बाल कहानी : वादा – अलका प्रमोद
बाल कहानी राघव स्कूल जा रहा था। उसे रास्ते में एक ढेला पड़ा हुआ दिखाई दिया उसने उसे पैर से...
बाल कहानी राघव स्कूल जा रहा था। उसे रास्ते में एक ढेला पड़ा हुआ दिखाई दिया उसने उसे पैर से...
लेखिका -संतोष श्रीवास्तव गूँगी संतोष श्रीवास्तव हॉल की आधुनिक लेकिन राजसी सजावट को वह बिटर-बिटर टाक रही थी| सोफे...
कथाकार : कुसुम भट्ट नदी की उंगलियों के निशान हमारी पीठ पर थे। हमारे पीछेदौड़ रहा मगरमच्छ जबड़ा खोले निगलने को आतुर! बेतहाशा दौड़रही पृथ्वी के ओर-छोर हम दो छोटी लड़कियाँ...! मौत के कितनेचेहरे होते हैं अनुभव किया था उस पल...! दौड़ो... कितना भी दौड़ोपृथ्वी गोल है, घूम कर फिर इसी जगह.... कुछ भी घट सकता है...? नदी की उंगलियों को कोंचने के लिये आमादा मगरमच्छ .... इससेलड़ नहीं सकते हम... इससे बचना है किसी तरह .... यही समझआया था... उस मूक स्वर से ... उस मौन चीख से जो उस थरथरातेगले में अटकी छटपटा रही थी ... एक तीली आग जली थी ..., उसमें जल रही थी हमारी इच्छायेंहमारे स्वप्न....! और हमारी मुक्ति ..? उस मछली सी जिस परबगुला घात लगाये खड़ा था धारा में ...! बस एक तीली आग जली थी उसमंे जलने लगा था भुवनचाचा का जिन्दगी की पन्द्रह सीढ़ियों पर अर्जित किया पौरूष! सुबहदम भरता वह साहस पल भी ही तिरोहित हुआ! अब वहाँ कातर पंछीकी फड़फड़ाहट थी, माँ के शंकालू मन पर विश्वास का मरहमलगाते हुए कहा था, भुवन चाचा ने ‘‘इसमें डरने की बात क्या है भाभी..... मैं हूँ न ... अकेली कहाँ जा रही हैं लड़कियाँ ... और अब उसकाथर थर कांपता हाथ - भागोऽ...........‘‘भुवन चाचा के थरथर काँपतेजिस्म और कातर चेहरे को देख हम समझ गई थी कि मृत्यु निश्चितहै, फिर आखिरी सांस तक कोशिश जारी रखनी है ..... पल भर में समय उलट जायेगा तब कहाँ सोचा था हमने ... सोचने की फुर्सत भी कहाँ थी, नदी के किनारे रेत देखी, रेत के घरौंदेबनाने लगी, बमुश्किल आते हैं ऐसे विरल क्षण जब अपना समय था, जिसे हम अपने मुताबिक पा सकते थे। माँ ने बहुत रोका था- अभीछोटी है लड़कियाँ ‘‘कितनी बार की थी माँ की चिरौरी ‘‘माँ मुझे नदीदेखनी है मछलियाँ देखनी हैं और देखना है घटवार ...’’ नदी से तो माँकांप ही उठी थी’’ ना बाबा नदी में मछलियाँ देखने जाना है तोबिल्कुल नहीं भेजूँगी, नदी में कितने ही लोग डूब गये गर्मियों में बर्फपिघल कर आती है ऊपर से ... पानी कब बढ़ता है पता नहीं चलता‘‘भुुवन चाचा बोले थे’’ नदी में कौन जाने देगा इनको... अरे! भाभीनदी में तो मगरमच्छ भी रहता है... ‘‘भुवन चाचा ने आँख झपकायीथी माँ को, भुवन चाचा के घर पिसान समाप्त हो चुका था, दादीबीमार थी, ‘‘चूल्हा जलाना है तो आटा घटवार से पिसा कर लानाहोगा, भुवन ‘‘दादी ने बुखार में कराहते कहा था। भुवन चाचा अपनेघर में बड़ा, बड़ी बहन शादी करके जा चुकी थी, छोटी बहन माधुरीमेरी सहेली मेरे बिना घटवार में जाना स्थगित कर रही थी, फिर उसनेकहा कि नदी में मछलियाँ रहती हैं जो किनारे आकर लहरों को भीसाथ लाती हैं, उसने खेत की ढ़लान से दिखाई थी नदी, नदी के ऊपरघटवार जिसके पत्थर धूप में चमक रहे थे। माँ ने कहा हमारे घर मेंपिसान के कनस्तर भरे हैं, फिर भी थोड़ा मक्की और ज्वार के दानोंकी पोटली बना कर झोले में रख दी थी, पिछली रात मुझे नदी कासपना भी आया था, नीले जल की धारा मीठा-मीठा राग गुनगुनातीलहरों के साथ उसकी मछलियाँ उछलती गोया लहरों में नृत्य कर रहीहों..... नदी कह रही थी, शिवानी मेरी मछलियों को छूकर देख.... मैंनेनदी को छुआ..... तो मैं बहने लगी धारा में.... मैंने मछलियों को छुआतो मेरे पंख उग आये मैं उड़ने लगी हवा में ऊपर ... मगरमच्छ को मैंनेनहीं देखा, मैंने देखा सिर्फ पानी, बहता पानी, पानी के साथ बहतीमछलियाँ, सपना मुझे पंख देकर उड़ाने पर आतुर चन्द्रमा के समीप! चन्द्रमा हँस रहा था’’ इतनी सी खुशी चाहिये बस्स...’’ मैंने कहा’’ हाँबस इतनी सी खुशी .. मैंने सपने की बात माधुरी और भुवन चाचासे कही, भुवन चाचा ने मेरे सिर पर चपत मारी ‘‘इतनी छोटी लड़कीऔर इतने बड़े सपने कि चाँद से बतिया कर आये... उसने घुड़कनेके अंदाज में कहा’’ छोटे सपने देखा कर लड़की.... बेवकूफ! उसे पता ही नहीं सपनों पर अपना वश नहीं चलताउन्हें तो नींद लेकर आती है, जैसे मछलियों को लेकर आता है पानी... चीड़ के लम्बे जंगल को पार कर हम पहाड़ की ढलान पर उतरते खूबनीचे आये थे। घाटी में यहीं था घटवार नदी के ऊपर घने पेड़ों केबीच जहाँ से एक छोटी धारा बहती थी। घटवार में कोई नहीं सिर्फअनाज के बोरे ठसाठस भरे थे, बोरों के पीछे दिखी घटवाड़ी कीटोपी, भुवन चाचा ने थैला उतार कर पूछा ‘‘हम दूर से आये हैं, हमाराअनाज पिस जायेगा घटवाड़ी भैजी ?’’ घटवाड़ी ने कहा ‘‘पिसेगा ... क्यों नहीं पिसेगा दोपहर तकजरूर पिस जायेगा’’ भुवन चाचा बैठ गया अनाज के बोरों के ऊपर, हम देहरी सेझांक कर घटवार को चलते देखने लगी, उसका पानी बहुत तेजी केसाथ बहता, पानी का इतना शोर, घटवार की टिक टिक आवाज काशोर दोनों मिलकर दहशत देने लगे, तो हम बाहर हो लिये, माधुरी नेकहा ‘‘शिवानी चल... नदी देखने चलते हैं... तू मेरे भाई से पूछले...’’ भुवन चाचा ने घूरकर देखा ‘‘नदी में डूब जाते हैं लोग... क्याकहा था तेरी माँ ने ... याद है न ...?’’ माधुरी भी हाँ सुनने के लिए अन्दर आ चुकी थी, उसने चिरौरीकी, ‘‘हम रेत में ही खेलेंगे भाई आगे नहीं जायेंगे...’’ भुवन चाचा नेआँख दिखाई बोला ‘‘न हींऽ ‘‘घटरवारी को हमारे, उदास चेहरे अच्छेनहीं लगे वह भी उदास हो गया। उसके चेहरे पर आटा पुता था, परआँखों से उदासी झलकने लगी, पृथ्वी पर कुछ अच्छे लोग भी होते हैं, जिन्हें छोटी बच्चियों का उदास होना अच्छा नहीं लगता, जैसे बागको तितलियों का चुप बैठना अच्छा नहीं लगता, वह फूल खिलाता हैकि तितलियाँ मंडराती रहें तभी दिखता है, सौन्दर्य प्रकृति का, मैंने हीमन कहा, हे भगवान! अच्छे लोगों की दुनिया बनाओ... जिन्हें छोटीलड़कियों की कद्र हो... हमारे घर वालों की तरह जेलर मत बनाओकि जरा सा आसमान माँगने पर! मुट्ठी में कसने लगी है गर्दन - ‘‘जानेदो बेटा... कोई डर नहीं नदी के किनारे पानी भी कम है...’’ घटवाड़ीभुवन चाचा की मनुहार कर रहा था। भुवन चाचा के चेहरे पर धूप की तितली बैठी, माधुरी हवा मेंउड़ी उसके पंख पकड़ कर मैं भी उड़ने लगी.... उस विजन में हम दो लड़कियाँ जिंदगी की नौवीं-दसवीं सीढीपर पांव रखती प्रकृति की भव्यता से अभीभूत! रेत में नहा रही कत्थईरंग की चिड़िया हमारे पास आकर जल का मोती चुगने लगी, हमारेपांव नदी मंे थे, हम पत्थरों पर बैठी नदी का बहना देख रही थी, सिर्फ नदी का कोलाहल और दूर तक कोई नहीं, माधुरी बोली ‘‘नदीकुछ कह रही है सुन - मैंने उसकी आवाज पर कान रखा’’ नदी बोली‘‘मछली की तरह उतरो मेरी धारा में....‘‘ पारदर्शी जल में मछलियों का तैरना दिखा, लेकिन हमारे पासतो दूसरी फ्राकें नहीं हैं, नदी बोली ‘‘फ्राके ंउतार दो कूद जाओधारा में... किनारे कम पानी था, माधुरी बोली’’ शिवानी पहले रेत मेंलेटते हैं। मैंने कहा,...
सुनीता माहेश्वरी रात के ढाई बजे थे, पर उनसठ वर्षीय डॉ. अनूप माहेश्वरी की आँखों में नींद नहीं थी | उनके मन में उथल-पुथल सी मची...
उम्मीद की छाँव में हाथ में पकड़ी डिग्रियों की फाइल, जिसे सुबह से थामे-थामे हाथ अकड़ चुके थे अचानक ही...
नंदन वन गोमती नदी के किनारे स्थित था। वहां सेमल आम , जामुन , बरगद आदि के...
कथाकार : सुधा आदेश माँ को महीने भर से अपनी सेवा करते देखकर अरूणिमा के मन में अपनी सहेली मीनल...
रात के ढाई बजे थे, पर उनसठ वर्षीय डॉ. अनूप माहेश्वरी की आँखों में नींद नहीं थी | उनके मन में उथल-पुथल सी मची हुई थी | वे...
कथाकार: सुधा आदेश देवर सुमित की पुत्री शुभा का विवाह था । सुमित और दीपाली महीने भर पहले से ही...
