संस्मरण: बाबा आदम और बल्गारिया की राधिका

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संस्मरण

बाबा आदम और बल्गारिया की राधिका

लेखिका : संतोष श्रीवास्तव

बलगारियन शायरा ब्लागा दिमित्रोबा की नज़्म है 
एक पेड़ था /जिस पर सूरज रहा करता था/ वह कुल्हाड़ी से काट दिया गया /और उसका कागज बना लिया गया / अब उसी कागज पर /मैं उस पेड़ की गाथा लिख रही हूं /जिस पर कभी सूरज का बसेरा था /
डोरा ने घबराकर अपने सामने पलंग पर फैले कागज समेट लिए हैं ।क्या इत्तेफाक है डोरा भी बुलगारिया से ही आई है। उड़ीसा के आदिवासियों पर शोध करने ।उसकी सूची में वो आदिवासी इलाके हैं जो हमारी दुनिया से लगभग कटे से हैं ।एकदम अलग थलग, अपने ढंग का जीवन जीते, अपने ढंग की दुनिया रचते । कल शाम हम जगन्नाथ पुरी से आए हैं। मैं, डोरा ,उड़ीसा के आदिवासी इलाकों की जानकारी रखने वाले मिश्रा जी, संजीव और डोरा का बुलगारियां दोस्त आरसोव।आरसोव बहुत अच्छा गिटार बजाता है। वह अपने साथ अपना गिटार भी लाया है ।डोरा और आरसोव की हिंदी ने मुझे हैरत में डाल दिया है। 
“डोरा तुम तो इतनी अच्छी हिंदी लिख पढ़ लेती हो फिर मेरी क्या जरुरत है।”
मैंने कोणार्क एक्सप्रेस में मुंबई से भुवनेश्वर आते हुए पूछा था ।
“जरूरत है ।तुम हिंदुस्तान की लेखिका हो ।जितनी गहराई से तुम उन जगहों के बारे में मुझे बताओगी वह मेरे शोध में सहायक होगा ।”उस वक्त आरसोव ने जिस रोमांटिक अंदाज में डोरा की ओर देखा था वह उसके गिटार की कोई सधी हुई धुन की तरह था जिसे वह हर वक्त बजाता रहा हो।जगन्नाथ पुरी से सुबह नोउ बजे फूलबनी की ओर रवाना हुए। ज्यों ज्यों जीप आगे बढ़ती जंगल की सघनता भी बढ़ती जाती। अजीबोगरीब नाम वाले आदिवासी गांव ।खुर्दा , बेगुनिया ,राजसुनखला, इटा मति ,नयागढ़ ,दासपल्ला ।धान के खेत ही खेत ……खेत जहां खत्म हुए वहां एक तालाब था जिसमें मजेंटा रंग के कमल खिले थे। मैंने ऐसे कमल पहली बार देखे। पूरा तालाब कमल के फूलों का बगीचा नजर आ रहा था। डोरा फूलों को देखकर बच्चों जैसी मचल पड़ी ।मिश्रा जी ने जीप रुकवाई ।फूल तोड़ना आसान न था। कीचड़ दलदल भी हो सकती थी पानी में…. वहीं एक उड़िया मजदूर सिर पर लकड़ियों का गट्ठर लिए जा रहा था। मिश्रा जी के हाथ में पाँच् का नोट देख उसने कीचड़ कांदे की परवाह नहीं की और दौड़ पड़ा कमर कमर तक पानी में। तीन चार फूल कमल नाल सहित डोरा के हाथों में थे। जाने क्यों मुझे कालिदास की शकुंतला याद आ गई।
बेगनिया गांव की दुकाने अशोक और केले के पत्तों के खंभों से सजी थी। गोबर से लिपी पुती देहरी गोवर्धन पूजा की याद दिला रही थी ।अब घना जंगल सामने हैं लेकिन जीप जिस सड़क पर चल रही है वह अभी भी डामर की पक्की सड़क ही है । रास्ता ऐसा घुमावदार कि सूरज सुबह भी आसमान के बीचो-बीच था और शाम को भी। यह कैसा विचित्र एहसास था। फूलबनी में मिश्रा जी ने हमारे रहने का प्रबंध होटल हिल व्यू में किया था ।छोटे-छोटे एक पलंग भर समाय ऐसे कमरे लेकिन सुविधाजनक। इस जंगल में ऐसी सुविधा जुटाना काबिलेतारीफ था ।चाय का थरमस और कांच के गिलास लिए जो लड़का आया उसने पूछने पर बताया 
“जी साब मोटर वाले साब आते हैं इधर। खूब दिन रुकते हैं ।भोत बक्शीश मिल जाती है ।”
