न मिली उन की इनायत इतनी

न मिली उन की इनायत इतनी
हम ने तो की थी मुहब्बत इतनी

हम को अहबाब नहीं मिल पाए
पाई उन की न मुरव्वत इतनी

पहले जैसी नहीं अब कोई कसक
है जो तन्हाई की आदत इतनी

नज़्मों ग़ज़लों में लिखूं तुझ को मैं
ए ख़ुदा दे मुझे ताक़त इतनी

खाए हैं अपनों से धोखे इतने
न किसी से है रफ़ाक़त इतनी

काश मैं सच को कभी जी पाती
ज़ीस्त ने दी न इजाज़त इतनी

पढ़ न पाई कभी उन को भी मैं
क्या वो लंबी थी इबारत इतनी

न करूंगी कभी इज़हारे ए वफ़ा
मेरे अन्दर नहीं क़ूवत इतनी

सूरतें ख़ूब यहां है लेकिन
गुलरूख़ों में न लताफ़त इतनी

ऐसे ‘अहसास ‘को क्यों छोड़ दिया
उस ने भी की थी इबादत इतनी

रख तवक़्क़ो नेक तू,तदबीर कर,उम्मीद कर

रख तवक़्क़ो नेक तू,तदबीर कर,उम्मीद कर
ज़हनों दिल में सुबह की तस्वीर कर,उम्मीद कर

पैरहन बदला है उसकी रूह ने तू जान ले
याद को उसकी बहुत तनवीर कर,उम्मीद कर

रख भरोसा तू ख़ुदा पर हिम्मतें वो देगा ही
फैसले के उसकी तू तौक़ीर कर,उम्मीद कर

आज तू आवाज़ दे अपने ही डर को ले बुला
सामना कर खुद को तू शमशीर कर,उम्मीद कर

खाली हाथ आता है इन्सां संग ले जाता अमल
अच्छे ही आमाल की तामीर कर,उम्मीद कर

हो सके तो गम भुला दे और किसी के काम आ
और इलाज़े हसरते दिलगीर कर, उम्मीद कर

मौसमों का क्या सपना,पल में कुछ है पल में कुछ
चश्मे मिज़गा अब तो तू नमगीर कर उम्मीद कर

था गुमां मिल ही गए साथ निभाने वाले

था गुमां मिल ही गए साथ निभाने वाले
हमसफ़र हम को मिले छोड़ के जाने वाले

जिस को समझा था ज़माने से अलग ही मैं ने
उस के अंदाज़ भी निकले हैं ज़माने वाले

धूप तो धूप थी, बरसात भी ज़ालिम निकली
बारिशें आईं, उठे दर्द पुराने वाले

रहमतें नेमतें जिन लोगों को बख़्शीं रब ने
ऐसे हज़रात भी हैं दिल को दुखाने वाले

दिल पे दिखलाई न देंगे ये मगर चेहरे से
ज़ख़्म और दाग़ कभी भी नहीं जाने वाले

इस लिए भीड़ में रहती है ज़बां बन्द मेरी
सच से डर जाते हैं सौ झूठ छुपाने वाले

आइना सामने आ जाए तो डर जाते हैं
एक चेहरे पर कई चेहरे लगाने वाले

इस ज़ीस्त में ख़ुशी की क़यादत नहीं रही

इस ज़ीस्त में ख़ुशी की क़यादत नहीं रही
ग़म थे हज़ारों उन से भी वहशत नहीं रही

कमज़ोर कह दिया कभी नाज़ुक ही कह दिया
निसवानियत की मुझको नदामत नही रही

आँसू ख़ुशी के क्या हैं ये जाना नहीं कभी
रोने की हमको यूं भी इजाज़त नहीं रही

बदले हुए से क्यों हैं ये चेहरे हैं जगह जगह
पहचानने की मुझ में बसारत नहीं रही

ख़ुद को बुलंद रखने का मुझ को हिला मिला
अपनी कभी किसी से रक़ाबत नहीं रही

देखे नहीं वो ख़्वाब जो सच ही न हो सकें
नींदों से इसलिए ही शिकायत नहीं रही

कुछ ऐसे तजरिबात उसे दोस्त दे गए
सपना को दुश्मनों से अदावत नहीं रही

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