जवान महिला व एक लड़की खड़ी दादी से कुछ बात कर रहीं थी. दादी ने बहुत हर्ष के साथ उन्हें अंदर आने का न्यौता दिया. वे सब लोग नीचे ड्राइंगरूम में आ गये थे. घर कोलाहल से भर गया था. उसी वक्त थोड़े थोड़े अंतराल के बाद मम्मी पापा की कार भी गेट के अंदर दाखिल हुईं और ड्राइंगरूम के कोलाहल में कुछ और वृद्वी हो गई.

उफ्फ! मम्मी पापा तो घर आते ही व्यस्त हो गये. क्षुब्द हो वह अपने मोबाइल से उलझ गई. उसकी कुछ दिन की छुट्टियां थी. सारा दिन अकले बिताना पहाड़ जैसा लगता था. कितना पढ़े, कितना टी वी देखे और कितना फोन पर बातें करे आखिर, काश! उसका घर भले ही बड़ा न होता पर उसका परिवार बड़ा होता.

वह फिर वापस पीछे वाली खिड़की पर जाकर खड़ी हो गई और कॉलोनी के बच्चों को खेलते हुये देखने लगी. किनारे पर एक झुंड में खड़ी लड़कियां आपस में हंसी ठिठोली कर रहीं थीं. पीछे आहट सुन उसने पलट कर देखा तो मम्मी को देख कर खुश हो गई, लेकिन फिर नाराज होती हुई बोली,

”ऑफिस से आकर आप तो बिजी हो गईं….कौन आया है…पूरे दिन से अकेली हूं…..मेरी तो कोई परवाह ही नहीं है आपको…”

”अरे मेरी लाडली गुड़िया…” श्वेता उसे दुलराती हुई बोली, ”एक महीने बाद 22 पूरे कर लेगी पर अभी भी बचपना 13 वाला….जरा नीचे आजा…तुझे बुला रहे हैं”

”क्यों?” वह आश्चर्य से बोली.

”महेश अंकल, तेरे पापा के सीनियर थे, तू तब बहुत छोटी थी…काफी साल पहले उनकी एक्सीडेंट में डेथ हो गई थी…उनकी पत्नी मानसी, उनकी बड़ी बहू और बेटी आईं हैं…तुझे उन्होंने बहुत छोटे में देखा था, इसलिये मिलने के लिये बुला रही हैं”

”बड़ी बहू…मतलब दूसरी बहू भी है….बेटी भी है….” पीहू मस्ती में बोली, ”कितने बच्चे हैं उनके?”

”दो बेटे और हैं….बेटी तेरी उम्र की है..” श्वेता हंसते हुए बोली.

”वाव…., व्हाट अ मस्त फैमिली….हम साथ साथ हैं टाइप्स…फिर तो मैं जरूर मिलूंगी” वह चलने को उद्वत हुई.

”अरे रे…अपना हुलिया तो ठीक कर ले पहलेे”

”क्यों इस हुलिये में क्या बुराई है..” उसने अपने पाजामे व टी शर्ट पर नज़र डाली.

”कोई नहीं…पर यह पहन ले..” पिंक दुपट्टे वाला, ऑफ व्हाइट पैंट सूट निकाल कर बिस्तर पर रखती श्वेता बोली.

श्वेता चली गई. थोड़ी देर में पीहू भी चेंज करके उत्सुकता से नीचे उतर आई. ड्राइंगरूम में कदम रखते ही सबकी नजर उसकी तरफ उठ गई पर उसकी नज़र अनायास ही मानसी के ममता टपकाते स्निग्ध चेहरे पर टिक गई थी. बादामी रंग की सिल्क की साड़ी का थ्रेड वर्क का पल्ला सिर पर रखे वे मुस्कुराती हुई भीगी सी मीठी मुस्कुराहट के साथ उसे ही देख रहीं थीं.