फूलबनी चूंकि एक खूबसूरत जंगली इलाका है, जिंदगी की भाग-दौड़ से आठ दस दिन आराम से गुजारे जा सकते हैं यहां ।शायद इसी उद्देश्य से यह होटल बनाया गया है। डोरा कवियत्री है और आरसोव भूत प्रेत में विश्वास रखता है ।मिश्रा जी और संजीव तो सोने चले गए लेकिन हम तीनों देर तक जागते रहे। वह रात फूलबनी के सन्नाटे में भूत प्रेतों की कहानियों से जहां एक ओर डरावनी होती गई वही डोरा की कविताओं ने उस सन्नाटे को मुखर कर दिया।
” यह कविता मेरे देश के महान नेता गेओरगी दिमित्रोव को समर्पित है। दिमित्रोव तुम्हारे देश के गांधी की तरह थे। 1933 में जर्मन नेशनल कांग्रेस की इमारत को जला देने के इलजाम में हिटलर ने उन्हें गिरफ्तार कर लिया था पर वह झूठा इलज़ाम था… तमाम देशी विदेशी ताकतों के कड़े विरोध के बाद उन्हें रिहा किया गया।1944 में बुल्गारिया को फासिस्ट हुकूमत से आजाद कराने वाले हमारे प्यारे नेता दिमित्रोव 1952 में खुद की जिंदगी से आजाद हो गए ।उनका मृत शरीर विज्ञान की मदद से आज भी सुरक्षित है। और वे आज भी हमारे दिलों में जिंदा हैं ।”
डोरा की आंखों में जलती मोमबत्ती की चमक है और मैं याद कर रही हूं …लेकिन किसे और क्यों? क्यों आज भी हम कश्मीर के संकट से मुक्त नहीं हुए हैं? क्यों आज भी देश सांप्रदायिकता की कट्टरता में स्वाहा होता जा रहा है ?और क्यों आज भी हम मुक्त नहीं हुए हैं गुलामी के बचे खुचे अवशेषों से ?डोरा की आंखें झपकने लगी हैं लेकिन फिर भी आरसोव् गिटार बजा रहा है। कैसी कशिश है उसकी उंगलियों में और डोरा की आंखों में।
उबड़ खाबड़ पथरीले रास्तों से जहां तक जीप जा सकती थी गई ।फिर पैदल सफर का लंबा सिलसिला शुरु हुआ। घने जंगलों के एकदम भीतर पहाड़ों की तराई में है आदिवासियों के झोपड़े। गिनती में कुल 62 घर ।घास फूस के झोपड़ों को मिट्टी गोबर से लीप पोतकर दीवारों पर खड़िया मिट्टी और गेरू से फूल पत्ती, जानवरों को उकेरकर खूबसूरत बनाया गया है ।इन झोपड़ो में रहने वाले आदिवासी बॉन,सौरा, कुटिया कहलाते हैं ।इनकी भाषा कुटिया और कांगा कहलाती है ।फूलबनी गांव का सरपंच हमारे साथ है। उसे कांगा और कुटिया दोनों भाषाओं का ज्ञान है ।वह आदिवासियों और डोरा के बीच दुभाषिए का काम कर रहा है ।डोरा के कंधे पर टंगे झोले में नोटबुक के साथ एक टेप रिकॉर्डर भी है ।जो लगातार चल रहा है ।सब कुछ टेप करता हुआ ।मिश्रा जी की जेब रास्ते में तोड़े हुए आंवलों से भरी है ।वे आंवले खाते जाते हैं और बोतल से घूंट घूंट पानी पीते जाते हैं। ऐसा करने से प्यास नहीं लगती।
” लेकिन मौसम तो जाड़ों का है ना “
मेरे कहने पर झेंपते हुए कहते हैं कि “नहीं सरपंच बता रहे थे” हमें आता देख कुछ आदिवासी औरतें दरवाजों के पीछे से झांक रही हैं। एक हंसती हुई सामने आती है। सांवला गुदाज़ बदन, ठोड़ी पर गोदना गुदवाया हुआ, घुटनेतक साड़ी…. ब्लाउज़ नदारत। वह इशारे से मुझे और डोरा को बुलाती हैऔर दीवार से अंदर रसोई की ओर ले जाती है ।गोबर से लिपी रसोई में मिट्टी का चूल्हा जल रहा है और उस पर आधे टूटे घड़े में रेत भरे एक औरत मक्के की लाई फोड रही है। फूली फूली मकाई इधर-उधर छिटकती है तो पास रखे ताड़ के पत्ते से उन्हें सूप में सकेल लेती है ।दोनों में सबके लिए मका की लाई निकाल वही लड़की एक दोना मुझे एक डोरा को पकडाती है ।गरम-गरम लाई से हथेली तपने लगती है पर ऐसा स्वागत मन को भा जाता है ।