आचार्य चतुरसेन शास्त्री
स्मृति शेष
“मैं गोली हूं.
कलमुंहें विधाता ने मुझे जो रूप दिया है,
राजा इसका दीवाना था,
प्रेमी-पतंगा था.
मैं रंगमहल की रोशनी थी.
दिन में, रात में, वह मुझे निहारता.
कभी चम्पा कहता, कभी चमेली…”
उपन्यासकार आचार्य चतुरसेन के उपन्यास ‘गोली’ की नायिका चम्पा की कही ये बातें उत्सुकता उत्पन्न करती हैं और सिर्फ़ “गोली “ ही नहीं , इस लेखनी से निकली प्रत्येक रचना में ऐसा ही आकर्षण है , ये लेखनी हिंदी साहित्य के सुप्रसिद्ध रचनाकार आचार्य चतुरसेन की है । आचार्य चतुरसेन शास्त्री एक ऐतिहासिकउपन्यासकार थे. उनका जन्म 26 अगस्त, 1891 को उत्तर प्रदेश के बुलन्दशहर जिले के चंदोख में हुआ था. उन्होंने 32 उपन्यास लिखे. इनके अलावा लगभग साढ़े चार सौ कहानियां लिखीं. उनके जीवनकाल में ही उनकी प्रकाशित रचनाओं की संख्या 186 हो चुकी थी, जोअपनेआप में एक कीर्तिमान है. गद्य-काव्य, धर्म, राजनीति, इतिहास, समाजशास्त्र, स्वास्थ्य एवं चिकित्सा जैसे विषयों पर भी उनकी गहरीपकड़ थी.
‘सोमनाथ’, ‘वयं रक्षाम:’, ‘वैशाली की नगरबधु’, ‘सह्याद्रि की चट्टानें’, ‘अपराजिता’, ‘केसरी सिंह की रिहाई’, ‘अमर सिंह’, चार खंडोंमें ‘सोना और ख़ून’, ‘आलमगीर’, ‘धर्मपुत्र’, ‘खग्रास’, ‘मंदिर की नर्तकी’, ‘रक्त की प्यास’, ‘पत्थर युग के दो बुत’, ‘बगुला के पंख’, ‘ह्रदय की परख’ आदि उनके महत्त्वपूर्ण उपन्यास हैं. इनमें ‘वैशाली की नगरवधू’, ‘वयं रक्षामः’ और’सोमनाथ’ विशेष रूप से अत्यंत लोकप्रिय हुए ।स्वयं उन्हें भी ‘वैशाली की नगरवधू’ अपनी सबसे उत्कृष्ट रचना लगी इसीलिए उन्होंने कहा ,”’मैं अब तक की अपनी सारीरचनाओं को रद्द करता हूं, और वैशाली की नगरवधू को अपनी एकमात्र रचना घोषित करता हूं.’ यह कृति साल 1957 में पहली बार छपी. तबसे अब तक न जाने इसके कितने संस्करण छप चुके हैं 2 फरवरी, 1960 को जब उनका देहांत हुआ, तब तक अपनी रचनाओं से वहसमूचे साहित्य जगत पर छा चुके थे.
उनके उपन्यास ‘गोली’ में राजस्थानके राजमहलों में राजा-महाराजाओं और उनकी दासियों के बीच पनपते दैहिक सम्बन्धों और उससे जन्मी व्यथा को संजोया गया है । उन्होंने अपने इस उपन्यास को देश के पहले गृहमंत्री सरदार बल्लभ भाई पटेल को समर्पित किया था. यह वह दौरथा, जब राजाओं का दबदबा पूरी तरह खत्म नहीं हुआ था. लोकतंत्र किशोरावस्था की तरफ कदम बढ़ा रहा था. राजाओं को प्रिवीपर्समिल रहे थे. सरदार पटेल को ‘गोली’ समर्पित करते हुए आचार्य चतुरसेन शास्त्री के शब्द थेः
‘जिसने बिना शस्त्र ग्रहण किए एक ही वर्ष में इतना बड़ा अखण्ड चक्रवर्ती राज्य स्थापित कर दिया- जितना न राम का था न कृष्ण का, नअशोक का था न अकबर का, न लहरों के स्वामी ब्रिटेन का. शरीर उसने अपनी इकलौती बेटी को सौंप दिया और चेतना अपनी जन्म-भूमिको अर्पित की. पुत्री रात-दिन सेवा-रत रहती. समय बचाकर सूत कातती. उसी सूत से उसका कुर्ता बनता, धोती बनती. और जब वह फटजाते तो पुत्री मणि उन्हीं को काट-कूटकर अपनी साड़ी-कुर्ती बनाती. यही था उस परम सत्व का जीवन-वैभव! अपने ही में सम्पन्न, अपनेही में परिपूर्ण!! उन्ही विश्व के अप्रतिम राजनीति-चक्रवर्ती सार्वभौम सरदार वल्लभ भाई पटेल की दिवगंत पावन आत्मा को मेरा यहउपन्यास ‘गोली’ सादर समर्पित है.’