दिनभर की अलसाई पीहू अभी थोड़ी देर पहले ही नहा कर निकली थी. चांदनी में नहाया हुआ उसका उजला रंग, स्याह घटाओं को भी शरमाने पर मजबूर करती उसकी काली घनेरी केश राशी और बड़ी बड़ी आँखें जो मानसी के ममतामयी चेहरे पर टिकी अपनी चिलमन गिराना ही भूल गई थीं.

”अरे, आंटी के पैर छुओ बेटा..” तभी पीहू के पापा सौरभ बोले. वह मंत्रमुग्ध सी उनके पैरों में झुक गई और मानसी ने उसे अपने स्नेहालिंगन में भर लिया. उनसे अलग होकर वह उनकी बहु श्यामली व बेटी श्रद्वा से मिली. उन्होंने उसे अपने बीच बिठा लिया. श्वेता चाय बना कर ले आई. सभी पुरानी बातें याद कर रहे थे. लेकिन मानसी, श्यामली व श्रद्वा बीच बीच में पीहू से भी बातें करतीं जा रहीं थीं. वे तीनों खूब मस्त थीं और उनकी बातचीत से सास बहु व ननद के रिश्ते की आपसी अंतरंगता खूब जाहिर हो रही थी.

पीहू को उनके बीच का स्नेह भरा रिश्ता बहुत आकर्षित कर रहा था. मानसी बात बात में अपने चारों बेटे, दोनों बहुओं व बेटी के मजेदार किस्से सुना रहीं थीं. पीहू सोच रही थी, कितना रस आ रहा है इनकी बातों में, इनके घर में कितनी रौनक रहती होगी.

”आंटी आप सब एक साथ रहते हैं…एक ही घर में,” पीहू ने अचानक पूछा तो मानसी हंसने लगी.

”हाँ बेटा, बाकि सब लोग तो यहीं रहते हैं बस तीसरे नम्बर का बेटा शरद ही दिल्ली में है, पर जल्दी ही उसका तबादला भी चंडीगढ हो जायेगा”

”हां, और उसकी बीवी आयेगी तो इस श्रद्वा को घर से भगा देंगे….एक बेडरूम भी तो खाली चाहिये….अभी तो बेचारा जब घर आता है तो छोटे शिव के साथ रूम शेयर करता है” श्यामली हंसती हुई बोली. भाभी ननद की चुहलबाजी फिर आरंभ हो गई थी.

काफी देर बातें करने के बाद तीनों चली गईं और पीछे छोड़ गईं पीहू के लिये ढेर सारी उत्सुकता और कौतुहल. उन तीनों का साथ ही कितना आनंदित कर रहा था फिर पूरा परिवार जब साथ होता होगा तो कितना अच्छा लगता होगा. काश! उसके घर में भी खूब सारे लोग होते. वे भी 3, 4 भाई बहन होते.

भाई भाभी, जीजा साली, चाचा चाची, मौसी बुवा उसने तो कभी इन रिश्तों को महसूस ही नहीं किया. उसके मम्मी पापा भी तो अकेले हैं और दादी भी. उसके तो कजिन्स भी नहीं हैं. वह देर रात तक अपने अकेलेपन के लिये अपने मम्मी पापा को मन ही मन कोषती रहीं.

रात देर से सोई तो दूसरे दिन देर तक सोती रही. रविवार था. मम्मी पापा की छुट्टी थी. वह अलसाई सी नीचे उतर आई. मम्मी पापा, दादी डाइनिंग टेबल पर बैठे धीरे धीरे बातें कर रहे थे. बातों का टॉपिक सुनकर उसके कदम ठिठक गये.

”अभी 22 की भी पूरी नहीं है माँ…अभी कैसे पीहू की शादी की बात सोचें” पापा दादी से कह रहे थे.

”हां माँ, यह हमारा जमाना थोड़े ही है….आजकल तो लड़कियां आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर हुये बिना शादी के लिए तैयार ही नहीं होती”

”अरे जो लड़कियां…इंजीनियरिंग मेडिकल कर रहीं हैं…उनकी बात अलग है….पर पीहू उन्हें बहुत पसंद है…बहुत अच्छा परिवार है…और प्यार करने वाले खुले विचारों के लोग हैं” दादी धीरे धीरे समझा रही थी.

