तुम बिन जाऊं कहां : शायर – गीतकार मज़रुह सुल्तानपुरी
तुम बिन जाऊं कहां : शायर - गीतकार मज़रुह सुल्तानपुरी बबिता बसाक "जब किसी फिल्म के गीत हिट होते हैं...
तुम बिन जाऊं कहां : शायर - गीतकार मज़रुह सुल्तानपुरी बबिता बसाक "जब किसी फिल्म के गीत हिट होते हैं...
आल्हा छंद ~ निज भाषा बिन सब बेकार अक्षर अक्षर भाषा बनते, भाषा प्रगटे भाव विचार।अपनी भाषा अपनी बोली, निज...
सरस्वती वंदना मुझे ऐसा वर दे मां मैं तेरा ध्यान करूं जब - जब तुझको ध्याऊं नित - नूतन गीत...
वरिष्ठ साहित्यकार: गोप कुमार मिश्र उदाहरण -४ पियूष वर्ष तथा आनंद वर्धक छंद छन्द पीयूषवर्ष मापनी- 2122 21 , 22...
कथाकार : कुसुम भट्ट गौरया गौरया से रू-ब-रू होने के अहसास से भीगती जा रही हूँ... मेरे इर्द-गिर्दरंगों का वर्तुल बन रहा है। हरी, गुलाबी, नीली किरणों का जाल देख रही हूँ... गोया सूरज पर चिड़िया की आँख टिकी है...! सृष्टि का सम्पूर्ण सौन्दर्य यहाँबिछल रहा है...! लम्बे अंतराल बाद गहन शांति और सुख महसूस कर रहीहूँ... सर सर बहता सुख इन्द्रियों में उतर रहा है..., इतना हलका मैंने बहुत कमपलों में महसूस किया है... जब सेमल के फूल सा अपना आपा लगे... गोया मेरा कायातंरण हो गया हो... इस खचाखच भरे हाल में मैं लोगांे से कहती हूँ - आपने गौरया देखी है...? हैरतअंगेज हूँ ये मेरी बात नहीं सुनते... मेरे होंठ भी नहीं हिलते! बेआवाज मेरीआत्मा की कौंध उन तक नहीं पहुँचती... शब्दों को लिबास देने के लिये होठोंका खुलना जरूरी है...? कांप उठी थी मैं जब गौरया का दिखना अचानक बन्द हो गया था, जाने क्यूँमुझे अपने आस-पास जहाँ तक मेरी छोटी सी दृष्टि जाती है रेत के टीले औरकंकरीट के जंगल ही दृष्टिगोचर होते हैं...शायद कंकरीट के जंगलों केविस्तार होने के फलस्वरूप गौरया हमसे रूठ कर चली गई होगी... कहीं कोईपेड़ न होने के कारण उसकी छटपटाहट इस कदर बढ़ गई होगी कि उसनेहमारी दुनिया से नाता तोड़ दिया होगा। कहाँ गई होगी गौरया? इस धरती पर कहाँ मिला होगा उसे ठौर ठिया...? अक्सर इस तरह के बेमानी प्रश्न मुझे परेशान करते रहते हैं, हो सकता हैगौरया आपकी स्मृति में हो अगर आपका मन कंकरीट के जंगलों का विस्तारहोते देख बगावत पर उतारू हो... बचपन की खिड़की से गांव देखती हूँ अमूमन, गोबर मिट्टी से लिपी तिबारी मेंगौरया का झुण्ड बेखौफ आकर चह चह चूँ चूँ का शोर मचाता तो मुझे अपनीथाली लेकर भीतर जाना पड़ता ढीट गौरया वहाँ भी आकर मेरी थाली में दोचार दाने मुझे चीन्हती उड़ा ही लेती तो भी उस पर गुस्सा होने की बजाय प्यारही उमड़ता, यह नन्हीं सी प्यारी चिड़िया बिन्दी जैसी चमकीली आँखों से टुकरटुकर ताकती टोह लेती हुई आग से धधकते चूल्हे के पास आकर टुक टुकचोंच में दाना उठाती मजे से बेखौफ्! और पंख फैलाते हुए आकाश पथ परउड़ जाती... इसे पंखांे के जलने का खतरा नहीं! ‘‘बड़ी ढ़ीट है ये गौरया...!’’ मां रोटी बेलती हुई खिड़की से गौरया की उडानदेखती ‘‘क्यों न हो... इसकी देह - मन पर सांकलें थोड़े न बंधी हैं... हवा से भरे हैंइसके पंख... तभी तो आकाश थाम लेता है इसे विराट में... ‘‘दसवीं’’ कक्षाकी विद्यार्थी मैं अस्फुट बुदबुदाती तो माँ की आवाज कलेजे में नश्तर सीचुभती - लड़कियों को पंख दे दो तो उनकी उड़ान भी ऐसी होगी... राह मेंबाज-चीलांे गिद्दों का खतरा... लड़की इतनी कोमल कि जूझ नहीं सकतीशिकारी से... ‘‘मां भी अस्फुट बुदुबुदाती - लड़की और चिड़िया दोनों कीदुनिया एकदम विपरीत - एक चार दीवारी के भीतर... दूसरी आकाश मेंउन्मुक्त... छत की कडियांे के बीच गौरया का घोंसला होता जिसे हम सुरक्षा देते - कोई क्यों तोड़े किसी का घर...’’ गांव के शैतान बच्चे लम्बी लकड़ी से जबकचोटना चाहते गौरया के अन्डे बच्चे.. तो मैं उन्हंे चपत लगाती - सृष्टि मेंप्रत्येक जीव का घर बनाने का हक है...’’ गौरया के बच्चों के थोड़ा सा पंखखुलने को हुए कि गौरया उन्हें चोंच से धक्का मार कर आसमान में उड़ाने कोबावली रहती! कितनी अदभुत है गौरया की पाठशाला! ‘‘मुझे कौतुहल होता- आदमी गौरया से क्यांे नहीं सीखता जीवन का पाठ...?’’ इधर कुछ बड़े दिल के लोग गौरया बचाने के वास्ते अपनी उजली आत्मा कोसूरज के बरक्श रखते हुए चेतावनी देते रहे - चिड़िया बचाओ... पेड़बचाओ... जल जंगल बचाओ... वरना मृत्यु की सुरंग में दफन हो जाओऽ... ‘‘इसमें मेरी क्या भूमिका होनी चाहिये मैं उनसे पूछना चाहती थी और प्रत्येकसुबह मिट्टी के कसोरा में छत पर जल भर कर रख आस पास अनाज के दानेबिखेर देती हूँ, फिर भी गौरया का दीदार नहीं हुआ! तो मैं अवसाद में चलीगई... लोग मुझे पागल समझते हैं वे चाकू की नोक से मेरी आत्मा की तलीछिलकर कहते हैं - ये औरत हमारी दुनिया में रहने लायक नहीं है... इसेबिजूका बना कर कंकरीट के जंगल में बबूल के पेड़ लटका दो - ताकि किसीचिड़िया की इस दुनिया के भीतर प्रवेश करने की हिम्मत न हो..., उन्होंने कहाऔर किया - लम्बे समय तक मैं बबूल के पेड़ पर उल्टा लटकी रही...!! जबभी गौरया को पाना चाहा तो आकाश कोऔं, चीलांे, गिद्धों से भरने लगा... और पांवों की जमीन कुत्तों, भेड़ियों, बाघों, चीतों, सुअरों से अटने लगी...! एक इंच भी जमीन खाली न बची... जिसमें अपने पांव धंसा सकूँ! जहाँ मेरीगौरया चहक सके... मैंने आसमान में रोती-कलपती-चीखती छायायें देखी... और सुनती रही उनकीचीखें... गहरे कुआंे से आती चीखें...! किसकी चीखें हैं...? किसका रूदनहै... इतना मार्मिक... कौन तड़फ रहा है इस अनन्त पीड़ा के हा हा कार में...? किसके हाथ पत्थर की शिलायें उठाये... कुओं का मुँह बन्द करते ताकि चीखेंभी न जा सके बाहर... धरती के गर्भ में रिसती चली जायें...। मेरे पास सवालांे का जखीरा था... जिसे लेकर दौड़ रही पृथ्वी के ओरछोर...! लोग मुझे देख कर हँसते मेरी खिल्ली उड़ाते? लेकिन ठिठक कर पलभर भी नहीं सोचते कि इतनी बड़ी दुनिया में अरबों खरबों लोग हैं, जिनकेभीतर अलग-अलग दुनिया बसती हैं... एक पेड़ (हरे) से लिपट कर प्यारकरता है तो दूसरा लोहे और पत्थर से..., एक नदी-झील में डूबता उभरता है... तो दूसरा खूनी भंवर में...? पी पीकर खून मदमस्त होता है कि उसने दुनियाफतह कर ली है...! कोई चिड़िया के लिये घोंसला बनाता है अपने अन्तस्थलमें... तो कोइ्र उसका मांस चिंचोड़ कर स्वाद के सुख में डूबता है! ...ऐसी दुनिया में अगर मुझे गौरया की तलाश है... तो इसमें मेरा क्या दोष...? इसकी तलाश में भटकती हूँ मैं जंगल.. जंगल.. और एक दिन दो झील भरीआँखों से टकराई थी... एकाएक मेरी आत्मा के इर्द-गिर्द रखे वजनी पत्थरभरभरा कर गिर गये गोया मैं हरी मुलायम घास के बिछावन से देख रही थीमेरी आत्मा की धवल हँसिनी झील के शान्त-पावन जल में उतरने कोआकुल... सपने की पीताभ आभा वाली रोशनी भरी हथेली दुलारने लगी थीमेरा स्व..., स्मृति के पंख खुलने लगे थे... गौरया हवा में छलांग लगा रही थी......
क्यूँ मेरी आँखों में आते हैं बराबर आंसू तोड़ जाते हैं भरम मेरा ये अक्सर आंसू जाने कब से मेरी...
हम आज कोरोना कोविड-19 के कारण वैश्विक शोक से घिरे हुए हैं, और राष्ट्रीय स्तर पर हम शर्मिंदा है। हमने...