डोरा ने कई तस्वीरें खींच डाली उसकी। सांवली सलोनी लड़की की मक्की के दानों से शुभ्र हँसी देर तक टकोरती रही मुझे। लड़कियों के लिए इस तरह दोनों में गर्म मका की लाई खाना उत्सव के समान था। मुखिया के घर के आंगन में तीन चार चट्टाने हैं। डोरा समेत हम सब चट्टानों पर बैठ गए।मुखिया किवाड़ की देहरी पर। बिछाने को कुछ नहीं है इनके पास।खजूर के लंबे नोकदार पत्तों से बनी चटाई पर घर के मर्द सोते हैं। औरतें गोबर लिपी जमीन पर बिना कुछ बिछाये ही सो जाती हैं। 
“आपके यहां शादी की क्या रस्में हैं” डोरा हिंदी में पूछती है। जवाब कांधा भाषा में ही देता है मुखिया। फूलबनी का सरपंच दुभाषिए का काम बखूबी निभा रहा है।
“ तीन तरह से शादी तय होती है। जब हमारे उत्सव वगैरह होते हैं और उस में युवक अपनी पसंद की युवती का हाथ पकड़ ले और फिर भी कोई विरोध या मारपीट ना हो तो शादी तय मानी जाती है। दूसरे तरीके से कि लड़की एक महीने तक अपनी पसंद के लड़के के परिवार में रहती है। अगर पसंद आ गई तो दूसरे ही दिन शादी कर डालते हैं। तीसरा तरीका है लड़की का बाप लड़के के बाप के सामने शराब की बोतल रख कर उसकी रजामंदी पूछता है। अगर वह रजामंद है तो बोतल खुल जाती है और जश्न मनाया जाता है। शादी में औरत मर्द दोनों शराब पीते हैं ।रात भर औरतें शराब पीकर शादी के मंडप में झाँगडी नाम का नृत्य करती हैं ।कोई भी उत्सव हो उसमें झाँगडी नाच जरूर होता है।“ मुखिया हमें अपने गांव घुमाने ले जाता है। पतली सकरी गलियों के दोनों ओर बने झोपड़े, पानी के कुएं, बराली देवी का मंदिर, गांव की देवी बराली और देव बालासकुंपा। मंदिर के बाजू में चबूतरे पर बलि चढाई जाती है भैंस या बकरी की।”भैंस की बलि?” मैंने आश्चर्य से सरपंच की तरफ देखा।”आगे तो सुनिए मैडम और भी रोमांचकारी।“ सरपंच का स्वर सपाट था पर रहस्य से भरा भी ।”भैंस या बकरी मंत्र तंत्र के बल पर खुद ही वध स्थल तक आ जाती है। मंत्रों से बिंधीखड़ी रहती है ।हिलती डुलती तक नहीं। फिर उसकी पूजा आरती करके बांस से बने तीर चला कर उसकी भेंट बराली देवी को चढ़ाई जाती है। डोरा ने सिहरते हुए बलि का बड़ा पत्थर,वह खंभा जिससे बली पशु को मंत्र पढ़ते हुए बांधा जाता है और लोहे का बना वध स्थल सबकी तस्वीरें खींची। 
“मंदिर में नीच जात का प्रवेश नहीं” 
“नीच का मतलब?” 
“मतलब भंगी चमार ।गांधी जी जिन्हे हरिजन कहते थे ।“मिश्रा जी ने डोरा को समझाया।“ इन आदिवासियों में भी हरिजन होते हैं?” मैंने चकित हो पूछा।
“इनमें नहीं होते पर अडोस पड़ोस के गांव से आ जाते हैं ।जब भी आते हैं तो उन्हें कथागार में रहना पड़ता है। कथागार क्लब हाउस है आदिवासियों का।“ कहते हुए मुखिया पक्के चबूतरे पर बने पक्के बड़े हॉल में हमें ले जाते हैं।हॉल तक पहुंचने के लिए सीढ़ियां हैं। फूस का छप्पर और गेरु पुती दीवारें।यहां वह महीने भर रहता है ।जब मुखिया उसका चाल चलन परख लेता है तो उसे रहने की स्वीकृति मिल जाती है। तब पंचायत बुलाकर उसे पंचों को पान सुपारी देनी पड़ती है ।यह बाजू में डिंडाघर है। कथागार से आठ दसफर्लांग की दूरी पर। अगर एक गांव से दूसरे गांव में शादी तय होती है तो डिंडाघर में जवान लड़की महीने भर तक रहती है। लड़का आता है और उसे अगर लड़की पसंद आ गई तो शादी तय मानी जाती है। लड़के के नापसंद करने पर समझो पूरे गांव के लड़कों की इंकारी। फिर उसे कोई पसंद नहीं करता और वह डिंडाघर से अपने गांव वापस लौटा दी जाती है। 