उनकी यह किताब उनकी दूसरी रचनाओं से पूर्णतः अलग थी. इस किताब की समीक्षा में भी बहुत कुछ लिखा गया , प्रकाशक के पाठकों के लिए प्रस्तुत है इस उपन्यास के लिखे जाने की पृष्ठभूमि और वास्तविक उद्देश्य जो आचार्य चतुरसेनशास्त्री ने इस उपन्यास की भूमिका में लिखा –
‘इस वर्ष मैंने 65वां वर्ष समाप्त कर 66 वें में पदार्पण किया. यह पदार्पण शुभ है या अशुभ, यह बात अदृष्ट और भविष्य पर निर्भर हैं. स्वास्थ्य मेरा निरंतर गिरता जा रहा है और इस समय तो मैं अस्वस्थ हूं. गत जून मास में मसूरी गया था, वहीं से घुटनों का दर्द शुरू होगया. इसी सप्ताह एक्सरे कराया तो पता लगा, जोड़ बढ़ गए हैं. मूल-ग्रंथियों में भी विकार उत्पन्न हो गया हैं. इन कारणों से चलने-फिरनेसे लाचार और कमजोर भी हो गया हूं. मानसिक व्याधि शरीर-व्याधि से भी ऊपर है. फिर भी मैं चलता-फिरता हूं, काम भी करता हूं. शरीर-व्याधि की अपेक्षा मानसिक व्याधि पर मैंने अधिक सफलता प्राप्त की है.
‘गत वर्ष इसी अवसर पर मैंने कहा था, ‘मेरे आनंद में सबका हिस्सा है, केवल मेरा दर्द मेरे लिए हैं.’ आज भी मैं अपने इस वचन कोदुहराता हूं. इन दिनों मैंने एक नई अनुभूति प्राप्त की है- दर्द का प्यार में विसर्जन. मेरी इसी नई अनुभूति ने मुझसे नया उपन्यास ‘गोली’ लिखवा डाला है, जिसकी नायिका चंपा का मैंने ‘दर्द का प्यार में विसर्जन’ की मनोभूमि में श्रृंगार किया है. इस श्रृंगार का देवता है किसुन. मैं जानता हूं, मेरी इस चंपा को आप कभी भूलेंगे नहीं. चंपा के दर्द की एक-एक टीस आप एक बहुमूल्य रत्न की भांति अपने हृदय मेंसंजोकर रखेंगे. किसुन के दर्द की परवाह करने की आपको आवश्यकता नहीं हैं, क्योंकि देवताओं को दर्द व्यापता नहीं है.
एक बात और है. अपनी शारीरिक और मानसिक- दोनों ही व्याधियों को मैंने अपने परिश्रम से थका डाला है. आप कदाचित् विश्वास नकरें कि यह अस्वस्थ और भग्न पुरूष जीवन के समूचे भार को ढोता हुआ आज भी निरंतर 12 से 18 घंटे तक अपनी मेज पर झुका बैठारहता है. बहुधा उसका खाना-पीना और कभी-कभी सोना भी वहीं संपन्न हो जाता है. अपने मन को हल्का करने की मैंने अद्भुत विधिनिकाली है. अपने आनंद और हास्य को तो मैं अपने मित्रों में बिखेरता रहता हूं और दर्द को अपने पात्रों को बांट देता हूं. अपने पास कुछनहीं रखता. इसके अतिरिक्त मुझे एक अकल्पित- अतर्कित दौलत तभी मिल गई- मुन्नी.
‘पैंसठ वर्ष की आयु में विधाता ने मुझे अचानक ही एक पुत्री का पिता बनाकर अच्छा मसखरापन किया. मुन्नी मुझे अब एक नया पाठपढ़ा रही है, निर्द्वंद्व हंसते रहने का. अब तक मेरी जीवन-संगिनी अकेली मेरी कलम थी, जो आधी शताब्दी से अखंड चल रही है. अब तोजीवन-संगिनी हो गई- दूसरी हमारी मुन्नी. दोनों की दो राहें हैं- कलम रुलाती है, मुन्नी हंसाती है. आनंद कहां अधिक पाता हूं सो नहींजानता. आप मुझे मूढ़ कह सकते हैं, सो मूढ़ तो मैं हूं ही.
जीवन से मोह मुझे सदा ही रहा है, आज भी है. मुन्नी ने उसमें और इजाफा किया है. पर शरीर-धर्म तो अपनी राह चलेगा ही. मैं इन बातोंपर ध्यान नहीं देता. पर इस जन्मदिन ने मेरा ध्यान इधर खींच लिया. सो शरीर अपनी राह पर जाए, मुझे चिंता नहीं हैं, मैं तो अपना कामईमानदारी से कर रहा हूं. जब तक संभव होगा, करता रहूंगा. इस वर्ष परिश्रम मैंने बहुत-बहुत किया, पर नाम लेने योग्य ग्रंथ तो एक हीदिया- ‘गोली’. परंतु इसके अतिरिक्त भी इस जन्मदिवस के क्षण में अपने चिर साध्य ‘भारतीय संस्कृति के इतिहास’ की पांडुलिपि कीसमाप्ति पर भी हस्ताक्षर किए.”
हिंदी साहित्यकी साधना में रत एकाग्र साधक को प्रकाशक परिवार का नमन
- राजुल