ग्राम्य जीवन : कवि और कविता – रतिभान त्रिपाठी
एडवांस हो गया गांव
तुमने
कब से नहीं देखी
अपने गांव में
लुहार की धौंकनी
और लाल हुए लोहे पर
सधे ताल से
खन्न खन्न गिरते घन।
क्या देखा है
कुम्हार के घर
फिरिंगी मारता चाक
और उस पर आकार लेते
माटी के घड़े, हांडी और खिलौने
तपता आवां और भीतर
सुर्ख होती नांदें।
बढ़ई काका
अपने दरवाजे पर दिखते तो हैं
चश्मा लगाए लेकिन
बसुला और छेनी लेकर
खटिया नहीं सालते हैं
ठूंठ को कुर्सी में
तब्दील नहीं करते।
गांव के छोर पर
सूखे पत्ते और उपले
भाड़ में झोंकते हुए
कितने साल से नहीं
दिखा भड़भूंजा
सूप में चने लेकर
अम्मा जमाने से नहीं गई उधर।
कई दिनों तक
बैठान लेकर चल बसी है
चंदू की बूढ़ी गाय
लेकिन हड़वारी ले जाने को
कहां आए गांव के दक्खिन बसे लोग
वह तो
सरकारी गाड़ी बुला लाया है।
सचमुच एडवांस हो गया है गाँव
लेकिन
सहकार नहीं पैसे पर इतराते हैं
सब कुछ रेडीमेड लाते हैं हम
बाज़ार से
सही कह रहा है लल्लन
सत्तू नहीं अब पेप्सी पीते हैं हम।
वाकई बदल गया गांव
मुर्गे
तुम्हें क्या हुआ
जो नहीं देते बांग
भोर में
काका तो अब भी जगते हैं।
चिरई
तुम बोलती क्यों नहीं
पौ फटते ही
आंगन में चीं चीं चीं चीं
अम्मा तो अब भी छीटती है दाना।
कौवे
तुम कहां हुए गुम
जो मुंडेर पर नहीं करते कांव कांव
जबकि भउजी करती है इंतज़ार
मेहमान के आने का।
बटुक
तुम दरवाज़े पर
क्यों नहीं देते आवाज़
जबकि बहन के हाथ
अब तक बनते हैं अंजुरी।
हलवाहे
तुम तो आते ही नहीं
डेहरी पर गोदी लेकर
जबकि ओरी तले रखा है
तुम्हारा ही सहेजा हल।
और चरवाहे
तुम भी हो गए लापता
अरे देखो ना
गौशालाओं में कितनी गायें
खड़े खडे़ निहारती हैं राह।
वाकई
बहुत बदल गया है
हमारा गांव
जहां सब कुछ है
पर नहीं दिखते वो अपने।
फिर से गांव मदारी आया
फिर से गांव मदारी आया
बंदर और बंदरिया लाया
डमरू भी कड़कड़ा बजाया
फिर दोनों का नाच दिखाया,
देखे सारा दुनिया जहान।
पहले वह भालू लाया था
उसको छमछम नचवाया था
फिर लाठी पर चढ़वाया था
ससुरारी भी भेजवाया था
कितना दिखता चतुर सुजान।
अब आगे जब भी आयेगा
सांप नेवले को लाएगा
उन दोनों को लड़वायेगा
ताली सबसे बजवाएगा
सारे दर्शक हैं नादान।
पांच साल में वह आता है
खेल नया वह कर जाता है
रोता कभी, कभी गाता है
सबको मूर्ख बना जाता है
सुना – सुना कर मीठी तान ।
रतिभान त्रिपाठी प्रतिष्ठित कवि-लेखक और पत्रकार हैं.