“ओह, बड़ी अजीब स्थिति होती होगी तब। कितनी अपमानित होती होगी वह।“ मैंने सोचा था कि आदिवासियों में स्त्री पुरुष के समान हक होते होंगे पर पढ़े-लिखे शहरी से लेकर काला अक्षर भैंस बराबर इन असभ्य कहे जाने वाले आदिवासियों तक औरत की एक ही दशा है। अगरऔरत मर्द में न पटॆ और् औरत दूसरी शादी करना चाहे तो पूर्व पति को मात्र शादी में खर्च होने वाली रकम की भरपाई कर छुटकारा मिल जाता है ।फैसला पंचों को बता दिया जाता है। पंच पूर्व पति को रकम का भुगतान करवा कर कथागार में एक बैठक बुलाते हैं। जिसमें दोनों घरों के बुजुर्ग मौजूद रहते हैं। दोनों पक्षों के बुजुर्गों से किसी फलदार वृक्ष की टहनी तुड़वाकर संबंध विच्छेद मान लिया जाता है और यह मान लिया जाता है कि अब दोनों पक्षों में तिनका भर भी रिश्ता नहीं रहा। हम यह तो जानते थे कि आदिवासियों के अपने कानून होते हैं जिसका पालन करना पूरे आदिवासी समाज का कर्तव्य है डोरा इनकेदंड अपराध के कानून भी जानना चाहती थी पर चलते चलते हम थक गए थे भूख भी लग आई थी। घने बरगद के नीचे बने परकोटे पर हम सब बैठ गए।मिश्रा जी ने कॉफी से भरे थरमस और सैंडविच मंगवा लिए। दोपहर के 3:00 बजे हैं पर ठंड झुरझुरी पैदा कर रही है। आसपास के जंगलों और पहाड़ों से उतरकर ठंड इस आदिवासी अंचल को जैसे बर्फ़ीला बनाने पर तुली है । कॉफी का हर घूंट बदन को हल्की सी गरमाई जरुर दे रहा है पर पल भर की। 1 घंटे के आराम के बाद मुखिया और सरपंच हमें ले जाते हैं कामना घर की ओर। कामना घर आदिवासियों की जेल है एक तरह से।कामना घर के सामने ग्राम देवता का मंदिर है और यज्ञ कुंड है। यज्ञ कुंड के ऊपर दो बल्लियों से मजबूत बाँस बंधा है। जब कोई आदमी अपराधी सिद्ध हो जाता है तो यज्ञ कुंड की अग्नि प्रज्वलित कर उसे इस बाँस पर उल्टा लटका दिया जाता है थोड़ी ही देर में वह आग की तपिश से खून की उल्टियां करने लगता है। तब उसे ले जाकर कामना घर में डाल देते हैं।“ 
“अरे बाप रे….  मर जाता होगा बेचारा।“ इस बार संजीव ने मौन तोड़ा। अपराधी कही मरता है। 10 दिन भूखा प्यासा रखा जाता है उसे। तब वहशुद्ध हो जाता है फिर उसे क्षमा मिल जाती है ग्रामदेव से । “”तुमने एक बात नोट की ?” मैं डोरा से कहती हूं “ये लोग दंड देते समय ना तो अपराधी को हाथ लगाते हैं, ना जानवर की बली देते समय छुरे आदि को। सब काम मंत्र तंत्र के बल पर ही करते हैं।“” विश्वास नहीं होता। क्या मंत्रों में इतनी शक्ति होती है?” कहते हुए डोरा की आंखों में आश्चर्य और भय एक साथ तैरआता है। वह विषय बदलते हुए मुखिया से पूछती है …”आप लोग त्यौहार कौन से मनाते हैं ।“”सभी लेकिन सबसे बड़ा त्यौहार है मकर संक्रांति ।मकर संक्रांति के 21 दिन पहले से यात्रा शुरू होती है । दूर उस सामने वाले पर्वत पर हमारे ग्राम देवता का जागृत मंदिर है ।वहां तक यात्रा की जाती है।नाचते गाते हुए मशाल जलाये हुए सभी वहां जाते हैं ।लेकिन ग्राम देवता मंदिर का पुजारी नहीं जाता। वह मंदिर में आसन लगा कर 21 दिन बैठा रहता है और उसकी हथेली पर खाद मिट्टी डालकर धान बो दी जाती है ।यात्रा समाप्त कर जब सब लौटते हैं तब तक हरी हरी धान उग आती है । यह यात्रा मकर संक्रांति के दिन समाप्त होती है ।अपनी हथेली पर उगी धान की एक-एक पत्ती वह सभी तीर्थ यात्रियों को देता है ।जिसे ले जाकर वेअपने घरों की दीवारों में खौंस देते हैं। कहते हैं फिर हैजा, मलेरिया, बड़ी माता के रोग से छुटकारा मिल जाता है। मकर संक्रांति के दूसरे दिन से कच्चे आम खाना शुरू हो जाता है। आम यहां बहुत अधिक पैदा होता है ।चावल मक्का की खेती होती है लेकिन पूरे गांव में बिना दूध की चाय पीने का चलन है 