”माँ, पर अभी तो पीहू भी तैयार नहीं होगी…कॉलेज की पढ़ाई खत्म करके वह भी कुछ न कुछ आगे करना चाहेगी” पापा दुविधा में कह रहे थे.

”तो वे कह तो रहे हैं कि पीहू जो करना चाहेगी कर लेगी, वे उसका पूरा साथ देंगे….तुम बस एक बार लड़के से जाकर मिल लो, आजकल छुट्टी आया है” दादी बात खत्म करती हुई बोली.

नीचे होने वाली बातचीत से पीहू की नींद की खुमारी टूट गई. दिल किया दौड़ कर जाए और कह दे, ‘मुझे कुबूल है…कुबूल है‘ पुलकित सी वह वापस अपने कमरे में भाग गई.

उसे अंदर से बहुत सुखद लग रहा था, उस प्यारे से जिं़दादिल परिवार का हिस्सा बनना. अपने घर के अकेलेपन से वह अजीज आ गई थी. पूरे दिन घर की दिनचर्या सामान्य रही. शाम को श्वेता और सौरभ कहीं चले गये.

उसने मम्मी से पूछा, ‘कहां जा रहे हो‘ तो मम्मी ने भी कोई स्पष्ट जवाब नहीं दिया, दादी से पूछा, उन्होंने भी गोलमाल सा जवाब दिया.

दो घंटे बाद श्वेता सौरभ वापस आ गये. गेट पर कार के अंदर आने की आवाज सुनकर वह जानबूझ कर कमरे में चली गई पर कान बाहर से आने वाली आवाज पर लगे थे. स्पष्ट सुनने के लिये वह कमरे के दरवाजे पर आकर ध्यान से नीचे से आती आवाजों को सुनने की कोशिश करने लगी. श्वेता और सौरभ मानसी के बेटे से मिलकर आये थे,

”पर उनका घर साधारण सा ही है…मतलब कि अपनी जैसी कोठी वाली कोई बात नहीं” श्वेता बोल रही थी.

”हाँ, यह तो है…पिता के एक्सीडेंट के बाद बड़े भाई ने किसी तरह परिवार को खड़ा किया….लड़के की नौकरी अच्छी है, देखने में भी स्मार्ट है” सौरभ कह रहे थे.

”लड़के को देखो…परिवार को देखो, चारदीवारिया ंतो बाद में बन ही जायेंगी…..घर तो परिवार वालों से बनता है” दादी बोली.

”पूछ कर देखती हूँ पीहू से….उसका इतनी जल्दी शादी के लिये तैयार होना मुश्किल है….सुनते ही बिदक जायेगी” सुनकर पीहू मुस्कुराती हुई कमरे में चली गई. मम्मी-पापा की बात सही है. लेकिन बात अगर इस परिवार का हिस्सा बनने की है तो ‘हाँ‘ वह विवाह करना चाहती है…छुटकारा चाहती है, इन खामोश दीवारों से, भयंकर अकेलेपन से….नहीं चाहिये उसे बड़ी कोठी, बड़ी शान…यह तो कमाया जा सकता है….लेकिन जो उसे उस परिवार में मिलेगा वह कहीं नहीं मिलेगा…..उसे बड़े मकान की खामोश दीवारें नहीं बल्कि बड़े परिवार का जीवंत कोलाहल चाहिये….अलग अलग रिश्तों की रेशमी गर्माहट लिये अपनेपन का अहसास दिलाने वाला लिहाफ चाहिये.

तभी मम्मी के आने की आहट सुनकर वह बिस्तर पर अधलेटी हो टीवी देखने की एक्टिंग करने लगी.

”क्या कर रही है पीहू” श्वेता उसे टीवी पर नज़रे गड़ाये देख कर बोली.

