शायर: काशिफ़ अदीब मकनपुरी
क्यूँ मेरी आँखों में आते हैं बराबर आंसू
तोड़ जाते हैं भरम मेरा ये अक्सर आंसू
जाने कब से मेरी आँखों में छुपे बैठे थे
देखते ही तुझे अब आगये बाहर आँसू
सिद्क़ दिल से ये नदामत पे उतर आयें अगर
सर्द कर डालें जहन्नम का मुक़द्दर आंसू
मिल गया आपका जो गोशये दामां इनको
बन गये आज मुक़द्दर के सिकन्दर आंसू
एक तरफ़ सारे ज़माने के ख़ज़ाने हमदम
और इक सम्त तेरी आँखों के गौहर आंसू
किस तरह इनका मैं एहसान उतारुं काशिफ़
ज़िन्दगी को मेरी करते हैं मुनव्वर आंसू
परिन्दे जिस तरह से आबो दाना ढूँढ लेते हैं
जो हैं ख़ाना बदोश अपना ठिकाना ढूँढ लेते हैं
तुम अपने दिल पे रख के हाथ छुप जाओ तो क्या होगा
जो तीर अन्दाज़ हैं अपना निशाना ढूँढ लेते हैं
हमारे अश्क तो बरबाद होंगे ख़ाक पे गिर के
वो रोने के लिए भी कोई शाना ढूँढ लेते हैं
बुरा क्या है अगर हम मस्त हैं अपनी फ़क़ीरी में
जो ऊंचे लोग हैं ऊंचा घराना ढूँढ लेते हैं
मोहब्बत से जो अक्सर चूमते हैं माँ के क़दमों को
वो दुनिया ही में जन्नत का ख़ज़ाना ढूँढ लेते हैं
हज़ारों ग़म हैं दिल में आंख में अश्कों का दरिया है
मगर हंसने का हम फिर भी बहाना ढूँढ लेते हैं
हैं हर जानिब मनाज़िर नफ़रतों के फिर भी ऐ काशिफ़
हम अहले दिल मोहब्बत का तराना ढूँढ लेते हैं