  शाम घिर आई है ।सन्नाटा भी पसरने लगा है। अब आदिवासी औरतों का हमें देखने का जोश भी खत्म होता जा रहा है। धीरे धीरे घरों के किवाड़ बंद होने लगे हैं ।मुखिया विदा लेता है हमसे । चेताता है …”संभाल कर जाइए ।शेर चीता है इन जंगलों में। सरपंच बेगुनया गांव की ओर पैदल ही निकल जाते हैं ।इस वादे पर कि कल जल्दी आ जाएं। दूर पहाड़ों के ऊपर जाना होगा ना इसीलिए।“ जीप धान के खेतों के बीचो-बीच बने गेस्ट हाउस के सामने आकर रुक जाती है। गेस्ट हाउस की देखभाल करने वाले अवतार सिंह हमारा ही इंतजार कर रहे हैं। बिजली नहीं है यहां । पैट्रोमेक्स के उजाले में गेस्ट हाउस जगमगा रहा है। हम सब फ्रेश होकर डाइनिंग रुम में आ जाते हैं। डोरा और आरसोव कोन्याक पी रहे हैं ।संजीव ,मिश्रा जी की मौजूदगी में भी मानो सिर्फ अपनी ही दुनिया में खोए हुए ।पूरे सफर के दौरान आरसोव खामोश रहा ।

“मेरा प्रश्न मौजूद है। भूत-प्रेतों के बारे में आदिवासियों के विश्वास को लेकर ।“वह डोरा की कोन्याक पीने से रक्तिम आंखों में डूबते हुए कहता है।

“कल पूछ लेना।“ डोरा निश्चिंतता से जवाब दे रही है। मेरे वहां आते ही चारों मानो मेरी मौजूदगी से सिमटते जाते हैं ।संजीव पीता नहीं है ।मिश्रा जी को आरसोव ने पैग बना कर दिया है कोन्याक का । डोरा धीरे धीरे अपनी लिखी कविता गुनगुना रही है। बाहर घना होता कोहरा धान के खेतों और मेडो पर लगे आम के दरख़्तों ,लताओं को अपनी बाहों में समेटे ले रहा है ।अवतार सिंह मेज पर गर्म-गर्म मटर आलू की सब्जी ,मक्के की मोटी मोटी मक्खन लगी रोटियां ,मिर्चों का अचार और एक प्लेट में प्याज टमाटर काट कर रख जाते हैं ।”ल्यो जी रोटी गरम-गरम खा लो। मिनटों में ठंडा हो जाता है।“ मेरे लिए वह सब छप्पन भोजन जैसा मजा दे रहा था। आरसोव तो पूरी मिर्च एक साथ खा गया और हॉट हॉट चिल्लाता आंखों से आंसू बहाने लगा। डोरा की हंसी थम ही नहीं रही थी।सुबह दस बजे तक कोहरा रहा।कोहरे को चीरती जीप में बेचैनी से टहलते सरपंच जी लपक कर बैठ गए।आज  डोरा ने काला कोट पैंट पहना था और सिर पर हेट लगाया था। हेट से बाहर निकले उसके सुनहरे बाल मक्के के भुट्टों के सुनहरी रेशों जैसे लग रहे थे । रेशमी और सरसराते से….  हम धबणीखोल गांव की चढ़ाई चढ़ने लगे।पैदल ही ।काफी चढ़ाई थी ।जंगल घना…. तमाम इमारती लकड़ियों वाले पेड़ ।पगडंडियों के किनारे किनारे सीताफल, रामफल, चंपा, कचनार के पेड़। धूप का नामोनिशान नहीं था । कहीं कहीं तो पेडों पर अजगर जैसी मोटी मोटी लताएं लिपटी थीं। कोई परिंदा पर फड़फड़ाता तो खामोश जंगल सहम जाता ।कल इटामती गांव के मुखिया ने शेर चीते से सावधान रहने कहा था ।आज भयानक जंगल मानो एहसास करा रहा था कि शेर नजदीक ही कहीं है। हमारे साथ फूलबनी के छै वनकर्मी बंदूक लिए चल रहे थे। बता रहे थे कि मैडम आप दूरबीन से देखते रहिए पेड़ों की फुनगियों को ।अभी तो मौसम है पक्षियों के यहां आकर डेरा डालने का ।बड़े रंग बिरंगे पक्षी आते हैं यहां।“”हम दूरबीन आंखों से लगाएँ तो चले कैसे ?रूके तब देखे ना।“ यही दुविधा डोरा भी महसूस कर रही थी 