”कुछ नहीं..” उसने व्यस्त भाव से मम्मी की तरफ देखा, ”आप और पापा कहाँ गये थे”

”तेरे लिये दूल्हा देखने..” श्वेता एकाएक बिना लाग लपेट के बातचीत का सूत्र थाम मुस्कुरा पड़ी.

”अच्छा? मिला क्या” वह भी झूठ मूठ बातचीत का आनंद लेती हँस पड़ी.

”हाँ, मानसी आंटी का बेटा शरद, इंजीनियर है…अच्छी पोस्ट पर है….करेगी शादी?” श्वेता ने नटखट अंदाज में उसे छेड़ते हुये घूरा. पीहू किसी तरह अपनी मुस्कान दबाये टीवी पर अपनी निगाह ताने बैठी रही.

”बता न…करेगी शादी….दादी ने कहा, ‘पूछ लो‘ मैंने तो कह दिया था, पीहू नहीं मानेगी अभी” श्वेता उसका सिर सहलाते हुये बोली. जवाब में पीहू ने मीठी मुस्कान से मम्मी की तरफ देखा और शरमा कर मुंह लिहाफ में छिपा औंधे मुंह लेट गई.

श्वेता हक्की बक्की खड़ी रह गई. उसकी समझ में नहीं आ रहा था कि पीहू इतनी बड़ी हो गई थी या फिर 22 साल की पीहू को उस दिन मानसी के परिवार की पाररिवारिक स्नेहिल वातावरण की चाह ने आकर्षित कर लिया. पीहू उन बच्चों में थी जिन्होंने अपने इकलौते होने को एक दुख की तरह लिया था. उसे अपने इकलौते होने के कारण मिले प्यार व संपन्नता पर रश्क नहीं था.

श्वेता तो पीहू की कुछ और ही प्रतिक्रिया सोच कर आई थी. लेकिन अब हतप्रभ सी लिहाफ में दुबकी हुई बेटी को देख रही थी. अभी तो सिर्फ खुशबू ही आई है मकरंद की….जब उन फूलों के पास जायेगी तो कहीं हमें भूल ही न जाये.

वह कमरे से वापस लौट गई. मन प्राण कुछ शिथिल सा हो रहा था. सीढ़ियां उतरते हुए पैरों में जैसे जान ही नहीं लग रही थी. बेटियां पराई होती हैं, इस जमाने में भी क्या यही सच है, पीहू तो एक कुशाग्र विद्यार्थी है…वे तो यही सोच रहे थे कि फाइनल इम्तिहानों के बाद वह अपने जीवन की कुछ ठोस दिशा तय करने के लिए कोई उचित निर्णय लेगी. लेकिन शादी का निर्णय?

श्वेता समझ नहीं पा रही थी कि क्या पीहू वाकई शादी करना चाहती है या फिर अपने इकलौतेपन से त्रस्त होकर मानसी के परिवार की भीड़ का हिस्सा बनना चाहती है. उसने तो पीहू की दादी की इच्छा का सम्मान करने के लिए यहां तक बात खींच ली थी. सोचा था, पीहू खुद ही इन्कार कर लेगी.

लेकिन अब, इतने बड़े परिवार में, जिसमें उनकी दोनों बड़ी बहुयें उच्चशिक्षित तो हैं पर महत्वाकांक्षी नहीं है या फिर परंपरागत सुसंस्कृत सुंदर परिवार का हिस्सा बन कर वहीं तक जिं़दगी के स्वरूप पर संतोष कर लिया. लेकिन पीहू का लालन पालन अलग तरह से हुआ है…क्या पीहू तालमेल बिठा पायेगी? कहीं कल उसे अपने निर्णय पर पछतावा ना हो, या फिर हमारी इकलौती बेटी हमसे ही दिल से दूर न हो जाये. लेकिन दादी का अनुभव अलग था. वे पीहू को भी अच्छी तरह समझती थीं और उस दिन मानसी के परिवार से मिलकर वह बहुत कुछ अंदाजा लगा चुकी थी, इसलिए उन्होंने इस रिश्ते के लिये जल्दी मचा डाली.

