कवि शैलेंद्र शांत

1

बदल का भ्रम

न बनती है
न संवरती है
न निखरती
यह दुनिया
तुम्हारे बिना

फिर भी
जहर परोसती है
यह दुनिया
तुम्हारे लिये

कभी झपटती है
बाज बन कर

कभी लपकती है
आग बन कर

यह दुनिया
सुधरती सी
नहीं लगती

बदल का भ्रम
देती सी लगती है
बिला शक ज़रूर !

गजलें
1.
वे जो खाये , पीये , अघाये हैं
प्रवचन पर उतर उतर आये हैं

दुख तो कभी, उन्हें छूता नहीं
हंसी को भी कहां समझ पाये हैं

रोना पड़ सकता है उनको भी
जिनने दूसरों को खूब रुलाये है

यह तो आने जाने का सिलसिला
किताब जिंदगी की, समझाये है

मान लो तो सब तुम्हारे अपने
न मानो तो अपने भी पराये हैं
2.

अकेला हूं, कि पड़ गया अकेला हूं
मुसीबत, कभी बन गया झमेला हूं

सवाल करने की आदत जाती नहीं
अपनों को भी, लगता एक ढ़ेला हूं

जिंदगी तुम ही बताओ मैं क्या कहूं
कितना कुछ नहीं सहा हूं , झेला हूं

नहीं, किसी से कोई शिकायत नहीं
उनके साथ ही तो, हंसा – खेला हूं

3.

अपना यह चेहरा, तुम सा ही तो है
रक्त का रंग गहरा तुम सा ही तो है

हमने कब की कोई बड़ी ख्वाहिश
पेट है,मगर जरा, तुम सा ही तो है

बात खरी-खरी सब कह नहीं पाते
वह आदमी खरा, तुम सा ही तो है

सड़क पर घिसट रहा है, उसे देखो
फिसड्डी, अधमरा, तुम सा ही तो है
4.

उस फसाने को बताना जरा
फिर एक बार दोहराना जरा

भूल ना जाना, वक्त जरूरत
उस गली में टहल आना जरा

दौड़ते दिन, सुबकती रातों की
व्यथा पर, गौर फरमाना जरा

जाने कौन जख्म को कुरेद गया
आकर, मरहम तो लगाना जरा

5.

सच की राह पर चलना बाबा
झूठों से कभी ना डरना बाबा

तुगलक-हिटलर का दौर नहीं
उन जैसी भूलें ना करना बाबा

आह तो, लग कर ही रहती है
जरा बच के इससे रहना बाबा

सह लेना चाहें दुख-तकलीफ
जुल्म मगर मत सहना बाबा

कब तलक यह मंदिर -मस्जिद
इस खेल में मत उलझना बाबा

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