“ये लोग इतने बीहड इलाके में रहते हैं सरकार कुछ करती नहीं उनके लिए।“ मैंने सरपंच से पूछा ……”करती क्यों नहीं | इन्हे इंदिरा आवास दिये थे रहने को, पर ये रहे तब ना। खाली घर छोड़कर फिर से चले गए धवणीखोल।“…..अपनी जमीन मुश्किल से छूटती है। लेकिन उसके लिए आदमी सुविधाएं भी त्याग दे सुनकर अजीब लगा ।आदमी तो समझौतावादी होता है ।माहौल के अनुरूप अपने को ढाल लेता है ।करीब डेढ़ घंटे की चढ़ाई और जंगल के बाद आता है धबणीखोल। मुखिया गांव के मुहाने पर ही मिल जाता है। जहां बराली देवी और गिरी देवता का मंदिर है। गिरी याने पहाड़। कृष्ण के वृंदावन में गोवर्धन गिरी पूजा जाता है। यहां गिरी के साथ-साथ धरती, सूरज और वर्षा को भी पूजा जाता है। पहली वर्षा की फुहारेंइनके लिए उत्सव के समान हैं ।हमें आया देख धबणीखोल में रहने वाले कुल 17 झोपडों में से औरतें,मर्द, बच्चे बाहर निकल आए।
औरतें बिना ब्लाउज की गोदना गुदवाई हुई शर्मीली और आंखों में चकित हिरणी का भाव लिए। हम जहां जहां जिन-जिन पगडंडियों से गुजरते सब के सब साथ हो लेते। कुछ समाधियां देख हम ठिठके। मुखिया ने बताया जो चेचक से मर गए यह उनकी समाधियां हैं ।उनके शव को जलाया नहीं जाता दफनाया जाता है। चेचक ,मलेरिया ,हैजा तीनों बीमारी से मरे लोगों को दफनाया जाता है। समाधियों को चूने से पोता गया था। लगभग 1 किलोमीटर दूर उन 17 घरों से अलग-थलग था मुखिया का घर। चारों और फल और सब्जियां लगी थी ।एक लाल सा पत्ता मुखिया ने तोड़ कर हथेली पर रगड़ कर सूँघने को कहा। डोरा की हथेलियों पर मेहंदी रच गई ।आरसोव ने उसकी हथेलियां सूँघने के बहाने चूम लीं। मैंने नज़रअंदाज़ करते हुए जब अपनी हथेली पर पत्ता रगडकर सूँघा तो  अनन्नास जैसी खुश्बू आई।“यह क्या है”” गंगा शिवडी का पत्ता ।जब मलेरिया होता है तो इसे खाते हैं ठीक हो जाता है ।”हां… क्यों नहीं… मरता वही है जिस पर भूत चढ़ जाता है।“ अबकी आरसोव चौकन्ना हुआ…” भूत प्रेत् मानते हैं आप लोग?”” क्यों नहीं मानेंगे भूत, प्रेत, डायन, चुडैल् सब होती है। कौन नहीं मानता है। पर इन्हें साधकर रखना पड़ता है ।नहीं तो गांव के गांव खा जाते हैं ये। अभी दस रोज़ पहले ही तो एक औरत पर डायन आ गई थी। एक बच्चे को खा गई वह ।सब ने उसे पत्थर मार मार कर मार डाला” मैं सिहर उठी। जिस आदिवासी की औरत को पत्थरो से मारा गया था ,वह पेड़ से टिका सिर झुकाए खड़ा था। उदास ,खामोश ।कितने भयानक अंधविश्वास है इनके और कितने भयानक कानून। न जाने कब सुबह होगी यहाँ। उस सुहावनी सब्जीबाडी को पार कर हम सब मुखिया के घर के अंदर खजूर से बनी चटाई पर जाकर बैठ गए। मुखिया की पत्नी, लडकियां तेंदू के पत्तों से दोने बना रही थी। 15 दिन में एक बार गांव के मर्द ,औरतें इन पत्तों से बने दोनों को ,लकड़ियों के गट्ठर, को फल ,सब्जी और धान को फूलबनी के बाजार में जाकर बेचते हैं ।धान के खेत यहां पर कम हैं।