शरद से मिल कर सभी खुश हुए. सगाई के दिन खूबसूरत स्मार्ट शरद व शीतल महकी चांदनी सी पीहू की जोड़ी लाजवाब लग रही थी. यही तय हुआ कि सगाई करके शादी फाइनल इम्तिहानों के बाद की जाए. सगाई वाले दिन देवर ननद की मीठी छेड़ छाड़, सास व दोनों जेठ जिठानियों के भिगो देने वाले स्नेह में डूबी पीहू अत्यधिक प्रफुल्लित थी. दादी भी खुश थी. दूसरी बहू के बाद तीसरी बहू के रूप पीहू का प्रवेश घर में एक अंतराल के बाद हो रहा था. इसलिए सबको वह एक नायाब खिलौना लग रही थी. जिससे हर कोई खेलना चाह रहा था. सब उसे बहुत खास महसूस करवा रहे थे.

देवर ननद की छेड़छाड पीहू की भाई बहन की कमी पूरी कर रही थी. उसकी वर्षों की साध पूरी हो रही थी. फाइनल इम्तिहानों के लिए तो अभी 6 महीने शेष थे. सबसे मिलकर तो पीहू का दिल कर रहा था कि कल ही शादी करके उन्हीं के साथ रहने चली जाए.

सगाई की हलचल खत्म हो गई. सभी अपनी पुरानी दिनचर्या में लौट आए. पीहू भी कॉलेज जाने लगी. शरद वापस अपनी नौकरी पर चला गया. पर पीहू को अब फुरसत कहाँ थी. कॉलेज के बाद का वक्त व्यस्त बीतने लगा. कभी जिठानियों व सास का फोन आ जाता तो कभी ननद देवर का और रात में शरद का.

श्वेता सौरभ के घर आते ही उनसे चिपकी रहने वाली और हर समय अकेलेपन की शिकायत करने वाली पीहू के पास अब उनके लिए फुरसत ही नहीं थी. ससुराल में कभी किसी का तो कभी किसी का जन्मदिन या शादी की सालगिरह पड़ती ही रहती या कोई पर्व त्योहार….पीहू को लिवाने ससुराल पक्ष का कोई न कोई सदस्य कार लेकर गेट पर उपस्थित हो जाता.

जो पीहू हर समय उदास सी घूमती रहती थी. वही पीहू अब हर वक्त अपनी ससुराल के मजेदार हंसाने वाले किस्से बताती न थकती. सबका मनोरंजन करती और खुद भी खुश रहती. श्वेता आश्चर्यचकित थी कि क्या जादू की छड़ी है मानसी के पास जो दूसरों की बेटियों को अपने परिवार के रंग में ऐसे रंग रही है और वह अपनी इकलौती बेटी को भी अपना बना कर नहीं रख पा रही है.

पीहू का पूरा झुकाव अपनी ससुराल की तरफ देख कर श्वेता हल्की सी ईर्ष्या का शिकार हो रही थी. हल्की सी हताशा तो सौरभ भी महसूस कर रहे थे. अलबत्ता दादी बहुत खुश थी. उन्होंने पीहू का अकेलापन बचपन से देखा था. खुद भी अकेली थी पर उनके काफी कजिन्स थे. श्वेता सौरभ के समय का माहौल भी थोड़ा बहुत रिश्तेदारी व पास पड़ोस का माहोल था, पर पीहू जैसे बच्चे आज के समय में वास्तव में अकेलेपन के शिकार हो रहे हैं. उनकी अक्सर श्वेता सौरभ से पीहू को एक भाई बहन देने के लिये जिरह भी हो जाती थी. कितनी बार उन्होंने कहा था कि वे दादी का प्यार दे सकती है पर बच्चे का व्यक्तित्व पाथने के लिये हर रिश्ते का प्यार जरूरी है.

