कवयित्री : राखी कुलश्रेष्ठ
सम्बधों में अपनापन हो,
और समर्पण का भी धन हो।
कोरे कोरे वन उपवन में,
प्रीत प्रेम का गठबंधन हो।।
शुष्क धरा के तटबंधों में,
मधुर प्यार मिश्री को घोलें।
रिसते घट के अनुबंधों में,
नम्रशीलता बचन को बोलें।
भले घरौंदे बनें हों कच्चे,
लेकिन नेह का आनंद वन हो।।
कोरे कोरे…..
टूटे बिखरों सम्बधों में,
सबंल सरिता सिंधु बनाएं।
भावों में अहसास सरलता,
आनंद सुख की नाव बनाएं।
पथरीली पगडंडी में भी,
हर्ष का आवागमन हो।।
कोरे कोरे….
सुखद पलों की अनुरक्ति को,
घर के आंगन बांध लो,
अगर कभी कठिनाई आए,
संयम धैर्य से साध लो।
स्नेहिल छाया प्रकाश की,
ऐसा एक वृंदावन हो।।
कोरे कोरे…..
जो झोपड़ में हैं उनके छीने निवाले।
प्रभु के भी कैसे हैं खेल निराले।
ये नजराना धनिकों ने दी है बिमारी,
ना निर्धन के होते भी पैरों में छाले।
जो रहते थे अब तक खुदा के भरोसे,
ये भाग्य भी पगड़ी उन्हीं की उछाले।
ज़मीं पर हुकुमत की चाबुक की मारें,
ये जीवन भी विधि और नियति के हवाले।
ये विनती भी रब से हैं करती ये राखी,
प्रभु अब तो कर दो जमीं पर उजाले।