कुवेरी,बिरी,कांगलो,जोना आदि मोटे अनाज को यहां जंगलों में आग लगाकर उगाया जाता है। वही भोजन है उनका । जंगलों में आग लगाकर येवर्षा का इंतजार करते हैं और फिर बरसती बूंदों से नम हुई धरती पर इन बीजों को बोते हैं । ये पूरी तरह वर्षा पर निर्भर हैं । वर्षा के लिए ये बरालीदेवी को बकरे की बली चढ़ाते हैं। जब कभी शादी ब्याह के लिए साहूकार से कर्ज लेने की जरूरत पड़ती है तो बदले में उसके खेतों पर काम करना पड़ता है। आदिवासी गांव में आज भी बाटा पद्धति है। चावल दो बदले में शक्कर गुड़ लो। धबणीखोल में केवल कुटिया आदिवासी ही रहते हैं। महुआ से बनी शराब और झाँगडी लोक नृत्य इनके जश्न का साधन है। नृत्य रात भर चलता है ।जब कोई उत्सव हो या फिर शादी व्याह। डोरा के लिए वनकर्मियों ने विशेष रूप से नृत्य का आयोजन किया था। लड़के-लड़कियों ने मिलकर ढोल की थाप पर नाचा। लड़कियों का दल कमर झुकाकर घंटों एक ही मुद्रा में नाचता रहा ।इस बार डोरा वीडियो कैमरा लाई थी ।मुखिया के घर से हमारे लिए मिट्टी के सकोरे में काली चाय और ड्लिया घर मकाकी लाई भिजवाई गई। डलिया तेंदू के पत्तों को जोड़कर बनाई गई थी। नाच की समाप्ति के बाद मुखिया हमें अपनी आयुर्वेद की जड़ी बूटियों की बाड़ी दिखाने ले गया । पर्वत पर सीढ़ीदार बाड़ी में जड़ी बूटियों की क्यारियां …….”इन पत्तों को बिच्छू के काटे पर मलते हैं। इसकी डंडियों का रस सांप के काटे पर।“ यानी जंगल में जितने जहरीले कीड़े मकोड़े सब का इलाज बाड़ी में मौजूद ।बस इलाज नहीं है तो इनके दिन फिरने का ।सभ्य होने का ,अंधविश्वासों से उबरने का,। रात गेस्ट हाउस में कोन्याय पीते हुए डोरा बता रही थी ।”मैं छह महीनों से भारत में आदिवासियों पर काम कर रही हूं।बिहार, छत्तीसगढ़, बस्तर ,झारखंड, मध्यप्रदेश और महाराष्ट्र के आदिवासियों को करीब से देखा पर उड़ीसा के इन आदिवासियों की प्रथाओं में मुझे बहुत कुछ ऐसा मिला जो सभ्य समाज तक अभी पहुंचा नहीं है ।“”क्या इनमें अफेयर्स भी होता है, मुझे नहीं लगता।“ आरसोव ने घूँट भरते हुए कहा।” क्यों नहीं प्यार तो हर जात,हर ओहदे,हर कौम में होता है। तुम अपने देश के डाकू का प्रेम भूल गए मुस्तफा डाकू का जो अपनी प्रेमिका राधिका के संग वादियों में प्रेम के आगोश में दुनिया से कूच कर गया था।मुस्तफा और राधिका बादशाह के सिपाहियों के द्वारा मारे गए थे और डोरा वह लोक गीत गुनगुनाने लगी जिसमें मुस्तफा राधिका के प्रेम का वर्णन है ।….. “लेकिन राधिका नाम तो भारतीय है ।क्या बल्गारिया में भी लड़कियों का नाम राधिका रखा जाता है?” मेरे पूछने पर डोरा खिलखिला पडी।”राधिका मेरे देश का नाम है अगर मैं कहूं तो?”” क्या तुमने कृष्ण कथा पढ़ी है? राधिका उनकी प्रेमिका थी हजारों वर्ष पहले। यह द्वापर युग की कहानी है ।“”कहानी नहीं सत्य घटना। कृष्ण तो पूरे विश्व के हैं। 64 कलाओं से युक्त पूर्ण पुरुष। कृष्ण केवल भारत के नहीं है हां यह बात और है कि उनका जन्म मथुरा में हुआ।“ मैं सोच में पड़ गई हूं। मैं कृष्ण के भारत में जन्म लेने के लिए गर्व महसूस करूँ या अपनी अज्ञानता पर शर्मिंदा हो जाऊं? डोरा कितना जानती है और मैं कितनी मूर्ख ।कृष्ण अपनी राधा संग विश्व के कोने कोने में जा बसे हैं। पूरा विश्व हरिमय है। मेरे और डोरा के बीच एक रिश्ता कायम हो गया ।कृष्ण प्रेम से उपजा रिश्ता । वह वादा करती है। जब वहअपने देश लौट जाएगी तो मुझे कभी नहीं भूलेगी।…. भले ही मैं दोबारा उससे न मिल पाऊँ ।कृष्ण भी तो राधा से बिछड़ कर फिर कभी नहीं मिले फिर भी राधा उनके साथ रही हमेशा। अभी भोर छिटकी ही थी कि अवतार सिंह की चाय हाजिर।“