तुम दोनों व्यस्त हो. उसे माता पिता का प्यार का अहसास कराने का भी तुम्हें समय नहीं है. कम से कम उसका कोई भाई बहन होगा तो उसके जीवन की एक बहुत बड़ी कमी दूर हो जायेगी. तुम्हारे महंगे गिफ्ट, सुख सुविधायें उसे वह सब न दे पायेगा जो उसका भाई बहन उसे देगा. इन्सान भावनाओं का पुतला है, बचपन से ही प्यार लेना व देना चाहता है और उसके लिये अपने भाई बहन से बढ़कर माध्यम भला और क्या होगा.

लेकिन श्वेता सौरभ ने तब उनकी एक न सुनी. पर अब श्वेता सिद्वत से महसूस कर रही थी कि कुछ गलती तो हुई है. न वे खुद साथ दे पाये पीहू का, और न ही इस घर में प्यार के मोहपास में बांधने के लिए उसका कोई भाई बहन है. हो सकता है कि कोई बच्चा अकेला भी प्रसन्न रहे. पर पीहू जैसे अधिकतर बच्चे, बचपन से भाई बहन की कमी महसूस करते हैं और बड़े होते होते इस अकेलेपन को अपने अंदर बसा लेते हैं. लेकिन उनकी नैसर्गिक भावनाओं पर जो अकेलेपन का बांध बना होता है वह मौका मिलते ही टूट कर बह निकलता है.

यही शायद पीहू के साथ भी हो रहा था. इसीलिये उसने इस जमाने में भी 22 की उम्र में विवाह के लिये स्वीकृति दे दी. श्वेता बिस्तर पर लेटी अपनी सोचों में गुम थी. एक बेटी थी जिसे वे तन से ही नहीं मन से भी बहुत जल्दी खो देंगे. तभी सजी धजी पीहू सामने आ खड़ी हुई.

”अरे, तू कहाँ जा रही है….आज तो रविवार है….एक दिन तो हम घर में हैं”

”मम्मी, आज शिव का जन्मदिन है….वह मुझे लेने आयेगा….आज वहाँ सबकि छुट्टी है…इसलिए पूरा दिन साथ में गुजारने का प्रोग्राम है…..मूवी का भी प्रोग्राम है”

”लेकिन आज हम भी तो घर पर हैं पीहू” सौरभ, श्वेता की मन स्थिति समझ कर बोले.

”जल्दी आ जाऊंगी पापा” तभी गेट पर कार के हार्न की आवाज सुनकर पीहू बाहर की तरफ मुड़ गई. ”बाय ममा…बाय पापा…..आप दोनों भी आज कोई फिल्म देख आइये” कहकर पीहू दौड़ती हुई चली गई.

वे दोनों हतप्रभ से एक दूसरे को मुंह बाये देखते रह गये. अभी तो शादी भी नहीं हुई पर ऐसा लग रहा है जैसे पीहू अभी से उनकी हो गई. हमसे कोई मोह ही नहीं रह गया जैसे. श्वेता की आँखों से न चाहते हुए भी आँसू बह गये.

”अरे, यह क्या कर रही हो श्वेता…अच्छा है, पहले ही वहां मन लगा रही है, बाद में दिक्कत नहीं होगी”

”मन लगाना अलग बात है…वह तो बाद में लग ही जायेगा….लेकिन माता पिता भी तो कुछ होते हैं….पीहू तो अभी से ऐसे हो गई है जैसे वहीं पैदा हुई हो…उसके लिए हम कुछ भी नहीं….शरद के खयालों में खोई रहती तो अलग बात थी….वह तो उसके परिवार में डूब रही है”

बोलते बोलते श्वेता की हिचकी बंध गई. सौरभ कुछ नहीं बोल पाये. चुपचाप उसकी पीठ सहलाते रहे.

”ऐसी भी क्या कमी रह गई हमारे प्यार में” थोड़ी देर बाद श्वेता आँसू पोंछते हुए उदास मगर गंभीर स्वर में बोली.

