कवि ज्ञानचंद मर्मज्ञ
पट्टियाँ आँखों से इनकी मत हटाओ
पट्टियाँ आँखों से इनकी मत हटाओ, लोग रहते हैं यहाँ धृतराष्ट्र बनकर
यू तो सबके पांव हैं महफूज़ फिर भी, ये न समझो कि कोई आएगा चलकर
जंगलों ने जंगली षणयंत्र रच, झील तक सौदागरों को बेंच दी,
चंद सांसें थीं बची विश्वास की, उनको भी मुर्दाघरों को बेंच दी,
कौन से सम्बन्ध की दोगे दुहाई , लोग बैठे हैं यहाँ रिश्तों को चलकर
अपनी ही सांसों की प्रतिध्वनियां लिए,मैं तुम्हारे गीत में ढलता रहा,
तुम तो रिमझिम सावनी बरसात थी, मैं सुलगते जेठ सा तपता रहा,
जब किनारों की पकड़ पड़ती है ढीली,तब नदी भी डूब जाती है फिसलकर
खोखले सन्दर्भ, भटके रास्ते, फिर भी जाने लोग क्यों चलते रहे,
बेचकर संवेदनाओं की नमी, पत्थरों में आदमी ढलते रहे,
लोग गिरते हैं न जाने क्यों वहीँ, है लिखा जिस मोड़ पर चलना संभलकर
जिनकी बनती हैं परछाइयाँ ,उन अंधेरों का पता कैसे करें,
जो चुराते हैं चटकती धुप को,उन लुटेरों का पता कैसे करें,
कौन जाने कौन सी बस्ती है ये, लोग रहते हैं जहाँ चेहरा बदलकर
यथार्थ के धरातल पर रचित उत्तम सृजन आदरणीय 🙏🏻