“अरे इतनी जल्दी ?””दोपहर तक डोरा मैडम के लिए सरकारी जीप आजाएगी तो सोचा आप लोग जल्दी उठ लें और मेरे हाथ के बने छोले भटूरे खा लें” और अवतार सिंह अपनी पगड़ी ठीक करते करते करते गायब। डोरा और आरसोव भी अंगडाई लेते उठ गए चाय पीने। जानती हूं डोरा और मेरा यही तक का साथ है। आज वह भुवनेश्वर लौट जाएगी और मैं चिल्का लेक देखने चली जाऊंगी। डोरा के लिए पूरी सरकारी व्यवस्था है ।उड़ीसा के मुख्यमंत्री की ओर से। क्योंकि वह उनके प्रदेश के आदिवासियों पर शोध करने आई है। उड़ीसा गरीब राज्य माना जाता है ।फिर आदिवासियों का जीवन तो वैसे भी अभावों से भरा है ।आदिवासी कभी बाहर की दुनिया से कोई सरोकार नहीं रखते। उनका अपना जंगलमय संसार है ।अपने कानून,अपने मौसम, अपने देवता ,अपने जादू टोने, तंत्र मंत्र ,…..हमसे भी कुछ नहीं चाहते। अगर चाहते हैं तो किलो भर चावल के बदले मुट्ठी भर नमक या एक भेली गुड।डोरा को छोले इतने पसंद आए कि उसने अवतार सिंह को अपनी घड़ी उतारकर तोहफे के तौर पर दे दी। तभी सरपंच ने बताया “मैडम वह डायन के आदमी ने पहाड़ से छलांग लगा दी घाटी में सुबह से उसी की लाश तलाशी जा रही है”” क्या?” मैंने घबराकर डोरा की ओर देखा। वह भी सकपकाई सी सरपंच का मुँह ताके जा रही थी ।”जिसका बेटा बुखार से मर गया था उसके पति के साथ डायन करार दी गई औरत का प्रेम चलता था ।बेटे की मां अपने 6 वर्ष के बेटे की मौत का बहाना ले उसकी लाश उस औरत की दहलीज पर रख शोर मचाने लगी कि ये औरत नहीं डायन है।कल इसने मेरे बेटे को कुछ खिलाया था जिससे उसे बुखार आया और वह मर गया।“ यह सुनकर गांव वालों ने उसे घर से बाहर घसीटकर पत्थरों से कुचल कर मार डाला। उसी के गम में उसके युवा पति ने आत्महत्या कर ली।“डोरा उत्तेजित हो गई। उत्तेजना में भी उसकी आंखें डबडबा आई।सरपंच ,मिश्रा जी और संजीव कमरे से बाहर चले गए थे और मेरे मन में आंधी कुलबुला रही थी। चाहे मनुष्य उजड्ड गँवार रहे ,चाहे पढ लिखकर अफलातून बन जाए, प्रेम का जहां किस्सा चलता है अंत यही होता है। वह आदिवासी युवक कल बहुत उदास अनमना दिखा था मुझे। उसका सुखचैन उसके अपने ही समाज ने छीन लिया था उससे और अपनों द्वारा ठगा जाना आदमी को जिंदा लाश बना देता है ।सरकारी जीप आ गई थी ।डोरा विदा ले रही थी। उसने मुझे ढेरों सौगातें दी। कपड़े ज़ेवर की नहीं ….प्रेम विश्वास की ,अपनी कविताओं की और उन सुनहले पलों की जो मैंने उन आदिम इलाकों में घूमकर उसके साथ गुजारे। जो दुनिया की नजरों में घने जंगल हैं लेकिन जिनके खूब भीतर आदिवासी समाज सांस लेता है। घृणा ,प्रेम,नफरत ,ममता, लगाव सभी भावनाएं तो हैं उनमें। जैसे मुझ में, डोरा में ,आरसोव में ,डोरा पढ लिख गई है तो उनकी दुनिया जानना चाहती है।अपने ज्ञान का विस्तार करना चाहती है पर वे नहीं चाहते अपने से बाहर की दुनिया को जानना क्योंकि शायद वे जानते हैं कि आदिवासी युवक के द्वारा की गई आत्महत्या और उसकी पत्नी की हत्या उस नफरत से अलग नहीं है जिस नफरत के कारण् सात समंदर पार बलगारियां में मुस्तफा और राधिका की हत्या की गई।

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लेखिका : संतोष श्रीवास्तव

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