कथाकार : कुसुम भट्ट गौरया गौरया से रू-ब-रू होने के अहसास से भीगती जा रही हूँ... मेरे इर्द-गिर्दरंगों का वर्तुल बन रहा है। हरी, गुलाबी, नीली किरणों का जाल देख रही हूँ... गोया सूरज पर चिड़िया की आँख टिकी है...! सृष्टि का सम्पूर्ण सौन्दर्य यहाँबिछल रहा है...! लम्बे अंतराल बाद गहन शांति और सुख महसूस कर रहीहूँ... सर सर बहता सुख इन्द्रियों में उतर रहा है..., इतना हलका मैंने बहुत कमपलों में महसूस किया है... जब सेमल के फूल सा अपना आपा लगे... गोया मेरा कायातंरण हो गया हो... इस खचाखच भरे हाल में मैं लोगांे से कहती हूँ - आपने गौरया देखी है...? हैरतअंगेज हूँ ये मेरी बात नहीं सुनते... मेरे होंठ भी नहीं हिलते! बेआवाज मेरीआत्मा की कौंध उन तक नहीं पहुँचती... शब्दों को लिबास देने के लिये होठोंका खुलना जरूरी है...? कांप उठी थी मैं जब गौरया का दिखना अचानक बन्द हो गया था, जाने क्यूँमुझे अपने आस-पास जहाँ तक मेरी छोटी सी दृष्टि जाती है रेत के टीले औरकंकरीट के जंगल ही दृष्टिगोचर होते हैं...शायद कंकरीट के जंगलों केविस्तार होने के फलस्वरूप गौरया हमसे रूठ कर चली गई होगी... कहीं कोईपेड़ न होने के कारण उसकी छटपटाहट इस कदर बढ़ गई होगी कि उसनेहमारी दुनिया से नाता तोड़ दिया होगा। कहाँ गई होगी गौरया? इस धरती पर कहाँ मिला होगा उसे ठौर ठिया...? अक्सर इस तरह के बेमानी प्रश्न मुझे परेशान करते रहते हैं, हो सकता हैगौरया आपकी स्मृति में हो अगर आपका मन कंकरीट के जंगलों का विस्तारहोते देख बगावत पर उतारू हो... बचपन की खिड़की से गांव देखती हूँ अमूमन, गोबर मिट्टी से लिपी तिबारी मेंगौरया का झुण्ड बेखौफ आकर चह चह चूँ चूँ का शोर मचाता तो मुझे अपनीथाली लेकर भीतर जाना पड़ता ढीट गौरया वहाँ भी आकर मेरी थाली में दोचार दाने मुझे चीन्हती उड़ा ही लेती तो भी उस पर गुस्सा होने की बजाय प्यारही उमड़ता, यह नन्हीं सी प्यारी चिड़िया बिन्दी जैसी चमकीली आँखों से टुकरटुकर ताकती टोह लेती हुई आग से धधकते चूल्हे के पास आकर टुक टुकचोंच में दाना उठाती मजे से बेखौफ्! और पंख फैलाते हुए आकाश पथ परउड़ जाती... इसे पंखांे के जलने का खतरा नहीं! ‘‘बड़ी ढ़ीट है ये गौरया...!’’ मां रोटी बेलती हुई खिड़की से गौरया की उडानदेखती ‘‘क्यों न हो... इसकी देह - मन पर सांकलें थोड़े न बंधी हैं... हवा से भरे हैंइसके पंख... तभी तो आकाश थाम लेता है इसे विराट में... ‘‘दसवीं’’ कक्षाकी विद्यार्थी मैं अस्फुट बुदबुदाती तो माँ की आवाज कलेजे में नश्तर सीचुभती - लड़कियों को पंख दे दो तो उनकी उड़ान भी ऐसी होगी... राह मेंबाज-चीलांे गिद्दों का खतरा... लड़की इतनी कोमल कि जूझ नहीं सकतीशिकारी से... ‘‘मां भी अस्फुट बुदुबुदाती - लड़की और चिड़िया दोनों कीदुनिया एकदम विपरीत - एक चार दीवारी के भीतर... दूसरी आकाश मेंउन्मुक्त... छत की कडियांे के बीच गौरया का घोंसला होता जिसे हम सुरक्षा देते - कोई क्यों तोड़े किसी का घर...’’ गांव के शैतान बच्चे लम्बी लकड़ी से जबकचोटना चाहते गौरया के अन्डे बच्चे.. तो मैं उन्हंे चपत लगाती - सृष्टि मेंप्रत्येक जीव का घर बनाने का हक है...’’ गौरया के बच्चों के थोड़ा सा पंखखुलने को हुए कि गौरया उन्हें चोंच से धक्का मार कर आसमान में उड़ाने कोबावली रहती! कितनी अदभुत है गौरया की पाठशाला! ‘‘मुझे कौतुहल होता- आदमी गौरया से क्यांे नहीं सीखता जीवन का पाठ...?’’ इधर कुछ बड़े दिल के लोग गौरया बचाने के वास्ते अपनी उजली आत्मा कोसूरज के बरक्श रखते हुए चेतावनी देते रहे - चिड़िया बचाओ... पेड़बचाओ... जल जंगल बचाओ... वरना मृत्यु की सुरंग में दफन हो जाओऽ... ‘‘इसमें मेरी क्या भूमिका होनी चाहिये मैं उनसे पूछना चाहती थी और प्रत्येकसुबह मिट्टी के कसोरा में छत पर जल भर कर रख आस पास अनाज के दानेबिखेर देती हूँ, फिर भी गौरया का दीदार नहीं हुआ! तो मैं अवसाद में चलीगई... लोग मुझे पागल समझते हैं वे चाकू की नोक से मेरी आत्मा की तलीछिलकर कहते हैं - ये औरत हमारी दुनिया में रहने लायक नहीं है... इसेबिजूका बना कर कंकरीट के जंगल में बबूल के पेड़ लटका दो - ताकि किसीचिड़िया की इस दुनिया के भीतर प्रवेश करने की हिम्मत न हो..., उन्होंने कहाऔर किया - लम्बे समय तक मैं बबूल के पेड़ पर उल्टा लटकी रही...!! जबभी गौरया को पाना चाहा तो आकाश कोऔं, चीलांे, गिद्धों से भरने लगा... और पांवों की जमीन कुत्तों, भेड़ियों, बाघों, चीतों, सुअरों से अटने लगी...! एक इंच भी जमीन खाली न बची... जिसमें अपने पांव धंसा सकूँ! जहाँ मेरीगौरया चहक सके... मैंने आसमान में रोती-कलपती-चीखती छायायें देखी... और सुनती रही उनकीचीखें... गहरे कुआंे से आती चीखें...! किसकी चीखें हैं...? किसका रूदनहै... इतना मार्मिक... कौन तड़फ रहा है इस अनन्त पीड़ा के हा हा कार में...? किसके हाथ पत्थर की शिलायें उठाये... कुओं का मुँह बन्द करते ताकि चीखेंभी न जा सके बाहर... धरती के गर्भ में रिसती चली जायें...। मेरे पास सवालांे का जखीरा था... जिसे लेकर दौड़ रही पृथ्वी के ओरछोर...! लोग मुझे देख कर हँसते मेरी खिल्ली उड़ाते? लेकिन ठिठक कर पलभर भी नहीं सोचते कि इतनी बड़ी दुनिया में अरबों खरबों लोग हैं, जिनकेभीतर अलग-अलग दुनिया बसती हैं... एक पेड़ (हरे) से लिपट कर प्यारकरता है तो दूसरा लोहे और पत्थर से..., एक नदी-झील में डूबता उभरता है... तो दूसरा खूनी भंवर में...? पी पीकर खून मदमस्त होता है कि उसने दुनियाफतह कर ली है...! कोई चिड़िया के लिये घोंसला बनाता है अपने अन्तस्थलमें... तो कोइ्र उसका मांस चिंचोड़ कर स्वाद के सुख में डूबता है! ...ऐसी दुनिया में अगर मुझे गौरया की तलाश है... तो इसमें मेरा क्या दोष...? इसकी तलाश में भटकती हूँ मैं जंगल.. जंगल.. और एक दिन दो झील भरीआँखों से टकराई थी... एकाएक मेरी आत्मा के इर्द-गिर्द रखे वजनी पत्थरभरभरा कर गिर गये गोया मैं हरी मुलायम घास के बिछावन से देख रही थीमेरी आत्मा की धवल हँसिनी झील के शान्त-पावन जल में उतरने कोआकुल... सपने की पीताभ आभा वाली रोशनी भरी हथेली दुलारने लगी थीमेरा स्व..., स्मृति के पंख खुलने लगे थे... गौरया हवा में छलांग लगा रही थी......