”पहले यह बताओ कि खास बात भी क्या रही तुम्हारे प्यार में” पीछे खड़ी दादी उनकी बातें सुन रहीं थी, बोलीं. श्वेता सौरभ ने चौंक कर उनकी तरफ देखा,

”क्या नहीं किया हमने अपनी बच्ची के लिए” दोनों आश्चर्य से बोले, ”कौन सा ऐशो आराम नहीं है आज उसके पास”

”ये ऐशो आराम उसे कहीं भी मिल जाय या फिर वह खुद भी अर्जित कर ले….तो फिर, क्या शेष रह जायेगा….जो सिर्फ तुम दोनों ने उसे दिया हो….जो उसके जीवन की सबसे बड़ी पूंजी हो….जो उसे कहीं और से न मिल पाये” दोनों आश्चर्यचकित हो दादी का चेहरा देखते रह गए.

”हाँ श्वेता…वह अगर इस घर में चिपकी रही तो मेरे साथ….उसके और मेरे बीच दो पीढ़ियों का अंतराल था….मैं उसे प्यार तो दे सकती थी…पर बड़ी होती बच्ची के कई सवाल कई जिज्ञासायें ऐसी थीं जो उसके माता पिता ही शांत कर सकते थे….कुछ भावनायें, कुछ संवेदनायें कुछ अपनापन ऐसा था जिसे वह अपने सहोदरों के साथ ही बांट सकती थी. 22 साल तक पीहू अपने अंदर के अकेलेपन से अकेले ही बातें करती रही. अपनी संवेदनाओं, अपने नैसर्गिक भावनाओं पर बांध बनाये रही…हर बच्चे का स्वभाव अलग होता है….पीहू बेहद संवेदनशील लड़की है…प्यार लेना देना चाहती है….उसे बड़ा घर नहीं…बल्कि पारिवारिक रिश्ते लुभाते हैं….मैंने तुम्हें कितनी बार कहा इस विषय में….पर अपनी अपनी व्यस्तता में खोये, तुमने मेरी बात पर ध्यान नहीं दिया….जिस दिन मानसी पहली बार अपनी बेटी और बहू के साथ यहां आई थी और पीहू जिस तरह से अभिभूत हो उनके आपसी प्यार स्नेह के रिश्तों को देख रही थी, मैं उसी वक्त उसका आकर्षण समझ गई थी…

….उसे विवाह में इतनी दिलचस्पी नहीं है, जितना उस परिवार का हिस्सा बनने में है….वह ऐसे वहां दौड़ी चली जाती है, जैसे वर्षों की प्यास बुझाने जा रही हो….वह तुम्हारी बेटी है, तुम्हारी ही रहेगी…पर तुम्हें तो खुश होना चाहिए…कि वह एक खुशहाल परिवार का हिस्सा बनने जा रही है…खुद भी खुश रहेगी और दूसरों को भी खुशियां बांटेगी…दिल छोटा मत करो, तुम्हारी बच्ची और भी प्यारे रूप में तुम्हारे पास आकर तुम्हें खुशियों से सराबोर कर देगी” दादी स्नेह से श्वेता का सिर सहलाने लगी.

”शायद आप ठीक कह रही है माँ….इकलौती बच्ची के लिए, मेरे अंदर की माँ भी कुछ स्वार्थी हो गई थी….पीहू के प्यार का बहाव उधर ही बहते देख भावनात्मक असुरक्षा महसूस कर रही थी. लेकिन अब मैं ठीक हूं…” कहकर मानसी अपने आंसू पोंछने लगी।


                    

2 thoughts on “कहानी: पीहू अकेली है

  1. बहुत ही अलग सी कहानी है, आज के सिंगल चाइल्ड के चलन पर । सही भी है एक वक्त और एक उम्र बीतने पर सारे बच्चे सब कुछ माता पिता के साथ शेयर नहीं कर पाते हैं। कुछ एक परिवार तो मित्रवत हो सकता है पर फिर भी हमउम्र दोस्त या भाई बहन की बात अलग होती है। एकल परिवार बहुत सी कमियों को ले कर ही आगे बढ़ता है। खूबी खामी तो हर जगह होती है, सामंजस्य बिठाने का प्रयास होना चाहिए।

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